
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम ने अदृश्यवाण से रावण का मुकुट गिरा दिया और मंदोदरी के कर्णफूल कटकर जमीन पर गिर पड़े तो पूरी रंगशाला आश्चर्य चकित हो गयी। सबसे ज्यादा चिंता मंदोदरी को हुई क्योंकि कर्णफूल तो उसके सुहाग के प्रतीक हैं उसे अपशकुन की चिंता सताने लगी तो उसने रावण को फिर समझाया। मंदोदरी ने कहा चराचर स्वरूप भगवान श्रीराम जी ने मनुष्य रूप में निवास किया है उनसे बैर मत कीजिए। इस पर भी रावण का अभिमान नहीं टूटा और वह कहने लगा कि स्त्री स्वभाव में आठ अवगुण हमेशा रहते हैं। इन्हीं अवगुणों में एक भय भी है। मंदोदरी तीसरी बार समझा चुकी है लेकिन रावण की समझ में नहीं आया। इस प्रसंग में यही कथा बतायी गयी है। अभी तो प्रभु श्रीराम के अदृश्य बाण ने जो कौतिक किया, उसे गोस्वामी तुलसीदास बता रहे हैं-
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग।
रावन सभा संसक सब देखि महा रस भंग।
कंप न भूमि न मरुत विसेषा, अस्त्र-सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी, असगुन भयउ भयंकर भारी।
दसमुख देखि सभा भय पाई, बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही, मुकुट परे कस असगुनताही।
सयन करहु निज निज गृह जाई, गवने भवन सकल सिर नाई।
मंदोदरी सोच उर बसेऊ, जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।
सजल नयन कह जुग कर जोरी, सुनहु प्रानपति विनती मोरी।
कंत राम विरोध परिहरहू, जानि मनुज जनि हठमन धरहू।
रावण और मंदोदरी समेत कई राक्षस गण रंगशाला में आमोद प्रमोद में लीन हैं तभी प्रभु श्रीराम के अदृश्य वाण ने ऐसा चमत्कार किया और वापस उनके तरकस में चला गया। यह देखकर रावण की सभा भयभीत हो गयी। वे सोचने लगे कि न तो भूकम्प आया और न बहुत जोर की हवा चली और न कोई अस्त्र-शस्त्र ही आंखों को दिखाई पड़ा, फिर ये छत्र, मुकुट और मंदोदरी के कर्णफूल कैसे गिर पड़े। सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह तो बहुत बड़ा अपशकुन हो गया है। सभा को भयभीत देखकर रावण ने हंसकर जुगत बनाते हुए कहा कि सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा? रावण यह बताना चाहता है कि उसने अपने सिर एक-एक करके भगवान शिव पर चढ़ा दिये थे। उसके बदले में करोड़ों सिरों का वरदान मिला था। इसलिए रावण कहता है कि आप लोग अपने-अपने घर जाकर सो जाओ, डरने की कोई बात नहीं है, तब सब लोग सिर नवाकर चले गये लेकिन जब से कर्णफूल जमीन पर गिरे तभी से मंदोदरी के हृदय में चिंता बस गयी। नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह रावण से कहने लगी हे प्राणनाथ, मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम, श्रीराम से विरोध छोड़ दीजिए उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए।
विस्व रूप रघुवंस मनि, करहु बचन विस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।
पद पाताल सीस अज धामा, अपर लोक अंग अंग विश्रामा।
भृकुटि बिलास भयंकर काला, नयन दिवाकर कघ घनमाला।
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा, निसि अरू दिवस निमेष अपारा।
श्रवन दिसा दस बेद बखानी, मारुत स्वास निगम निज बानी।
अधर लोभ जम दसन कराला, माया हास बाहु दिगपाला।
आनन अनल अंबुपति जीहा, उतपति पालन प्रलय समीहा।
रोम राजि अष्टादस भारा, अस्थि सैल, सरिता नसजारा।
उदर उदधि अधगो जातना, जगमय प्रभु का बहु कलपना।
अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान।
अस बिचारि सुनु प्रान पति, प्रभुसन बयरू बिहाइ।
प्रीति करहु रघुवीर पद मम अहिबात न जाइ।
मंदोदरी कहती है कि मेरे इन बचनों पर विश्वास कीजिए कि वे रघुकल के शिराोमणि श्रीरामचन्द्र जी विश्वसत्य हैं अर्थात सारा विश्व उन्हीं का है। वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं। पाताल जिन विश्व रूप भगवान का चरण है। ब्रह्मलोक सिर है, अन्य बीच के सब लोक जिनके भिन्न-भिन्न् अंगों पर विश्राम कर रहे हैं। भयंकर काल जिनकी भृकुटि का इशारा पाते हैं किसी को भी अपना ग्रास बना लेता है। सूर्य उनके नेत्र हैं और बादलों के समूह उनके बाल हैं अश्विनी कुमार जिनकी नासिका है। रात और दिन जिनके अपार निमेष अर्थात पलक झपकाने और खोलने जैसे हैं। दशो दिशाएं कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है। लोभ जिनका अधर (हांेठ) हैं, यमराज भयानक दांत हैं। माया हंसी है। दिक्पाल भुजाएं हैं, आग जिनका मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा अर्थात क्रिया है। अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियां जिनकी रोमावली है, पर्वत अस्थियां हैं, नदियां नसों का जाल है, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इन्द्रियां हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय है अधिक कल्पना अर्थात ऊहापोह क्या किया जाए। शिव जिनका अहंकार है, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चन्द्रमा मन है और महान विष्णु जी ही चित्त (हृदय) है, उन्हीं चराचर स्वरूप भगवान श्रीराम जी ने मनुष्य रूप में निवास किया है। मंदोदरी कहती है कि हे प्राणपति सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर श्री रघुवीर ने चरणों में प्रीति कीजिए जिससे मेरा अहिवात अर्थात सुहाग न जाए।
बिहंसा नारि बचन सुनि काना, अहो मोह महिमा बलवाना।
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं, अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया, भय अविवेक असौच अदाया।
रिपुकर रूप सकल तैं गावा, अति विसाल भय मोहि सुनावा।
सो सब प्रिया सहज बस मोरे समुझि परा प्रसाद अब तोरे।
जानिउं प्रिया तोरि चतुराई, एहि विधि कहहु मोरि प्रभुताई।
तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि, समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।
मंदोदरि मनमहुं अस ठयऊ, पियहि कालबस मति भ्रम भयऊ।
मंदोदरी की बातें सुनकर रावण खूब हंसा और बोला, अहो, मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान है। स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण हमेशा रहते हैं-साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोक होना), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र विराट रूप गाया है और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया है। हे प्रिये वह सब (चराचर जगत) तो स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे अब यह समझ पड़ा है। हे प्रिये तेरी चतुराई मैं समझ गया, तू इस बहाने मेरी प्रभुता का बखान
कर रही है। रावण कहता है हे
मृगनयनी तेरी बातें बड़ी गूढ़ अर्थात रहस्य से भरी है। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुड़ाने वाली है। यह सुनकर मंदोदरी ने निश्चय कर लिया कि पति (रावण) को मृत्यु के वश में होने से मति भ्रम हो गया है। -क्रमशः (हिफी)