
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम कुंभकर्ण से युद्ध कर रहे हैं। प्रभु के लिए निशाचरों को मारना तो एक खेल है लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी कुंभकर्ण की वीरता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रभु श्रीराम ने उसके मुख में तीर भर दिये फिर भी वह जमीन पर नहीं गिरा। इसके बाद प्रभु ने अपने वाण से कुंभकर्ण के सिर को धड़ से अलग कर दिया। उसका धड़ दौड़
रहा था तो जमीन धंस रही थी इसलिए उस धड़ के भी प्रभु ने टुकड़े कर
दिये। कुंभकर्ण और प्रभु श्रीराम के बीच युद्ध का वर्णन इस प्रसंग में किया
गया है।
कुंभकरन मन दीख बिचारी, हति छन माझ निसाचर धारी।
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा, कियो मृगनायक नाद गंभीरा।
कोपि महीधर लेइ उपारी, डारइ जहं मर्कट भट भारी।
आवत देखि सैल प्रभु भारे, सरन्हि काटि रज सम करिडारे।
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक, छाॅंड़े अति कराल बहु सायक।
तनु महंु प्रबिसि निसरि सर जाहीं, जिमि दामिनि धन माझ समाहीं।
सोनित स्रवत सोह तन कारे, जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे।
विकल विलोकि भालु कपि
धाए, बिहंसा जवहिं निकट कपि आए।
महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस।
कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्रीराम जी ने क्षण मात्र में ही राक्षसी सेना का संहार कर डाला है, तब वह महाबली अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया। वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहां बड़े-बड़े वानर योद्धा होते हैं, वहां डाल देता है। बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको वाणों से काटकर धूल के समान चूर-चूर कर दिया। इसके बाद रघुनाथ जी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत से अत्यंत भयानक बाण छोड़े। वे वाण कुंभकर्ण के शरीर में घुसकर इस तरह निकल जाते हैं जैसे आकाशीय बिजली बादलों में ही समा जाती हैं। उसके काले शरीर से खून बहता हुआ ऐसे शोभा देता है मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हैं। उसे ब्याकुल देखकर रीछ और वानर दौड़े। वे ज्यों ही निकट आए त्यों ही कुंभकर्ण हंसने लगा। वह बड़ा घोर शब्द करके गर्जा तथा करोड़ों (असंख्य) वानरों को पकड़कर हाथी की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा।
भागे भालु बलीमुख जूथा, वृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा।
चले भागि कपि भालु भवानी, बिकल पुकारत आरत बानी।
यह निसिचर दुकाल सम अहई, कपि कुल देस परन अब चहई।
कृपा वारिधर राम खरारी, पाहि पाहि प्रनतारति हारी।
सकरुन बचन सुनत भगवाना, चले सुधारि सरासन बाना।
रामसेन निज पाछे घाली, चले सकोप महा बलसाली।
खैंचि धनुष सर सत संघाने, छूटे तीर सरीर समाने।
लागत सर धावा रिस भरा, कुधर डगमगत डोलति धरा।
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी, रघुकल तिलक भुजा सोइ काटी।
धावा बाम बाहु गिरिधारी, प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी।
काटे भुजा सोह खल कैसा, पच्छहीन मंदर गिरि जैसा।
उग्र बिलोकनि प्रभुहिं बिलोका, ग्रसन चहत मानहुं त्रैलोका।
करि चिक्कार घोर अति
धावा, बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि।
