अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

भरत बाहुबल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

हनुमान जी कपटी मुनि बने कालनेमि को मारकर उस पहाड़ पर पहुंचते हैं जहां संजीवनी बूटी थी लेकिन वे संजीवनी को पहचान नहीं पाते। इसलिए पहाड़ समेत लंका की तरफ जा रहे हैं। बीच रास्ते में अयोध्या आती है तो भरत जी की निगाह उन पर पड़ती है। भरत जी समझते हैं कि कोई राक्षस जा रहा है जो पर्वत को अयोध्या के ऊपर गिरा देगा। इसलिए बिना फल (नोक) का तीर मारते हैं। हनुमान जी मूच्र्छित होकर गिर पड़ते हैं और राम नाम का स्मरण करते हैं। यह सुनकर भरत जी फौरन उनके पास जाते हैं और उन्हें होश में लाने का प्रयास करते हैं। प्रभु श्रीराम की जब वे प्रार्थना करते हैं तब हनुमान जी होश में आकर पूरा समाचार बताते हैं। भरत जी दुखी होते हैं और कहते हैं कि मेरे बाण पर सवार होकर तुम फौरन वहां पहुंच जाओ। हनुमान जी को थोड़ा अभिमान भी होता है कि मेरे भार से इनका वाण कैसे चलेगा लेकिन प्रभु श्रीराम के प्रभाव को याद करके वे भरत जी के चरणों की वंदना करते हैं। इसके बाद लंका की तरफ प्रस्थान कर जाते हैं। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।
परेउ मुरुछि महि लागत सायक, सुमिरत राम राम रघुनायक।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए, कपि समीप अति आतुर आए।
विकल बिलोकि कीस उर लावा, जागत नहिं बहु भांति जगावा।
मुख मलीन मन भए दुखारी, कहत बचन भरि लोचन बारी।
जेहि विधि राम विमुख मोहि कीन्हा, तेहि पुनि यह दारुन दुख दीन्हा।
जौ मोरे मन बच अरु काया, प्रीति राम पद कमल अमाया।
तौ कपि होउ विगत श्रम सूला, जौं मो पर रघुपति अनुकूला।
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा, कहि जय जयति कोसलाधीसा।
लीन्ह कपिहि उर लाइ, पुलकित तन लोचन सजल।
प्रीति न हृदयं समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक।
भरत जी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में यह अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा। बाण लगते ही हनुमान जी राम, रघुपति का उच्चारण करते हुए मूच्र्छित होकर जमीन पर गिर पड़े। राम, रघुपति के प्रिय बचन सुनकर भरत जी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान जी के पास आए। हनुमान जी (कपि) को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया लेकिन वे जाग ही नहीं रहे थे तब भरत जी का मुख उदास हो गया। वे मन में बहुत दुखी हुए और नेत्रों में विषाद के आंसुओं का जल भर कर बोले-जिस विधाता ने मुझे श्रीराम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुख दिया है। यदि मन बचन और शरीर से श्रीराम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो और यदि श्री रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हों तो से वानर थकावट की पीड़ा से रहित हो जाए। यह बचन सुनते ही कपिराज हनुमान जी कोशल पति श्रीरामचन्द्र की जय हो- कहते हुए उठ बैठे। भरत जी ने वानर (हनुमान जी को) गले से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में आनंद तथा प्रेम के आंसू भर आए। रघुकुल तिलक श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समा नहीं रही है।
तात कुसल कहु सुख निधान की, सहित अनुज अरु मातु जानकी।
कपि सब चरित समास बखाने, भए दुखी मन महुं पछिताने।
अहह दैव मैं कत जग जायउं, प्रभु के एकहु काज न आयउं।
जानि कुअवसरु मन
धरि धीरा, पुनि कपि सन बोले बलवीरा।
तात गहरु होइहि तोहि जाता, काजु नसाइहि होत प्रभाता।
चढु़ मम सायक सैल समेता, पठवौं तोहि जहं कृपा निकेता।
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना, मोरे भार चलिहि किमिबाना।
राम प्रभाव बिचारि बहोरी, बंदि चरन कह कपि कर जोरी।
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउं नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।
भरत बाहुबल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुं जात सराहत पुनि-पुनि पवन कुमार।
भरत जी हनुमान जी से कहने लगे कि हे तात, छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी समेत सुख निधान श्रीराम जी की कुशल कहो। वानर हनुमान जी ने संक्षेप में सब कथा बता दी। सुनकर भरत जी दुखी हुए और मन में पछताने लगे। वे कहते हैं -हा दैव, मैं जगत में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया, फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर भरत जी हनुमान जी से बोले हे तात, तुमको वहां पहुंचने में विलम्ब होगा और सवेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। इसलिए तुम पर्वत समेत मेरे बाण पर चढ़ जाओ मैं तुमको वहां भेज दूं जहां कृपा के धाम श्रीराम जी है। भरत जी की यह बात सुनकर एक बार तो हनुमान जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से भरत जी का वाण कैसे चलेगा लेकिन फिर श्रीरामचन्द्र जी के प्रभाव का स्मरण करके वे भरत के चरणों की वंदना करने लगे और हाथ जोड़कर बोले कि हे नाथ हे, प्रभो, मैं आपका प्रताप हृदय मंे रखकर तुरंत चला जाऊंगा। ऐसा कहकर और भरत जी की आज्ञा पाकर उनके चरणों की वंदना करके हनुमान जी चल पड़े।
उहां राम लछिमनहिं निहारी, बोले बचन मनुज अनुसारी।
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ, राम उठाइ अनुज उर लायउ।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ, बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।
मम हित लागि तजेहु पितु माता, सहेहु विपिन हिम आतप बाता।
सो अनुराग कहां अब
भाई, उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।
जौं जनतेउं वन बंधु बिछोहू, पिता बचन मनतेउं नहिं ओहू।
वहां लंका में लक्ष्मण जी को देखकर श्रीराम जी साधारण मनुष्यों के समान बचन बोले-आधीरात बीत चुकी हनुमान जी नहीं आए। यह कहकर श्रीराम जी छोटे भाई लक्ष्मण जी को उठाकर हृदय से लगा लेते हैं और कहते हैं कि हे भाई तुम मुझे कभी दुखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के कारण तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा, गर्मी और हवा (आंधी) सब कुछ सहन किया। हे भाई, वह प्रेम अब कहां है? मेरे व्याकुलतापूर्ण बचन सुनकर उठते क्यों नहीं, यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह हो जाएगा तो मैं
पिता जी का बचन जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था, उसे भी नहीं मानता। -क्रमशः (हिफी)

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