
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
परिजन मातु पितहि मिलि सीता, फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता।
करि प्रनामु भेंटी सब सासू, प्रीति कहत कबि हियं न हुलासू।
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई, रही सीय दुहु प्रीति समाई।
रघुपति पटु पालकीं मगाईं, करि प्रबोधु सब मातु चर्ढ़ाइं।
बार-बार हिलिमिलि दुहु भाई, सम सनेहं जननीं पहुंचाई।
साजि बाजि गज वाहन नाना, भरत भूप दल कीन्ह पयाना।
हृदयं रामु सिय लखन समेता, चले जाहिं सब लोग अचेता।
बसह बाजि गज पसुहियं हारे, चले जाहिं परबस मनमारे।
गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष विसमय सहित आए परन निकेत।
प्राणप्रिय पति श्री रामचन्द्र जी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीता जी अपने मायके (नैहर) के परिजनों से तथा माता-पिता से मिलकर लौट आयीं, फिर प्रणाम करके सब सासुओं से गले लगकर मिलीं। उनके पे्रम का वर्णन करने के लिए कवि के हृदय में हुलास (उत्साह) नहीं होता क्योंकि यह वियोग का मिलन है। उनकी शिक्षा सुनकर और मनचाहा आशीर्वाद पाकर सीता जी सासुओं तथा माता-पिता दोनांें ओर की प्रीति में समायी अर्थात मग्न हैं, तब रघुनाथ जी ने सुन्दर पालकियां मंगवाईं और सब माताओ को आश्वासन देकर उन पर चढ़वाया। दोनों भाइयों ने माताओं से समान प्रेम से बार-बार मिलजुलकर उनको पहंुचाया। भरत जी और राजा जनक के दलों ने घोड़े, हाथी और अनेक तरह की सवारियां सजाकर प्रस्थान किया। सीता जी एवं लक्ष्मण जी समेत श्री रामचन्द्र जी को हृदय में रखकर सब लोग बेसुध हुए चले जा रहे हैं। बैल, घोड़े, हाथी आदि पशु हृदय में शिथिल हुए, परवश, मनमारे हुए जा रहे हैं। गुरु वशिष्ठ जी और गुरु पत्नी अरुन्धती जी के चरणों की वंदना करके सीता जी और लक्ष्मण जी समेत प्रभु श्री रामचन्द्र जी हर्ष और विषाद के साथ लौटकर पर्णकुटी पर आ गये हैं।
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू, चलेउ हृदय बड़ बिरह विषादू।
कोल किरात भिल्ल बनचारी, फेरे फिरे जोहारि जोहारी।
प्रभु श्रीराम ने फिर सम्मान करके निषादराज को बिदा किया। वह चला तो सही लेकिन उसके हृदय में विरह का बड़ा भारी विषाद है। फिर श्रीराम ने कोल, किरात, भील आदि वनवासी लोगों को लौटाया। वे सब जोहार (वंदना) करके लौट गये। -क्रमशः (हिफी)