
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम के दूत के रूप में अंगद महाभिमानी रावण से वार्ता कर रहे हैं। प्रभु श्रीराम ने पहले ही बताया था कि ऐसी बतकही करना जिससे मेरा कार्य हो और रावण का भी हित हो जाए। इसलिए अंगद बार-बार रावण को समझाते हैं, उसका अहंकार दूर करने का प्रयास करते हैं लेकिन रावण अपने समान बलशाली किसी को समझता ही नहीं है। अपने पराक्रम का बखान करता है तब अंगद उससे पूछते हैं कि यह तो बताओ कि इस संसार में कितने रावण हैं? इस बहाने अंगद रावण को याद कराना चाहते हैं कि तुमको कितने लोग पराजित कर चुके हैं। इसके बाद भी रावण अपने अहंकार में डूबा रहता है। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो अंगद की वार्ता से रावण चिढ़कर जवाब दे रहा है-
जौं असि मति पितु खाए कीसा, कहि अस बचन हंसा दससीसा।
पितहि खाइ खातेउं पुनि तोही, अबहीं समुझि परा कछु मोही।
बालि विमल जस भाजन जानी, हतउं न तोहि अधम अभिमानी।
कहु रावन रावन जग केते, मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते।
बलिहि जितन एक गयउ पताला, राखेउ बांधि सिसुन्ह हय साला।
खेलहिं बालक मारहिं जाई, दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई।
एक बहोरि सहसभुज देखा,
धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।
कौतुक लागि भवन लै आवा, सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा।
एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की कांख।
इन्ह महुं रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख।
अंगद ने जब कहा कि हनुमान जी ने तुम्हारे बारे में यह सच ही बताया था कि न तो लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है तो रावण कहने लगा कि अरे बानर, जब तेरी ऐसी बुद्धि है तभी तो तू बाप को खा गया अर्थात तेरे पिता बालि की मौत हुई। ऐसा कहकर रावण हंसने लगा। अंगद ने कहा पिता को खाकर मैं तुमको भी खा डालता लेकिन अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ रही है। अरे नीच अभिमानी बालि के निर्मल यश का कारण जानकर मैं तुम्हें नहीं मार रहा हूं। अंगद ने कहा कि रावण पहले यह तो बता कि जगत में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावणों के बारे में अपने कानों से सुन रखा है उन्हें सुन। एक रावण तो महाराज बलि को जीतने के लिए पाताल गया था तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बांध रखा था। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी तो उन्होंने उसे छुड़ा दिया। इसके बाद एक रावण को सहस्त्र बाहु ने देखा था और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार का जंतु समझकर पकड़ लिया। तमाशा समझकर वह उसे अपने घर ले गया तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया। अंगद ने कहा और एक रावण के बारे में तो कहने पर मुझे बड़ा संकोच हो रहा है। वह रावण तो बहुत दिनों तक मेरे पिता बालि की बगल (कांख) में ही दबा रहा। इनमें से तुम कौन से रावण हो? चिढ़ना छोड़कर सच-सच बताओ।
सुनु सठ सोइ रावन बल सीसा, हर गिरि जान जासु भुज लीला।
जान उमापति जासु सुराई, पूजेउं जेहि सिर सुमन चढ़ाई।
सिर सरोज निज करन्हि उतारी, पूजेउं अमित बार त्रिपुरारी।
भुज विक्रम जानहिं दिगपाला, सठ अजहूं जिन्हके उर साला।
जानहिं दिग्गज उर कठिनाई, जब जब भिरउं जाइ बरिआई।
जिन्ह के दसन कराल न फूटे, उर लागत मूलक इव टूटे।
जासु चलत डोलति इमि
धरनी, चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी।
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी, सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी।
तेहि रावन कहं लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्वर खर्ब खल, अब जाना तव ग्यान।
अंगद की बात सुनकर रावण क्रोध में भरकर कहने लगा, अरे मूर्ख मैं वही बलवान रावण हूं जिसकी भुजाओं की लीला (कौतुक) कैलाश पर्वत जानता है, जिसकी शूरता (बहादुरी) उमापति महादेव जी जानते हैं जिन्हें अपने सिर रूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा की थी। सिर रूपी कमलों को अपने हाथों से उतार-उतार कर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजी की पूजा की है। अरे मूर्ख, मेरी भुजाओं का पराक्रम दिक्पाल जानते हैं जिनके हृदय में वही पराक्रम आज भी चुभ रहा है। दिग्गज अर्थात दिशाओं के हाथी मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं, जिनके भयानक दांत मेरी कठोर छाती से लगकर मूली की तरह टूट गये लेकिन मेरी छाती पर खरोंच तक नहीं लगी। उन दिग्गजों से मैं जबरन भिड़ा था। रावण ने कहा अरे वानर तू यह भी सुन ले, जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव। मैं वही जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूं, अरे झूठी बकवास करने वाले क्या तूने मेरे बारे में कानों से कभी नहीं सुना? उस महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध रावण को तू छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता है? अरे दुष्ट असभ्य और तुच्छ बंदर, अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया।
सुनि अंगद सकोप कह बानी, बोलु संभारि अधम अभिमानी।
सहसबाहु भुज गहन अपारा, दहन अनल सम जासु कुबारा।
जासु परसु सागर खर धारा, बूड़े नृप अगनित बहु बारा।
तासु गर्व जेहि देखत भागा, सो नर क्यों दससीस अभागा।
राममनुज कस रे सठ बंगा,
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।
पसु सुर धेनु कल्प तरु रूखा, अन्न दान अरू रस पीयूषा।
बैनतेय खग अहि सहसानन, चिंता मनि पुनि उपल दसानन।
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा, लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा।
सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि।
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि।
रावण के ये बचन सुनकर अंगद क्रोध सहित बोले-अरे नीच अभिमानी सोच-समझकर बोल, जिनका फरसा सहस्त्रबाहु की भुजाओं रूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था जिनका फरसा रूपी समुद्र की तीव्र
धारा में अनगिनत राजा अनेक बार डूब गये, उन परशुराम जी का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे रावण (दसशीश) वे क्या सचमुच मनुष्य हैं। अंगद कहते हैं कि क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड क्या श्रीरामचन्द्र जी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुषधारी हैं? और गंगा जी क्या सिर्फ एक सामान्य नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्य भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है? गरुड़ जी क्या पक्षी है? शेष जी क्या सर्प है? अरे रावण चिंतामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ, मूर्ख सुन बैकुण्ठ भी क्या सिर्फ लोक (जगत) है? और श्री रघुनाथ जी की अखण्ड भक्ति भी क्या अन्य लाभांें जैसा ही लाभ है? अंगद जी कहते हैं कि सेना समेत मेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर नगर को जलाकर और तेरे पुत्र को मारकर हनुमान जी जिस प्रकार लौट गये
और उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सका अरे मूर्ख क्या वे साधारण वानर हैं? -क्रमशः (हिफी)