
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कुंभकर्ण और मेघनाद की मृत्यु के बाद रावण स्वयं युद्ध करने निकल पड़ा। इससे पूर्व उसने अपने राक्षस बीरों से भी साफ-साफ कह दिया कि वही रणभूमि में चले जिसे युद्ध से भय न हो। रावण रथ पर सवार होकर युद्ध भूमि में आया तो विभीषण जी को यह देखकर चिंता हुई कि श्रीराम जी के पास तो रथ है नहीं, कैसे मुकाबला करेंगे। भगवान श्रीराम ने तब विभीषण को समझाया कि यह रथ तो भौतिक है, वास्तविक रथ तो नियम-संयम, वैराग्य, संतोष, बल-बुद्धि आदि का होता है। श्रीराम जी कहते हैं कि ऐसा रथ जिसके पास होता है उसे संग्राम में कोई पराजित नहीं कर सकता, वह महा अजय संसार रूपी शत्रु को भी जीत सकता है। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो रावण युद्ध के लिए निकल रहा है-
अस कहि मरुत बेग रथ साजा, बाजे सकल जुझाऊ बाजा।
चले वीर सब अतुलित बली, जनु कज्जल कै आंधी चली।
असगुन अमित होहिं तेहि काला, गनइ न भुजबल गर्व बिसाला।
अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते।
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु काल दूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने।
ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुं मन विश्राम।
भूत द्रोहरत मोहबस राम विमुख रति काम।
राक्षस सेना को समझाकर रावण ने हवा की गति से चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझारू (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सभी अतुलनीय बलवाले निशाचर ऐसे चले मानो काजल की आंधी चली हो। उस समय असंख्य अपशकुन होने लगे लेकिन रावण को अपनी भुजाओं के बल का बहुत घमण्ड है इसलिए वह इन अपशकुनों को गिनता ही नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि अत्यंत गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं कर रहा है। हथियार हाथों से छूट जाते हैं, योद्धा रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े-हाथी साथ छोड़कर चिंघाड़ते हुए भागते हैं। सियार, गीध, कौए और गधे अपशकुन सूचक शब्द कर रहे हैं बहुत अधिक कुत्ते भौंक रहे हैं। उल्लू इस तरह से भयानक शब्द कर रहे हैं मानो वे मृत्यु के दूत हों और रावण की मृत्यु का संदेश सुना रहे हों। गोस्वामी जी कहते हैं कि जो प्राणियों से दुश्मनी करने में ही रत हों, मोह के वश में हो रहा हो, राम विमुख और काम-वासना में आसक्त हों उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और मन की शांति मिल सकती है?
चलेउ निसाचर कटकु अपारा, चतुरंगिनी अनी बहु धारा।
विविध भांति वाहन रथ जाना, बिपुल बरन पताक ध्वज नाना।
चले मत्त गज जूथ घनेरे, प्राविट जलद मरुत जनु प्रेरे।
बरन बरन विरदैत निकाया, समर सूर जानहिं बहु माया।
अति विचित्र वाहिनी बिराजी, बीर वसंत सेन जनु साजी।
चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं।
उठी रेनु रवि गयउ छपाई, मरुत थकित वसुधा अकुलाई।
पनव निसान घोर रव बाजहिं, प्रलय समय के धन जनु गाजहिं।
भेरि नफीरि बाज सहनाई, मारू राग सुभट सुखदाई।
केहरिनाद बीर सब करहीं, निज निज बल पौरुष उच्चरहीं।
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा, मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा।
हहुं मारिहउं भूप द्वौ भाई, अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई।
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई, धाए करि रघुवीर दोहाई।
रावण की अपार सेना चल पड़ी। चतुरंगिणी सेना की बहुत सी टुकड़ियां हैं। अनेक प्रकार के वाहन, रथ और सवारियां हैं तथा बहुत से रंगों की अनेक ध्वज व पताकाएं हैं। मतवाले हाथियों के बहुत से झुंड चले, मानो पवन से प्रेरित होकर वर्षा ऋतु के बादल चल रहे हों। रंग-बिरंगे बाना धारण करने वाले वीरों के समूह हैं जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं। रावण की अत्यंत विचित्र फौज शोभित हो रही है, मानो वीर बसंत ने सेना सजायी हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र
क्षुब्ध हो उठा और पर्वत डगमगाने लगे। इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गये, फिर सहसा पवन रुक गया और पृथ्वी व्याकुल हो उठी। ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनि से बज रहे हैं जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों। भेरी,, नफीरी, (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देने वाला राग बज रहा है। सब वीर सिंह की तरह गर्ज रहे हैं और अपने-अपने बल-पौरुष का बखान कर रहे हैं। रावण ने कहा हे उत्तम योद्धाओं सुनो, तुम रीछ और वानरों के झुंड को मसल डालो और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूंगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना बढ़ा दी। उधर, जब सब वानरों ने यह खबर पायी तो वे श्री रघुबीर की दुहाई देते हुए अर्थात जय श्रीराम कहते हुए दौड़ पड़े।
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुं सपच्छ उड़ाहिं भूधर वृंद नाना बान ते।
नख दसन सैल महा द्रुमायुध सकल संक न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं।
दुहु दिसि जय जयकार करि निजनिज जोरी जानि।
भिरे वीर इत रामहिं उत रावनहि बखानि।
विशाल और काल के समान कराल वे वानर, भालू इस तरह दौड़े मानो पंख वाले पर्वतों के समूह उड़ रहे हों। वे अनेक वर्णों के हैं। नाखून, दांत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बड़े बलवान हैं और किसी से डरते नहीं हैं। रावण रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूपी श्रीराम की जय-जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान कर रहे हैं। इस प्रकार दोनों तरफ के योद्धा अपनी-अपनी जोड़ी के योद्धा से भिड़ गये। इधर से श्रीराम की जय तो उधर से रावण की जय बोलते हुए युद्ध करने लगे।
रावनु रथी विरथ रघुवीरा, देखि विभीषन भयउ अधीरा।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा, बंदि चरन कह सहित सनेहा।
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना, केहि विधि जितब वीर बलवाना।
सुनहु सखा कह कृपा निधाना, जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।
बल विवेक दम परहित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, विरति चर्म संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा, बर विग्यान कठिन कोदण्डा।
अमल अचल मन त्रोन समाना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद विप्र गुर पूजा, एहि सम विजय उपाय न दूजा।
सखा धर्म मय असरथ जाके,
जीतन कहं न कतहुं रिपु ताके।
रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण बेचैन हो गये। प्रेम अधिक होने से उनके मन में संदेह हो गया। श्रीराम के चरणों की वंदना करके वे बोले-हे नाथ, आपके पास न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न पैरों में जूते हैं, वह बलवान वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपा
निधान श्रीराम ने कहा हे सखे सुनो जिससे विजय होती है वह रथ दूसरा ही है। शौर्य और धैर्य उस रथ के दोपहिए हैं। सत्य और शील उसकी मजबूत ध्वजा और पताका है। बल, विवेक, दम (इन्द्रियों को वश में रखना) और परोपकार ये चार उसके घोड़े हैं जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जुड़े रहते हैं। ईश्वर का भजन ही उस रथ का चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है और बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल और अचल मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना) नियम आदि
बहुत से वाण हैं। ब्राह्मणों और गुरू का पूजन अभेध कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे
सखा, ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास
हो, उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है। -क्रमशः (हिफी)