अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

हमहूं उमा रहे तेहिं संगा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम और रावण के मध्य बहुत भयानक युद्ध हुआ। भगवान शंकर पार्वती जी को कथा सुनाते हुए बताते हैं कि विभीषण जी की चिंता का प्रभु श्रीराम ने दिव्य रथ का वर्णन करके निवारण किया। हालांकि बाद में इन्द्र ने अपने सारथी मातलि के साथ अपना रथ भेजा था। इसके बाद युद्ध होने लगा और ब्रह्मा जी समेत सभी देवता आकाश में विमानों पर सवार होकर युद्ध देख रहे थे। शंकर जी ने भी उस युद्ध को देखा था। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम विभीषण जी को समझा रहे हैं-
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाके अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मति धीर।
सुनि प्रभु बचन विभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु रामकृपा सुख पंुज।
प्रभु श्रीराम जी विभीषण जी को बता रहे हैं कि हे धीर बुद्धि वाले मित्र, सुनो, जिसके पास ऐसा मजबूत रथ, जिसके बारे में मैंने अभी बताया है, होगा वह वीर संसार रूपी दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है, रावण की तो बात ही क्या है। प्रभु के ऐसे बचन सुनकर विभीषण जी ने हर्षित होकर प्रभु के चरण पकड़ लिये और कहा कि हे कृपा और सुख के समूह श्रीरामजी, आपने इसी बहाने मुझे उपदेश दिया है।
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निजनिज प्रभु आन।
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना, देखत रन नभ चढ़े विमाना।
हमहूं उमा रहे तेहिं संगा, देखत राम चरित रन रंगा।
सुभट समर रस दुहु दिसि माते, कपि जय सील रामबल ताते।
एक एक सन भिरहिं पचारहिं, एकन्ह एक मर्दि महि डारहिं।
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं, सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं।
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं, गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं।
निसिचर भट महि गाड़हिं भालू, ऊपर ढारि देहिं बहु बालू।
बीर बलीमुख जुद्ध विरुद्धे, देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे।
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत धन जिमि गाजहीं।
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छलबल करहिं जेहिं खल छीजहीं।
धरि गाल फारहिं उर विदारहिं, गल अंतावरि मेलहीं।
प्रहलाद पति जनु विविध तनु धरि समर अंगन खेलहीं।
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही।
राक्षस सेना और वानर सेना में युद्ध हो रहा है। उधर, से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड़ रहे हैं। ब्रह्मा आदि देवता अनेक सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। शिव जी पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा, मैं भी उस समाज में था और श्रीराम जी के रण मंे उत्साह की लीला देख रहा था। दोनों ओर से योद्धा रण के रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को श्रीराम जी का बल है, इससे वे जीत रहे हैं। एक-दूसरे से भिड़ते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसल कर पृथ्वी पर डाल देते हैं। वे मारते-काटते, पकड़ते और एक दूसरे को पछाड़ रहे हैं। सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं, पेट फाड़ डालते हैं, भुजाओं को उखाड़ते हैं और योद्धाओं को पैर पकड़कर पृथ्वी पर पटक देते हैं। राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में शत्रु के खिलाफ लड़ते हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानों बहुत से क्रोधित काल (मृत्यु) हों।
क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाॅटकर चपेटों से मारते हैं (पूछ से लपेट कर), दांतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू चिंघाड़ते और ऐसा छलबल करते हैं जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएं। वे राक्षसों के गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं। पेट फाड़ कर आंतों को गले में पहनते हैं। वे वानर इस तरह दिखाई पड़ते हैं मानो प्रहलाद के स्वामी अर्थात नृसिंह भगवान अनेक शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीड़ा कर रहे हों। पकड़ो, काटो, मारो, पछाड़ों आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी पर छा गये हैं। श्रीरामचन्द्र जी की जय हो जो सचमुच तिनके को वज्र (पत्थर) और पत्थर को तिनका कर देते हैं अर्थात निर्बल को सबल और सबल को निर्बल बना देते हैं।
निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजां दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करिदाप।
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर, सन्मुख चले हूह दै बंदर।
गहि कर पादप उपल पहारा, डारेन्हि ता पर एकहिं बारा।
लागहिं सैल बज्र तन तासू, खंड खंड होइ फूटहिं आसू।
चला न अचल रहा रथ रोपी, रन दुर्मद रावन अति कोपी।
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा, मर्दे लाग भयउ अति क्रोधा।
चले पराइ भालु कपि नाना, त्राहि-त्राहि अंगद हनुमाना।
पाहि पाहि रघुवीर गोसाईं, यह खल खाइ काल की नाईं।
तेहिं देखे कपि सकल पराने, दसहुं चाप सायक संधाने।
संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहं कपि भागहीं।
भयो अति कोलाहल बिकल कपिदल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुवीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रक्षक हरे।
रावण ने जब अपनी सेना को बिचलित होते देखा तो बीसों भुजाओं में धनुष लेकर रथ पर चढ़ा और राक्षस सेना से कहने लगा, सभी लोग लौटो और लड़ो। इतना ही नहीं रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुंकार करते हुए लड़ने के लिए उसके सामने आए। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक साथ प्रहार किया। पर्वत उसके पत्थर जैसे शरीर पर लगते ही टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यंत क्रोधी रणोन्मत रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा अर्थात अपने स्थान से जरा भी नहीं हिला। उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपट कर और डपट कर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेक वानर-भालू हे अंगद, हे हनुमान रक्षा कीजिए- इस तरह पुकारते हुए भागने लगे। वे कह रहे हैं- हे रघुवीर, हे गुसाईं (स्वामी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए, यह दुष्ट काल की तरह हमें खा रहा है। रावण ने देखा कि सभी बानर भाग रहे हैं, तो उसने दसों धनुषों पर वाण संधान किया (वाण चढ़ाया)। उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर बाणों के समूह छोड़े। वे वाण सर्प की तरह उड़कर जा लगते थे। पृथ्वी, आकाश, दिशा, विदिशा सभी जगह वाण भर गये हैं, वानर भागकर जाएं तो कहां जाएं। अत्यंत कोलाहल मच गया। वानर- भालुओं की सेना व्याकुल होकर दर्दनाक पुकार
करने लगी। वे कह रहे हैं-हे रघुवीर, हे करुणा सागर, हे पीड़ितों के बंधु, हे सेवकों की रक्षा करने वाले भगवान हमारी रक्षा करो। -क्रमशः (हिफी)

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