कुंभकर्ण का रक्त बहता भयानक शरीर देखकर रीछ और वानरों के झुंड इस तरह भागने लगे जैसे भेड़िए को देखकर भेड़ों के झुंड भागते हैं। शंकर जी पार्वती को यह कथा सुनाते हुए कहते हैं कि वानर-भालू बड़ी ही दर्दनाक आवाज करते हुए व्याकुल होकर भाग चले। वे कहते जाते हैं कि यह राक्षस वानर कुल रूपी देश में दुर्भिक्ष (अकाल) की तरह है इसलिए हे कृपा रूपी जल धारण करने वाले मेघ के समान श्रीराम, हे खर राक्षस के शत्रु, हे शरणागत के दुख हरने वाले श्रीराम हमारी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। वानर-भालुओं के करुणा भरे बचन सुनते ही भगवान धनुष-बाण सुधार कर चले। महाबल शाली श्रीराम ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे अकेले आगे बढ़े। उन्होंने धनुष को खींचकर सौ वाण चढ़ाए। वाण छूटे और कुंभकर्ण के शरीर में घुस गये। वाणों के लगते ही वह क्रोध करके दौड़ा। उसके दौड़ने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी। कुंभकर्ण ने तब एक पर्वत उखाड़ लिया। रघुकुल तिलक श्री रामजी ने तब उसकी वह भुजा (हाथ) ही काट दी। तब वह बाएं हाथ में पर्वत को लेकर दौड़ा। प्रभु श्रीराम ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी। भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख के मंदराचल पहाड़ हो। उसने बहुत ही क्रोध भरी निगाह से प्रभु को देखा, मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो। वह बड़ी जोर से चिंघाड़ करके और मुंह फैलाकर दौड़ा। यह देखकर आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा-हा कहकर भागने लगे।
सभय देव करुनानिधि जान्यो, श्रवनप्रजंत सरासनु तान्यो।
विसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ, तदपि महाबल भूमि न परेऊ।
सरन्हि भरा मुख सन्मुख
धावा, काल त्रोन सजीव जनु आवा।
तब प्रभु कोपि तीव्र सर लीन्हा, धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा।
सो सिर परेउ दसानन आगे, बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागे।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा, तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा।
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर, हेठ दाबि कपि भालु निसाचर।
तासु तेज प्रभु बदन समाना, सुर मुनि सबहिं अचंभव माना।
सुर दुंदुभी बजावहिं हरषहिं, अस्तुति करहिं सुमन बहु बरसहिं।
करि विनती सुर सकल
सिधाए, तेही समय देव रिषि आए।
गगनोपरि हरि गुनगन गाए, रुचिर बीररस प्रभु मन भाए।
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए, राम समर महि सोभत भए।
देवताओं को भयभीत देखकर करुणा निधि श्रीराम ने धनुष को कान तक तानकर राक्षस (कुंभकर्ण) के मुख को वाणों से भर दिया, तब भी वह महाबली पृथ्वी पर नहीं गिरा। मुख में वाण भरे हुए वह प्रभु के सामने दौड़ा, मानो कालरूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो, तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण वाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। वह सिर रावण के आगे जा गिरा। उसे देखकर रावण ऐसे व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प। कुंभकर्ण का प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धंसी जा रही थी तब प्रभु ने उसके भी दो टुकड़े कर दिये। वानर, भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए धड़ के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े हंै जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों। कुंभकर्ण के मरने के बाद उसका तेज (जीवात्मा) प्रभु श्रीराम के मुख में समा गयी। यह देखकर
देवता और मुनि सभी आश्चर्यचकित रह गये। वे सोचते थे कि प्रभु ने इस राक्षस को मुक्ति कैसे दी, लेकिन कुंभकर्ण कौन था यह तो प्रभु ही जानते हैं। देवता नगाड़े बजाते हुए खुश हो रहे
हैं। स्तुति करते हुए फूल बरसाते हैं। विनती करके देवता चले गये तो
नारद मुनि आए। आकाश के ऊपर से उन्होंने श्री हरि के सुंदर वीर रस
युक्त गुण समूह का गान किया जो
प्रभु के मन को अच्छा लगा। नारद मुनि यह कहकर चले गये कि अब दुष्ट रावण का शीघ्र ही संहार कीजिए। श्रीराम युद्ध भूमि में अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं। -क्रमशः (हिफी)