अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

उत रावन इत राम दोहाई

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

श्रीराम और रावण की सेना मंें युद्ध प्रारम्भ हो गया। उधर से वानर-भालू श्रीराम की जयकार करते हुए राक्षसों पर टूट पड़े। लंका के निवासी रावण को गालियां दे रहे हैं। नगर में हाहाकार मचा है। राक्षसों का दल विचलित होने लगा तो रावण ने उन्हें ललकारा और कहा कि जो युद्ध से भागेगा, उसे मैं मार डालंूगा। यह सुनकर राक्षस प्राणों का मोह छोड़ लड़ने लगे। इससे वानर भी डरकर भागने लगे। भगवान शंकर-पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि यह तो प्रभु की नरलीला है- आगे चलकर कपि-भालू ही जीतेेंगे। युद्ध का प्रसंग बहुत लम्बा है। अभी तो दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हुआ है-
उत रावन इत राम दोहाई, जयति जयति जय परी लराई।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं, कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।
धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं।
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहं तहं राम जसु गावत भए।
एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आप हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ।
दोनों सेनाओं में युद्ध शुरू हो गया। इधर, श्रीराम की जय तो उधर से राक्षस रावण की जय बोल रहे हैं। जय जय की ध्वनि होते ही लड़ाई शुरू हो गयी। राक्षस पहाड़ों के ढेर के ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की तरफ फेंक देते हैं। प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकड़े लेकर किले की तरफ फेंकते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटक कर भागते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चंचल और तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्ती से उछल कर किले पर चढ़ गये। वे जहां-तहां महलों में घुसकर श्रीराम जी का यशगान करने लगे। इसके बाद एक-एक राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर खुद और नीचे राक्षस योद्धा को लिये हुए वे किले के ऊपर से जमीन पर आ गिरते हैं।
राम प्रताप प्रबल कपि जूथा मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा।
चढ़े दुर्ग पुनि जहं तहं बानर, जय रघुवीर प्रताप दिवाकर।
चले निसाचर निकर पराई, प्रबल पवन जिमि धन समुदाई।
हाहाकार भयउ पुर भारी, रोवहिं बालक आतुर नारी।
सब मिलि देहिं रावनहिं गारी, राजकरत एहिं मृत्यु हंकारी।
निजदल बिचल सुनी तेहि काना, फेरि सुभट लंकेस रिसाना।
जो रन बिमुख सुना मैं काना, सो मैं हतब कराल कृपाना।
सर्बसु खाइ भोग करि नाना, समर भूमि भए बल्लभ प्राना।
उग्र बचन सुनि सकल डेराने, चले क्रोध करि सुभट लजाने।
सन्मुख मरन बीर कै सोभा, तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा।
बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
व्याकुल किये भालु कपि परिध त्रिसूलन्हि मारि।
श्रीराम के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड पराक्रमी राक्षसों के झुंड को मसल देते हैं। इसके बाद वानर जहां-तहां किले पर चढ़ गये और भगवान श्रीराम के जयकारे लगा रहे हैं। इससे राक्षसों के झुंड उसी तरह भाग खड़े हुए जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के झुंड तितर-बितर हो जाते हैं। लंका नगर में भारी हाहाकार मचा है। बालक, स्त्रियां और रोगी, जो भागने में असमर्थ हैं, वे रोने लगे। सभी मिलकर रावण को गालियां दे रहे हैं कि राज्य करते हुए इसने अपनी मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना को विचलित होते सुना, तब भागते हुए राक्षस योद्धाओं को लौटाने के लिए वह क्रोधित होकर बोला- मैं जिसे युद्ध भूमि से भागा हुआ अपने कानों से सुनूंगा, उसे स्वयं भयानक दुधारी तलवार से मार डालूंगा।
रावण कहता है कि मेरा सब कुछ खाकर और भांति-भांति के भोग करके अब रणभूमि में तुम्हें अपने प्राण प्यारे हो गये। रावण के उग्र वचन सुनकर सब राक्षस बीर डर गये और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट पड़े। वे सोचने लगे कि युद्ध भूमि में शत्रु के सन्मुख युद्ध करते हुए मरने में ही बीर की शोभा है। इसके बाद उन्होंने अपने प्राणों का मोह छोड़ दिया। बहुत से अस्त्र-शस्त्र धारण किये सब वीर राक्षस ललकार-ललकार कर भिड़ने लगे। उन्होंने परिधों और त्रिशूलों से मार-मार कर सभी वानरों और रीछों को व्याकुल कर दिया।
भय आतुर कपि भागन लगे, जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे।
कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता, कहं नल नील दुबिद बलवंता।
निज दल बिकल सुना हनुमाना, पच्छिम द्वार रहा बलवाना।
मेघनाद तहं करइ लराई, टूट न द्वार परम कठिनाई।
पवन तनय मन भा अति क्रोधा, गर्जेउ प्रबल कालसम जोधा।
कूदिलंक गढ़ ऊपर आवा, गहि गिरि मेघनाद कहुं धावा।
भंजेउ रथ सारथी निपाता, ताहि हृदय महुं मारेसि लाता।
दुसरंे सूत विकल तेहिं जाना, स्यंदन घालि तुरत गृह आना।
अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।
रन बांकुरा बालि सुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल।
शिवजी पार्वती को युद्धभूमि की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि वानर भयातुर होकर भागने लगे, यद्यपि हे पार्वती, आगे चलकर वे ही जीतेंगे। युद्ध भूमि में उस समय कोई कहता है कि अंगद, हनुमान कहां हैं, बलवान नल-नील और द्विविद कहां हैं? हनुमान जी ने जब अपने दल को विकल अर्थात् भयभीत सुना, उस समय वे लंका के पश्चिमी द्वार पर थे। वहां उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। इसलिए वह द्वार टूट नहीं रहा था। बहुत कठिनाई हो रही थी, तब पवनपुत्र हनुमान जी के मन में बहुत भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बड़ेे जोर से गरजे और कूदकर लंका के किले पर आ गये और पहाड़ लेकर मेघनाद की तरफ दौड़े। हनुमान जी ने पहाड़ से मेघनाद का रथ तोड़ डाला, उसके सारथी (रथ हांकने वाले) को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। इस समय मेघनाद के दूसरे सारथी ने अपने मालिक को व्याकुल जानकर रथ में डाला और तुरंत घर ले गया।
इधर, अंगद ने सुना कि पवन पुत्र हनुमान किले पर अकेले ही गये हैं तो रण करने में अत्यंत कुशल बालि के पुत्र अंगद वानरों के खेल की तरह उछल कर किले पर चढ़ गये। -क्रमशः (हिफी)

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