
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अंगद रावण को समझाता है, उसके अभिमान को तोड़ना चाहता है, इसलिए बीच-बीच में चिढ़ाता है। नीति की बातें बताते हुए अंगद कहते हैं कि बाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूर्ख, अति दरिद्र, बदनाम अत्यन्त बूढ़े, पुराने रोगी, निरंतर क्रोध में रहने वाले, भगवान विष्णु से द्रोह करने वाले, वेद और संतों के विरोधी, अपना ही शरीर पोषित करने वाले, परायी निंदा करने वाले और महान पापी- ये 14 प्राणी जीते ही मुर्दे के समान हैं। अंगद रावण को भी उसी श्रेणी का बताते हैं। इस पर रावण प्रभु राम की निंदा करने लगता है तो बालि पुत्र अंगद को क्रोध आ जाता है और वह अपने दोनों हाथ जमीन पर जोर से पटकते हैं। इससे धरती कांपने लगती है। रावण के मुकुट सिर से गिर पड़ते हैं। कुछ मुकुट तो रावण अपने सिर पर रख लेता है लेकिन चार मुकुट अंगद प्रभु, राम के पास भेज देते हैं जो राजा की चार नीतियों के प्रतीक हैं। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो अंगद जी रावण को समझा रहे हैं-
अब जनि बत बढ़ाव खल करही, सुनु मम बचन मान परिहरही।
दसमुख मैं न बसीठी आयउं, अस बिचारि रघुवीर पठायउं।
बार बार अस कहइ कृपाला, नहिं गजारि जसु बधें सृकाला।
मन महुं समुझि बचन प्रभु केरे, सहेउं कठोर बचन सठ तेरे।
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा, लै जातेउं सीतहि बर जोरा।
जानेउं तव बल अधम सुरारी, सूनें हरि आनिहि पर नारी।
तैं निसिचर पति गर्व बहूता, मैं रघुपति सेवक कर दूता।
जौं न राम अपमानहि डरऊं, तोहि देखत अस कौतुक करऊं।
तोहि पटकि महि सेन हति चैपट करि तव गाउं।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउं।
अंगद ने रावण से कहा- अरे दुष्ट अब बढ़ा चढ़ाकर बातें न कर और मैं जो कह रहा हूं, उसे सुन। अभिमान का त्याग कर दे। हे दशमुख मैं दूत की तरह संधि करने नहीं आया हूं। श्री रघुवीर जी ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है। कृपालु श्रीराम जी बार-बार ऐसा कहते हैं कि सियार को मारने से शेर को कभी यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख, प्रभु के उन बचनों को याद करके ही मैंने तेरे कठोर बचन सहन कर लिये हैं, नहीं तो मैं तेरा मुंह तोड़कर सीताजी को यहां से जबर्दस्ती ले जाता। अरे अधम, देवताओं के शत्रु, तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया था, जब तू अकेले (सूने) में परायी स्त्री को चुरा लाया। तू राक्षसों का राजा और बडा अभिमानी है लेकिन मैं तो रघुनाथ जी के सेवक (सुग्रीव) का दूत हूं अर्थात् प्रभु श्रीराम के सेवक का भी सेवक हूं। यदि मैं श्रीराम जी के अपमान से न डरूं तो तेरे देखते-देखते ही ऐसा तमाशा कर दूं कि तुझे जमीन पर पटक कर तेरी सेना का संहार कर और तेरे गांव को चैपट कर अरे मूर्ख तेरी युवती स्त्रियों समेत जानकी जी को ले जाऊं।
जौं अस करौं तदपि न बड़ाई, मुएहिं बधे नहि कछु मनुसाई।
कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा, अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।
सदा रोगबस संतत क्रोधी, विष्नु बिमुख श्रुति संत विरोधी।
तनु पोषक निंदक अघखानी, जीवत सव सम चैदह प्रानी।
अस विचारि खल बधउं न तोही, अब जनि रिस उपजावसि मोही।
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा, अधर दसन दसि मीजत हाथा।
रे कपि अधम मरन अब चहसी, छोटे बदन बात बड़ि कहसी।
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें, बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।
अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता वनवास।
सो दुख अरु जुबती विरह पुनि निसि दिन मम त्रास।।
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक।।
अंगद जी कह रहे हैं, यदि ऐसा करूं तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी बहादुरी नहीं है। वह कहते है। वाम मार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूर्ख, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढे़, नित्य के रोगी, निरंतर क्रोध में रहने वाले, भगवान विष्णु से विमुख, वेद और संतों के विरोधी अपने ही शरीर का पोषण करने वाले, परायी निंदा करने वाले और महान पापी लोग तो जीवित रहते हुए भी मुर्दे (शव) के समान होते हैं। अंगद ने रावण से कहा, अरे दुष्ट, ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता अब तू मुझ में क्रोध न पैदा कर अर्थात् मुझे गुस्सा न दिलाओ।
अंगद के बचन सुनकर राक्षसराज रावण दांतों से होंठ चबाते हुए क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला- अरे नीच बंदर, अब तू मरना ही चाहता है। इसी से छोटे मुंह बड़ी बात कहता है। अरे, मूर्ख बंदर तू जिसके बल पर कड़वे बचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है। उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो उसके पिता ने बनवास दे दिया। उसे एक तो इसी बात का दुख है, उस पर युवती स्त्री की बिरह और फिर रात दिन मेरा डर बना रहता है। रावण कहता है कि जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेक मनुष्यों को राक्षस रात-दिन खाया करते हैं, अरे मूर्ख जिद छोड़कर विचार कर।
जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा, क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।
हरिहर निंदा सुनइ जो काना, होइ पाप गोघात समाना।
कट कटान कपि कुंजर भारी, दुहु भुजदंड तमकि महिमारी।
डोलत धरनि सभासद खसे, चले भाजि भय मारुत ग्रसे।
गिरत संभारि उठा दसकंधर, भूतल परे मुकुट अति संुंदर।
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि संवारे, कछु अंगद प्रभु पास पबारे।
रावण ने जब प्रभु श्रीराम की निंदा की तब तो कपि श्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हो उठे क्योंकि शास्त्र ऐसा कहते हैं कि जो अपने कानों से भगवान विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गाय की हत्या के समान पाप होता है। इसीलिए वानर श्रेष्ठ अंगद प्रभु श्रीराम की निंदा सुनते ही बहुत जोर से चिल्लाए (कटकाटाए) और उन्होंने तमक कर (बड़ी ताकत लगाकर) अपने दोनों भुजदण्डों को जमीन पर दे मारा। इससे पृथ्वी हिलने लगी, जिससे वहां बैठे रावण के सभासद गिर पड़े और भय रूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले। रावण भी गिरते-गिरते संभला लेकिन इस बीच उसके अत्यंत सुन्दर मुकुट जमीन पर गिर पड़े। इन मुकुटों में से कुछ तो रावण ने उठाकर अपने सिर पर
सजा लिये और कुछ अंगद ने
उठाकर प्रभु श्री रामचन्द्र के पास फेंक दिये। -क्रमशः (हिफी)