
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कई कहावतों को जन्म दिया जिनका प्रयोग आज भी होता है-जैसे का बरसा जब कृषी
सुखाने…। इसी प्रकार रावण की सभा में जब अंगद की बातंे सुनकर रावण बहुत क्रोधित हुआ और निशाचरों को आदेश दे दिया कि जाओ और वानर-भालुओं को खा डालो, पृथ्वी को वानरों से हीन कर दो और जीवित ही उन दोनों तपस्वी भाइयों को पकड़ कर ले आओ, तब अंगद ने प्रभु श्रीराम का स्मरण करके जमीन पर अपना पैर रख दिया और कहा अरे रावण मेरे इस पैर को यदि तुम्हारी सभा में कोई उठा दे तो श्रीराम जी बिना सीता जी को लिये हुए वापस चले जाएंगे। अंगद के पैर को कोई उठा नहीं पाया तभी से यह कहावत शुरू हुई कि फलां अंगद के पांव की तरह जमकर बैठ गया है। यहां पर यही प्रसंग बताया गया है। अभी तो अंगद ने जो मुकुट प्रभु श्रीराम के पास फेंके हैं, उनको देखकर वानर-भालू क्या सोच रहे, यह बताया गया।
आवत मुकुट देखि कपि भागे, दिनहीं लूक परन विधि लागे।
की रावन करि कोप चलाए, कुलिस चारि आवत अति धाए।
कह प्रभु हंसि जनि हृदय डेराहू, लूक न असनि केतु नहिं राहू।
ए किरीट दसकंधर केरे, आवत बालि तनय के पे्ररे।
तरकि पवन सुत कर गहे, आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास।
मुकुट आते देखकर वानर डरकर भागने लगे। वे सोचने लगे कि हे विधाता क्या दिन में ही उल्कापात अर्थात तारे टूटकर गिरने लगे हैं अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं जो बड़े बेग से चले आ रहे हैं। वानरों की यह हालत देखकर प्रभु श्रीराम ने हंसकर कहा अरे भाई डरो नहीं, ये न उल्का है, न वज्र है और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई ये तो रावण के मुकुट हैं जो बालि पुत्र अंगद के फेंके हुए आ रहे हैं। यह सुनकर पवन पुत्र हनुमान ने उछलकर उन मुकुटों को हाथ में पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उन मुकुटों का प्रकाश सूर्य के समान था।
उहां सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ।
यहि विधि बेगि सुभट सब
धावहु, खाहु भालु कपि जहं जहं पावहु।
मर्कट हीन करहु महि जाई, जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा, गाल बजावत तोहि न लाजा।
मरु गर काटि निलज
कुलधाती, बल बिलोकि बिहरति नहीं छाती।
रे त्रियचोर कुमारगगामी, खलमल रासि मंदमति काभी।
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा, भएसि कालबस खल मनुजादा।
याको फलु पावहिगो आगें, बानर भालु चपेटन्हि लागें।
रामु मनुज बोलत असि बानी, गिरहिं न तव रसना अभिमानी।
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं, सिरन्हि समेत समर महि माहीं।
सो नर क्यों दसकंध बालि
बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहु लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़।
तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउं तोहि तेहि त्रास, कटु जल्पक निसिचर अधम।
रावण की सभा में अंगद ने जो कौतुक किया और उससे सभासद डरकर भागने लगे तो रावण सबसे
क्रोधित होकर कहने लगा कि इस बंदर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुस्कराने लगा। रावण यह देखकर और क्रोधित हुआ। वह कहने लगा इस बंदर को मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहां कहीं रीछ-वानरों को पाओ वहीं खा डालो। पृथ्वी को बंदरों से रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों को जीते जी पकड़कर ले आओ।
रावण के ये कोप भरे बचन सुनकर युवराज अंगद भी क्रोधित होकर बोले- तुझे गाल बजाते लाज नहीं आयी। अरे निर्लज्ज, अरे कुलघाती, तू अपना गला काटकर आत्महत्या क्यों नहीं कर लेता। मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती। अरे स्त्री चोर, अरे कुमार्ग पर चलने वाले, अरे दुष्ट, पाप की राशि, मंद बुद्धि और कामी, तू सन्नपात (गंभीर बीमारी) में क्या दुर्वचन बक रहा है। अरे दुष्ट राक्षस, तू काल के वश में हो गया है इसका फल तू आगे वानर-भालुओं के चपेटे में लगने पर पावेगा। प्रभु श्रीराम मनुष्य हैं, ऐसा बचन बोलते ही अरे अभिमानी तेरी जीभ क्यों नहीं गिर पड़ती? अंगद आगे कहता है कि तेरी जीभ अकेले नहीं बल्कि सिरों के समेत रणभूमि में गिरेगी। हे दशकंध, जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे हैं? अरे कुजाति, अरे जड़, बीस आंखें होते हुए भी तू अंधा है, तेरे जन्म को धिक्कार है। श्रीरामचन्द्र जी के बाण समूह तेरे रक्त के प्यासे हैं, इस डर से अरे कड़वी बातें बोलने वाले नीच राक्षस मैं तुझे छोड़ता हूं।
मैं तव दसन तोरिबे लायक, आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।
असि रिस होत दसउ मुख तोरौं, लंका गहि समुद्र महं बोरौं।
गूलरि फल समान तव लंका, बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।
मैं बानर फल खात न बारा, आयसु दीन्ह न राम उदारा।
जुगुति सुनत रावन मुसुकाई, मूढ़ सिखिहिं कहं बहुत झुठाई।
बालि न कबहुं गाल अस मारा, मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।
सांचेहुं मैं लबार भुज बीहा, जौ न उपारिउं तव दस जीहा।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा, सभा माझ पन करि पद रोपा।
जौं मम चरन सकसि सठ टारी, फिरहिं रामु सीता मैं हारी।
सुनहु सुभट सब कह दससीसा, पद गहि धरनि पछारहु कीसा।
अंगद कहते हैं कि मैं तो तेरे दांत तोड़ने में समर्थ हूं, पर क्या करूं श्रीराम जी ने मुझे आज्ञा नहीं दी है। ऐसा
क्रोध आता है कि तेरे दशों मुंह तोड़ डालूं और तेरी लंका को पकड़कर समुद्र में डुबो दूं। तेरी लंका तो गूलर के फल के समान है। तुम सब कीड़े उसके भीतर निडर होकर बस रहे हो। मैं बंदर हूं मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? लेकिन उदार (कृपालु) श्रीराम चन्द्र जी ने वैसी आज्ञा नहीं दी।
अंगद की युक्ति सुनकर रावण मुस्कराया और बोला अरे मूर्ख बहुत झूठ बोलना तूने कहां से सीखा। तेरे पिता बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं बजाया, जान पड़ता है कि तू तपस्वियों से मिलकर लबार (झूठा) हो गया है। अंगद कहते हैं कि अरे बीस भुजा वाले यदि तेरी दशों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूं। श्रीरामचन्द्र जी के प्रताप को समझकर अंगद
क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावण की सभा में दृढ़ता के साथ पैर रोप दिये। अंगद ने प्रण करते हुए कहा कि अरे मूर्ख यदि तू मेरा चरण पृथ्वी से हटा सके तो श्रीराम जी लौट जाएंगे मैं सीता जी को हार गया। यह सुनकर रावण ने कहा कि हे सब वीरो, सुनो पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ अर्थात् पटक दो। -क्रमशः (हिफी)