अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउं कालबस वीर

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

रावण जाकर कुंभकर्ण को जगाता है। कुंभकर्ण ज्ञान की बातें बताता है और हर प्रकार से समझाता है कि प्रभु श्रीराम से विरोध न करो। रावण जानता है कि कुंभकर्ण महाबलशाली है, इसलिए विभीषण, माल्यवान कालनेमि, मारीच को जिस तरह धमकाया था, उस तरह कुंभकर्ण को धमकी नहीं देता बल्कि उसे मदिरा पान कराकर उसकी मति को भ्रष्ट कर देता है। कुंभकर्ण अकेले ही युद्ध करने पहुंच जाता है जहां उसे विभीषण मिलता है और रावण ने जो दुव्र्यवहार किया उसे बताता है। कुंभकर्ण विभीषण की तारीफ करता है और कहता है कि मन, वचन और कर्म से प्रभु श्रीराम का भजन करना लेकिन मैं तो काल के वश हो गया हूं, इसलिए मुझे अपना और पराया दिखायी नहीं पड़ रहा है इसलिए तुम भी यहां से चले जाओ। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कुंभकर्ण अपनेे होश में है और रावण को समझा रहा है-
हैं दससीस मनुज रघुनायक, जाके हनूमान से पायक।
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई, प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई।
कीन्हेउ प्रभु बिरोध तेहि देवक, सिव विरंचि सुर जाके सेवक।
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा, कहतेउं तोहि समय निरबहा।
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई, लोचन सुफल करौं मैं जाई।
स्यामगात सरसीरुह लोचन, देखौं जाइ ताप त्रय मोचन।
रामरूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मांगेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक।
कंुभकर्ण रावण से कहता है कि हे रावण जिसके हनुमान सरीखे सेवक हैं वे रघुनाथ जी क्या मनुष्य है? हे भाई तुमने बहुत बुरा किया जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं बताया। वह कहता है कि हे स्वामी (रावण भ्राता) तुमने उस परम देवता का विरोध किया है जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था वह मैं तुझसे कहता पर अब तो समय जाता रहा। हे भाई, अब तो अंतिम बार बांहों में भरकर मुझसे मिल लो। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूं और तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्रीराम जी के दर्शन करूं। श्रीरामचन्द्र जी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रभु के प्रेम में मग्न हो गया। यह देखकर कि कुंभकर्ण युद्ध करने का इच्छुक नहीं है तो रावण ने करोड़ों घड़े मदिरा के और कई भैंसे मंगवाए।
महिष खाइ करि मदिरा पाना, गर्जा वज्राघात समाना।
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा, चला दुर्ग तजि सेन न संगा।
देखि विभीषनु आगे आयउ, परेउ चरन निज नाम सुनायउ।
अनुज उठाइ हृदय तेहि लायो, रघुपति भक्त जानि मन भायो।
तात लात रावन मोहि मारा, कहत परम हित मंत्र विचारा।
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउं, देखि दीन प्रभु के मन भायउं।
सुनु सुत भयउ कालबस रावन, सो कि मान अब परम सिखावन।
धन्य धन्य तै धन्य विभीषन, भयउ तात निसिचर कुल भूषन।
बंधु बंस तै कीन्ह उजागर, भजेहु राम सोभा सुख सागर।
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउं कालबस बीर।
भैंसे खाकर और मदिरापान करके कुंभकर्ण बिजली गिरने की तरह बड़ी जोर से गर्जा। मद से चूर और रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चल दिया। उसने अपने साथ सेना भी नहीं ली। उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके पैरों पर गिरकर अपना नाम बताया। छोटे भाई को उठाकर उसने गले से लगा लिया और रघुनाथ जी का भक्त जानकर विभीषण उसे बहुत प्रिय लगे। विभीषण ने कहा हे भाई परम हितकर सलाह और अपने विचार कहने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के कारण मैं श्री रघुनाथ जी के पास चला आया। दीन जानकर प्रभु के मन को मैं बहुत प्रिय लगा। कुंभकर्ण ने कहा कि हे पुत्र सुन, रावण तो काल के वश हो गया है अर्थात उसके सिर पर मृत्यु मंडरा रही है। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण तू धन्य है, धन्य है, धन्य है। हे तात तू राक्षस कुल का भूषण हो गया है। हे भाई, तूने अपना कुल का नाम उजागर (प्रकाशमय) कर दिया है जो शोभा के धाम और सुख के सागर श्री राम का भजन कर रहा है। मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर तुम
रणधीर श्रीराम का भजन करना लेकिन हे भाई मैं तो अब मृत्यु के वश में हो गया हूं और मुझे अपना-पराया भी नहीं सूझ रहा है इसलिए तुम भी मेरे सामने से चले जाओ।
तासु बचन सुनि चला विभीषन, आयउ जहं त्रैलोक विभूषन।
नाथ भूधराकार सरीरा, कुंभकरन आवत रनधीरा।
एतना कपिन्ह सुना जब काना, किलकिलाइ धाए बलवाना।
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर, कटकटाइ डारहिं ता ऊपर।
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा, करहिं भालु कपि एकएक बारा।
मुरयो न मनु तनु टरयो न टारयो, जिमि गज अर्क फलन को मारयो।
तब मारुत सुत मुठिका हन्यो, परयो धरनि ब्याकुल सिर
धुन्यो।
पुनि उठि तेहि मारेउ हनुमंता, द्युर्मित भूतल परेउ तुरंता।
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि, जहं तहं पटकि पटकि भट डारेसि।
चली बलीमुख सेन पराई, अतिभय त्रसित न कोउ समुहाई।
अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
कांख दाबि कपिराज कहुं चला अमित बल सींव।
भाई कुंभकर्ण के बचन सुनकर विभीषण लौट आए और वहां पहुंचे जहां तीनों लोकों के भूषण श्रीराम जी थे। विभीषण ने कहा कि हे नाथ, पर्वत के समान विशाल शरीर वाला युद्ध में पारंगत कुंभकर्ण आ रहा है। वानरों ने जब कानों से इतना सुना, तब वे बलवान किल किलाकर दौड़ पड़े। वृक्ष और पर्वत उखाड़ कर उठा लिये और
क्रोध से दांत कट कटाकर उन्हें कुंभकर्ण के ऊपर फेंक दिया। रीछ और वानर एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं लेकिन इससे न तो उसका मन ही मुड़ा अर्थात विचलित हुआ और न शरीर ही टाले टला जैसे मदार के फलों की मार से हाथी के शरीर पर कोई असर नहीं पड़ता, वैसे ही कुंभकर्ण पर पहाड़ों-वृक्षों के शिखर कोई असर नहीं डाल पाते। यह देखकर हनुमान जी ने उसे एक घूंसा मारा, जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और अपना सिर पीटने लगा, फिर उसने उठकर हनुमान जी को मारा। हनुमान जी चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े। इसके बाद उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया। इसके बाद तो वानर सेना भाग चली। सभी अत्यंत भयभीत हो गये, कोई भी सामने नहीं आ रहा है। सुग्रीव अंगद आदि वानरों को मूच्र्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानर राज सुग्रीव को कांख (बगल) मंे दाबकर चला।
उमा करत रघुपति नर लीला, खेल गरुड़ जिमि अहिगन मीला।
भृकुटि भंग जो कालहि खाई, ताहि कि सोहइ ऐसि लराई।
भगवान शंकर पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे उमा,
श्रीराम जी वैसे ही नर लीला कर रहे हैं जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में खेलता हो। जो भौंह के इशारे मात्र अर्थात
बिना परिश्रम के काल को भी खा
जाता है, उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है? -क्रमशः (हिफी)

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