अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

रावनु कालनेमि गृह आवा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति का प्रहार किया तो लक्ष्मण जी मूच्र्छित हो गये। हनुमान जी उन्हें उठाकर श्रीराम के पास लाए और जाम्बवान की सलाह पर लंका से सुषेण वैद्य को भी उसके घर समेत उठा लाए। सुषेण के कहने पर हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने जा रहे हैं-यह खबर रावण को भी मिल जाती है। रावण चाहता है कि हनुमान को किसी प्रकार रोका जाए। इसलिए वह कालनेमि राक्षस के पास आया जो लोगों को छलने में माहिर है। रावण ने उसे जब बताया कि हनुमान को रोकना है तो कालनेमि रावण को ही समझाने लगा कि तुम्हारे देखते जिसने लंका जला दी उसका रास्ता कौन रोक सकता है। इस पर रावण क्रोधित हो उठा। कालनेमि ने समझा कि इस पापी रावण के हाथ मरने से तो अच्छा है प्रभु श्रीराम के दूत के हाथ से मृत्यु मिले। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो लंका के वैद्य सुषेण प्रभु श्रीराम के पास लाये गये हैं-
राम पदारबिन्द सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन।
राम चरन सरसिज उर राखी, चला प्रभंजन सुत बल भाषी।
उहां दूत एक मरमु जनावा, रावनु कालनेमि गृह आवा।
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना, पुनि पुनि कालनेमि सिरु
धुना।
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा, तासु पंथ को रोकन पारा।
भजु रघुपति करु हित आपना, छाड़हु नाथ मृषा जल्पना।
नीलकंज तनु सुंदर स्यामा, हृदयं राखु लोचनाभिरामा।
मैं तैं मूढ़ मूढ़ता त्यागू, महामोह निसि सूतत जागू।
काल ब्याल कर भच्छक जोई, सपनेहु समर कि जीतिअ सोई।
सुनि दसकंठ रिसान अति तेहि मन कीन्ह विचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार।
सुषेण वैद्य ने प्रभु श्रीराम के चरण कमलों में सिर नवाया। उसने पर्वत और औषधि का नाम बताया और कहा हे पवनसुत तुम औषधि लेने जाओ। श्रीराम जी के चरण कमलों को हृदय में रखकर पवनसुत हनुमान जी अपना बल बखान कर कि मैं अभी लेकर आता हूं, ऐसा कहकर चले।
उधर, एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य का समाचार दिया। रावण कालनेमि राक्षस के घर आया। रावण ने उसको सारा हाल बताया। कालनेमि ने सुना तो अपना सिर पीट लिया अर्थात खेद जताया। उसने कहा कि तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला दिया, उसका मार्ग कौन रोक सकता है? उसने कहा कि श्री रघुनाथ जी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो। हे नाथ, झूठी बकवास छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो। मैं तू के भेदभाव वाले विचार और ममता रूपी मूढ़ता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान) रूपी रात में तुम सो रहे हो, सो जाग उठो, जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है कहीं स्वप्न में भी वह युद्ध में जीता जा सकता है?
कालनेमि की ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। कालनेमि ने मन में सोचा कि यह रावण मुझे मार डालेगा। इसीलिए पाप करने वाले इस दुष्ट के हाथों से मरने की अपेक्षा प्रभु श्रीराम के दूत के हाथ से मृत्यु योनि मिलेगी तो अच्छा रहेगा।
अस कहि चला रचिसि मग माया, सर मंदिर बर बाग बनाया।
मारुत सुत देखा सुम आश्रम, मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।
राच्छस कपट वेष तहं सोहा, मायापति दूतहि चह मोहा।
जाइ पवनसुत नायउ माथा, लाग सो कहै राम गुन गाथा।
होत महारन रावन रामहिं, जितिहहिं राम न संसय या महि।
इहां भए मैं देखउं भाई, ग्यान दृष्टिबल मोहि अधिकाई।
मागा जल तेहिं दीन्ह कमण्डल, कह कपि नहिं अघाउुं थोरे जल।
सर मज्जन करि आतुर आवहु, दिच्छा देउं ग्यान जेहिं पावहु।
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान।
कालनेमि तब मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने रास्ते में माया रची। माया से तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान जी सुंदर आश्रम देखकर वहां रुक गये और सोचा मुनि से पूछकर जल पी लूं जिससे थकावट दूर हो जाए। राक्षस कालनेमि वहां कपट वेश में मुनि बनकर विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। हनुमान जी ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह मुनि श्रीराम जी के गुणों की कथा कहने लगा। वह बोला रावण और राम में महान युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेंगे इसमें संदेह नहीं। हे भाई मैं यहां रहते हुए ही सब देख रहा हूं। मुझे ज्ञान दृष्टि का बहुत बड़ा बल है। हनुमान जी यह कथा सुनते हैं तो उन्हें लगता है कि यह मुनि बड़ा ज्ञानी है। वे उससे पानी मांगते हैं तो उसने अपना कमंडल उन्हें दे दिया। हनुमान जी कहते हैं कि थोड़े पानी से मेरी प्यास नहीं बुझेगी। तब वह बोला तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो। हनुमान जी ने तालाब में जैसे ही प्रवेश किया तो एक मगरी (मादा मगरमच्छ) ने अकुलाकर हनुमान जी का पैर पकड़ लिया। हनुमान जी ने उसे मार डाला तब वह दिव्य देह धारण करके विमान से आकाश की तरफ चली।
कपि तव दरस भइउं निष्पापा, मिटा तात मुनिवर कर सापा।
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा, मानहु सत्य बचन कपि मोरा।
असकहि गई अपछरा जबहीं, निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं।
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू, पाछें हमहिं मंत्र तुम्ह देहू।
सिर लंगूर लपेटि पछारा, निज तनु प्रगटेसि मरती बारा।
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना, सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना।
देखा सैल न औषध चीन्हा, सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा।
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ, अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ।
आकाश में जाते हुए मगरी ने कहा-हे वानर मैं तुम्हारे दर्शन से पाप रहित हो गयी। हे तात श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि यह मुनि नहीं है घोर निशाचर है मेरा बचन सत्य मानो। ऐसा कहकर ज्योंही वह अप्सरा गयी तो हनुमान जी निशाचर के पास आ गये। हनुमान जी ने कहा हे मुनि, पहले मुझसे गुरूदक्षिणा ले लीजिए, पीछे आप मुझे मंत्र दीजिएगा। इसके बाद हनुमान जी ने उसके सिर को पूंछ मंे लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना राक्षसी शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। उसके मुंह से राम-राम सुनकर हनुमान जी हर्षित हुए। इसके बाद वह उस पर्वत पर पहुंचे जहां संजीवनी थी लेकिन वह औषधि नहीं पहचान पाये। हनुमान जी ने पूरे पहाड़ को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान जी आकाश मार्ग से चले और इस प्रकार अयोध्यापुरी के ऊपर पहुंच गये। -क्रमशः (हिफी)

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