
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अंगद जी ने जिस चतुराई से प्रभु श्रीराम को रावण के मुकुट प्राप्त करने की घटना बतायी, उसे सुनकर प्रभु हर्षित हुए और फिर अंगद से उन्होंने लंका के हालात के बारे में जानकारी ली। लंका मंे चार दरवाजे हैं, इसलिए प्रभु श्रीराम ने सेना को चार भागों में बांटकर चारों तरफ से हमला बोल दिया। उधर, रावण बिल्कुल निश्चिंत बैठा था और इस प्रकार वानर-भालुओं के हमले से लंका में कोहराम मच गया। राक्षस सेना भी मुकाबले में आ गयी। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध होने लगा। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो अंगद से प्रभु श्रीराम वार्ता कर रहे हैं-
परम चतुरता श्रवन सुनि विहंसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालि कुमार।
रिपु के समाचार जब पाए, राम सचिव सब निकट बोलाए।
लंका बांके चारि दुआरा, केहि विधि लागिअ करहु बिचारा।
कह कपीस रिच्छेस विभीषन, सुमिरि हृदयं दिनकर कुल भूषन।
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा, चारि अनी कपि कटकु बनावा।
जथाजोग सेनापति कीन्हे, जूथप सकल बोलि तब लीन्हे।
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए, सुनि कपि सिंघनाद करि धाए।
हरषित रामचरन सिर नावहिं, गहि गिरि सिखर वीर सब
धावहिं।
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा, जय रघुवीर कोसलाधीसा।
जानत परम दुर्ग अति लंका, प्रभु प्रताप कपि चले असंका।
घटाटोप करि चहुं दिसि घेरी, मुखहिं निसान बजावहिं भेरी।
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महाबल सींव।
अंगद की बहुत चतुरता सुनकर उदार हृदय श्रीराम हंसने लगे। इसके बाद बालि पुत्र अंगद ने लंका के समाचार बताए। शत्रु के बारे में जब समाचार मिल गये तो श्री रामचन्द्र जी ने सब मंत्रियों को अपने पास बुलाया और कहा- लंका में चार बड़े विकट दरवाजे हैं, उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो। वानर राज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान और विभीषण ने हृदय में सूर्यकुल के भूषण श्री रघुनाथ जी का स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। उन लोगों ने वानरों की सेना के चार दल बनाए और उनके लिए यथा योग्य सेनापति तैनात किये। इसके बाद सभी सेनापतियों (यूथपति) को बुलाया और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर सिंह के समान गर्जना करके दौड़े। वानर और भालु हर्षित होकर श्रीराम के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब बीर दौड़ते हैं। वे कोशलराज रघुनाथ जी की जय हो पुकारते हुए गर्जते और ललकारते हैं। लंका को अत्यंत श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर श्री रामचन्द्र जी के प्रताप से निडर होकर चल पड़े। चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरह लंका को चारों दिशाओं से घेर कर वे मुंह से ही डंका और नगाड़े की रणभेरी बजाने लगे। महान बल की सीमा के वानर-भालु सिंह के समान ऊंचे स्वर से ‘श्रीराम जी की जय’, लक्ष्मण जी की जय, वानरराज सुग्रीव की जय की गर्जना करने लगे।
लंका भयउ कोलाहल भारी, सुना दसानन अति अहंकारी।
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई, बिहंसि निसाचर सेन बुलाई।
आए कीस काल के प्रेरे,
छुधावंत सब निसिचर मेरे।
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा, गृह बैठे अहार विधि दीन्हा।
सुभट सकल चारिहुं दिसि जाहू, धरि-धरि भालु कीस सब खाहू।
उमा रावनहिं अस अभिमाना, जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना।
चले निसाचर आयसु मांगी, गहि कर भिंडिपाल बर सांगी।
तोमर मुद्गर परसु प्रचंडा, सूल कृपान परिध गिरि खंडा।
जिमि अरुनोपल निकर निहारी, धावहिं सठ खग मांस अहारी।
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा, तिमि धाए मनुजाद अबूझा।
नानायुध सर चाप धर
जातुधान बल वीर।
कोट कंगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर।
लंका में बड़ा भारी कोहराम मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो। यह कहकर हंसते हुए उसने राक्षसों की सेना बुलाई और कहा- बंदर काल (मृत्यु) की प्रेरणा से चले आए हैं, मेरे राक्षस सभी भूखे हैं।
विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया।
रावण बोला, हे वीरो- सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ, वानर सबको पकड़-पकड़ कर खा
जाओ। शिव जी कहते हैं कि हे
पार्वती, रावण को ऐसा अभिमान था कि जैसे टिटिहरी पक्षी पैर ऊपर को
करके इसलिए सोता है कि यदि आसमान गिरा तो वह उसे पैरों से थाम लेगा।
रावण से आज्ञा मांगकर और हाथों में उत्तम भाले, बरछी, तोमर, मुग्दर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दुधारी तलवार, परिध और पहाड़ों के टुकड़े लेकर राक्षस चलें। वे इस तरह चले जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों को देखकर मांस समझकर टूट पड़ते हैं और पत्थरों से उनकी चोंच टूटने का दुख उन्हें नहीं दिखाई पड़ता। इस प्रकार अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-वाण धारण किये करोड़ों बलवान और रणधीर राक्षस वीर किले के परकोटे पर चढ़ गये।
कोट कंगूरन्हि सोहहिं कैसे, मेरु के संृगनि जनु धन वैसे।
बाजहि ढोल निसान जुझाऊ, सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा, सुनि कादर उर जाहिं दरारा।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा, अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।
धावहिं गनहि न अवघट घाटा, पर्वत फोरि करहिं गहि बाटा।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं, दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।
राक्षस परकोटे के कंगूरों पर इस तरह शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझारू ढोल और डंके आदि बज रहे हैं जिनकी ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में लड़ने का उत्साह आ जाता है। अगणित नफेरी और भेरी बज रही है जिन्हें सुनकर कायरों का हृदय भी लड़ने के लिए उत्साहित हो जाता है। राक्षसों ने कंगूरों पर चढ़कर ही अत्यंत विशाल शरीर वाले महान योद्धा वानर और भालुओं के समूह देखे। उन्होंने देखा, वे वानर-भालू दौड़ते हैं, ऊंची-नीची विकट घाटियों की कुछ भी परवाह नहीं करते। पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दांतों से ओंठ काटते और डपटते हैं। -क्रमशः (हिफी)