
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रावण की सेना के महा बलशाली योद्धा एक-एक करके मारे जा रहे हैं। कुंभकर्ण के वध के बाद मेघनाद लड़ने गये थे लेकिन जाम्बवान ने ही उन्हें मूच्र्छित कर लंका में फेंक दिया, तब वह अपावन यज्ञ करने लगा। विभीषण की सलाह पर वानर सेना ने यज्ञ को पूरा ही नहीं होने दिया मेघनाद सशंकित मन से युद्ध कर रहा है लेकिन वह माया करने में बहुत निपुण है और वानर सेना उससे घबड़ाने लगती है तब लक्ष्मण जी सोचते हैं कि इस पापी को मैं बहुत अवसर दे चुका हूं, अब इसका वध करना चाहिए। उन्होंने प्रभु श्रीराम का स्मरण करके मेघनाद की छाती में बाण मारा। मरते समय उसने कपट त्याग कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण का ही स्मरण किया। अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण बहुत दुखी होता है। मंदोदरी आदि स्त्रियां रो रही हैं तब रावण उन्हें समझाता है कि यह शरीर तो नश्वर है लेकिन रावण का अभिमान दूर नहीं होता। रावण की तरह दूसरों को उपदेश देने और स्वयं आचरण न करने वाले बहुत लोग आज भी हैं। यही प्रसंग यहां पर बताया गया है। अभी तो यज्ञ विध्वंस के बाद मेघनाद रण भूमि मंे आ गया है-
आवा परम क्रोध कर मारा, गर्ज घोर रव बारहिं बारा।
कोपि मरुत सुत अंगद धाए, हति त्रिशूल उर धरनि गिराए।
प्रभु कहं छांडे़सि सूल प्रचंडा, सर हति कृत अनंत जुग खण्डा।
उठि बहोरि मारुति जुबराजा, हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा।
फिरे वीर रिपु मरइ न मारा, तब धावा करि घोर चिकारा।
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला, लछिमन छाड़े विसिख कराला।
देखेसि आवत पबि सम बाना, तुरत भयउ खल अन्तरधाना।
विविध वेष धरि करइ लराई, कवहुंक प्रगट कबहुं दुरिजाई।
देखि अजय रिपु डरपे कीसा, परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा।
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा, एहि पापिहिं मैं बहुत खेलावा।
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा, सर संधान कीन्ह करि दापा।
छांड़ा बान मांझ उर लागा, मरती बार कपटु सब त्यागा।
रामानुज कहं रामु कहं, अस कहि छांडे़सि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी, कह अंगद हनुमान।
मेघनाद अत्यंत क्रोध से भरा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके गरजने लगा। मारुति (हनुमान) और अंगद क्रोध करके दौड़े। मेघनाद ने दोनों की छाती में त्रिशूल मारकर गिरा दिया। इसके बाद उसने प्रभु (लक्ष्मण जी) पर प्रचण्ड त्रिशूल छोड़ा। अनंत (लक्ष्मण जी) ने बाण मारकर उस त्रिशूल के दो टुकड़े कर दिये। हनुमान जी और अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे लेकिन उसे किसी प्रकार का घाव नहीं हो सका। शत्रु मेघनाद घोर चिंघाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मण जी ने भयानक बाण छोड़े। बज्र के समान वाणों को आता देखकर वह दुष्ट तुरंत ही अन्तध्र्यान (गायब) हो गया और फिर भांति-भांति के रूप
धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था तो कभी छिप जाता था। शत्रु को पराजित होता न देखकर वानर डर गये, तब सर्पराज शेष जी अर्थात लक्ष्मण बहुत ही क्रोधित हुए। लक्ष्मण जी ने मन में यह विचार दृढ़ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका और अब अधिक खेलना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए। इस प्रकार कोशल पति श्रीराम जी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मण जी ने वीरोचित अभिमान (दर्प) करके वाण का संधान किया। वाण छोड़ते ही मेघनाद की छाती मंे लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया और कहने लगा श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी कहां हैं? श्रीराम कहां हैं? ऐसा कहते हुए उसने प्राण छोड़ दिये। अंगद और हनुमान जी कहने लगे कि तेरी माता धन्य हैं जो तू श्री लक्ष्मण जी के हाथों मारा गया और मरते समय तूने श्रीराम और लक्ष्मण जी का नाम लिया।
बिनु प्रयास हनुमान उठायो, लंका द्वार राखि पुनि आयो।
तासु मरन सुनि सुर गंधर्वा, चढ़ि विमान आए नभ सर्वा।
बरषि सुमन दुुंदुभी बजावहिं, श्री रघुनाथ विमल जसु गावहिं।
जय अनंत जय जगदा धारा, तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा।
अस्तुति करि सुर सिद्ध
सिधाए, लछिमन कृपा सिंधु पहिं आए।
सुत बध सुना दसानन जबहीं, मुरुछित भयउ परेउ महिं तबहीं।
मंदोदरी रुदन कर भारी, उर ताड़न बहु भांति पुकारी।
नगर लोग सब व्याकुल सोचा, सकल कहहिं दसकंधर पोचा।
तब दसकंठ विविध विधि, समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदय विचारि।
हनुमान जी ने मेघनाद के मृत शरीर को बिना परिश्रम के ही उठा लिया और उसे लंका के द्वार पर रखकर वे लौट आए। उसकी मौत की खबर सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आ गये। वे फूल बरसाकर नगाड़े बजा रहे हैं और श्री रघुनाथ जी का निर्मल यश गाते हैं। लक्ष्मण जी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-हे अनंत आपकी जय हो, हे जगदाधार। आपकी जय हो, हे प्रभो, आपने सब देवताओं का महान विपत्ति से उद्धार कर दिया। देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गये तब लक्ष्मण जी कृपा के समुद्र श्रीराम जी के पास आए।
उधर, रावण ने ज्यों ही पुत्र के
बध का समाचार सुना त्यों ही वह मूच्र्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मंदोदरी छाती पीटकर और बहुत प्रकार से विलाप करके मेघनाद को पुकार-पुकार कर रोने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गये। सभी रावण को नीच कहने लगे। रावण ने तब सब स्त्रियों को अनेक प्रकार से समझाया कि समस्त जगत तो नाशवान हैं, यह बात हृदय में विचार कर देखो।
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन, आपु न मंद कथा सुभ पावन।
पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे।
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा, लगे भालु कपि चारिहंु द्वारा।
सुभट बोलाइ दसानन बोला, रन सन्मुख जाकर मन डोला।
सो अबहीं बरू जाउ पराई, संजुग विमुख भएं न भलाई।
निज भुजबल मैं बयरु बढ़ावा, देहउ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा।
रावण मंदोदरी आदि को ज्ञान सिखा रहा है। रावण स्वयं तो नीच है लेकिन उसकी बातें (कथा) शुभ और पवित्र हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण (कुशल) होते हैं लेकिन ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं। लंका में इस तरह रात बीत गयी। सवेरा हुआ तो रीछ और वानर फिर चारों दरवाजों पर आ डटे, तब योद्धाओं को बुलाकर
रावण ने कहा लड़ाई में शत्रु के
सम्मुख जिसका मन डांवाडोल हो, अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर भागने मंे भलाई नहीं है। मैंने अपनी भुजाओं के बल पर वैर बढ़ाया है, शत्रु ने चढ़ाई की है तो उसको मैं ही उत्तर दूंगा। -क्रमशः (हिफी)