
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अंगद रावण की सभा में निडर होकर बैठा है, तब रावण उससे पूछता है कि तू कौन बंदर है? अंगद अपना परिचय देता है और प्रभु श्रीराम ने कहा था कि जिस प्रकार मेरा कार्य हो और रावण का हित वही बात करना इसलिए अंगद रावण को हर प्रकार से समझाता है। बालि का नाम सुनकर रावण प्रभावित भी होता है और अंगद को अपनी तरफ मिलाने का प्रयास भी करता है लेकिन अंगद पर उसकी भेद नीति अर्थात मतभेद पैदा करने की नीति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रावण और अंगद के बीच तरह-तरह की बातें होती हैं। इस प्रसंग में यही बताया गया है।
कह दसकंठ कवन तै बंदर, मैं रघुवीर दूत दसकंधर।
मम जनकहिं तोहि रही मिताई, तव हित कारन आयउं भाई।
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती, सिव विरंचि पूजेहु बहु भांती।
बर पायहु कीन्हेउ सब काजा, जीतेहु लोकपाल सब राजा।
नृप अभिमान मोह बस किंबा, हरि आनिहु सीता जगदंबा।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा, सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा।
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी, परिजन सहित संग निज नारी।
सादर जनकसुता करि आगे, एहि विधि चलहु सकल भय त्यागे।
प्रनतपाल रघुवंसमनि त्राहि-त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि।
अंगद जैसे ही सभा में बैठा तो रावण ने कहा अरे बंदर तू कौन है? अंगद ने जवाब दिया, हे दस गर्दनांे वाले रावण मैं श्री रघुवीर जी का दूत हूं। मेरे पिता से तुम्हारी मित्रता थी इसलिए हे भाई मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही यहां आया हूं। तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिव जी की और ब्रह्मा जी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वरदान पाए हैं और सब काम सिद्ध किये हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है। राजमद से या मोहवश तुम जगत जननी (जगत माता) सीता जी को हर लाए हो अब तुुम मेरे शुभ बचन अर्थात हितकारी सलाह सुनो। उसके अनुसार चलने से प्रभु श्रीराम जी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे। अंगद ने बताया कि तुम अपने दांतों में तिनका (घास) दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियों समेत अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक सीता जी को आगे करके इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो और बड़ी दीनता के साथ ये कहो कि हे शरणागत की रक्षा करने वाले, रघुवंश शिरोमणि श्रीरामजी, मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार तुम्हारी (आत्र्तदीन) पुकार सुनकर प्रभु श्रीराम तुम्हें निर्भय कर देंगे।
रे कपिपोत बोलु संभारी, मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी।
कहु निज नाम जनक कर भाई, केहि नाते मानिऐ मिताई।
अंगद नाम बालि कर बेटा, तासों कबहुं भई ही भेंटा।
अंगद बचन सुनत सकुचाना, रहा बालि बानर मैं जाना।
अंगद तहीं बालिकर बालक, उपजेहु बंस अनल कुल घालक।
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु, निज मुख तापस दूत कहायहु।
अब कहु कुसल बालि कहं अहई, बिहंसि बचन तब अंगद कहई।
दिन दस गएं बालि पहिं जाई, बूझेहु कुसल सखा उर लाई।
राम विरोध कुसल जसि होई, सो सब तोहि सुनाइहि सोई।
सुनुसठ भेद होइ मन ताके, श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें।
हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस।
अंगद ने जिस तरह से रावण को प्रभु श्रीराम के पास चलने के लिए कहा उससे महान अहंकारी रावण का क्रोधित होना स्वाभाविक था। रावण
क्रोध में आकर बोला, अरे बंदर के बच्चे, संभालकर बोल, मूर्ख मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं। अरे भाई, अपना और अपने बाप (पिता) का नाम तो बताओ क्योंकि तुम कहते हो मेरे पिता से आपकी मित्रता रही है। तू किस नाते से मित्रता मानता है? अंगद ने कहा मेरा नाम अंगद है, मैं बानर राज बालि का पुत्र हूं, उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगद की बात सुनकर रावण कुछ सकुचा गया क्योंकि रावण बालि से पराजित हो चुका था। इसलिए बालि का नाम सुनते ही सकुचाकर बोला-हां, मुझे याद आ रहा है बालि नामक एक बंदर था। इसके बाद रावण भेद नीति का प्रयोग करते हुए बोला, अरे अंगद, तू ही बालि का पुत्र (बालक) है? अरे कुल नाशक, तू तो अपने कुल रूपी बांस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ। तू गर्भ में ही क्यों नहीं नष्ट हो गया? तू व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुख से तपस्वियों का दूत कहलाया। अब बालि की कुशल तो बता, वह आजकल कहां है? तब अंगद ने हंसकर कहा-दस दिन अर्थात कुछ दिन बाद ही तुम स्वयं बालि के पास जाकर अपने मित्र को हृदय से लगाकर उसी से कुशल पूछना। अंगद ने कहा श्रीराम जी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है वह सब तुमको वे सुनावेंगे। अंगद रावण की भेद नीति को भी समझ गया और कहने लगा अरे मूर्ख सुन भेद उसी के मन में पड़ सकता है जिसके हृदय में श्री रघुबीर न हों। अंगद ने कहा हे रावण, तुम कुल के रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बातें नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं।
सिव विरंचि सुरमुनि समुदाई, चाहत जासु चरन सेवकाई।
तासु दूत होइ हम कुल बोरा, अइसिहुं मति उर बिहर न तोरा।
सुनि कठोर बानी कपि केरी, कहत दसानन नयन तरेरी।
खल तव कठिन बचन सब सहऊं, नीति धर्म मैं जानत अहऊं।
कह कपि धर्म सीलता तोरी, हमहुं सुनी कृत पर त्रिय चोरी।
देखी नयन दूत रखवारी, बूड़ि न मरहु धर्म व्रत धारी।
कान नाक बिनु भगिनि निहारी, क्षमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी।
धर्म सीलता तव जग जागी, पावा दरसु हमहुं बड़ भागी।
अंगद रावण को समझाते हुए कहता है कि शिव जी और ब्रह्मा जी आदि देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा करना चाहते हैं उनका दूत होकर मैंने कुल को डुबो दिया? अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता। वानर अंगद की कठोर वाणी सुनकर रावण को गुस्सा तो आया लेकिन आंखें तरेर कर वह बोला अरे दुष्ट मैं तेरे सब कठोर बचन इसीलिए सह रहा हूं कि मैं नीति और धर्म को जानता हूं अर्थात इसी के चलते तुझे छोड़ रहा हूं। अंगद ने कहा कि हे रावण तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है वह यह कि तुमने परायी स्त्री की चोरी की है और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आंखों से देख ली है। अंगद का यह संकेत है कि हनुमान जी दूत बनकर आए थे तो उनकी पूंछ में आग लगवा दी थी। अंगद कहते हैं कि ऐसे धर्म का पालन करने वाले तुम लोग डूब कर मर क्यों नहीं जाते? अंगद ने कहा, नाक-कान से रहित बहन को देखकर तुमने धर्म विचार कर ही तो क्षमा कर दिया था। तुम्हारी धर्मशीलता जग जाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान हूं जो तुम्हारा दर्शन पाया है। -क्रमशः (हिफी)