अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

अब जनि राम खेलावहु एही

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम के साथ रावण युद्ध कर रहा है। उसे लगता है कि सहज ही में विजय नहीं प्राप्त कर पाऊंगा तो वह यज्ञ करने गया लेकिन विभीषण जी ने प्रभु श्रीराम को यह बता दिया और वानरों ने यज्ञ का विध्वंस किया। रावण अपने जीवन और विजय दोनों इच्छाओं को अब त्याग चुका है और भयंकर युद्ध कर रहा। आकाश में देवता विमानों पर सवार होकर उस युद्ध को देख रहे हैं। देवगण प्रभु श्रीराम की स्तुति कर कहते हैं, हे प्रभु अब आपका खेल बहुत हो चुका है और सीता जी बहुत दुखी हैं, इसलिए इस दुष्ट राक्षस का संहार कीजिए। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो यज्ञ विध्वंस होने के बाद रावण युद्ध भूमि में जा रहा है-
चलत होहिं अति असुभ भयंकर, बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर।
भयउ कालवस काहु न माना, कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना।
चली तमीचर अनी अपारा, बहु गज रथ पदाति असवारा।
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसे, सलभ समूह अनल कहँ जैसे।
इहां देवतन्ह अस्तुति कीन्ही, दारुन विपति हमहि एहिं दीन्ही।
अब जनि राम खेलावहु एही, अतिसय दुखित होति बैदेेही।
देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना, उठि रघुवीर सुधारे बाना।
जटा जूट दृढ़ बांधे माथे, सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे।
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा, अखिल लोक लोचनाभिरामा।
कटितट परिकर कस्यो निषंगा, कर कोदण्ड कठिन सारंगा।
सारंग कर सुन्दर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो।
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे।
सोभा देखि हरषि सुर, बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार।
रावण के युद्ध भूमि में चलते ही भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़ कर उसके सिरों पर बैठने लगे लेकिन वह काल के वश में हो गया था। इसलिए किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा-युद्ध का डंका बजाओ। इस प्रकार निशाचरों की अपार सेना चल पड़ी। उसमें बहुत से हाथी, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु श्रीराम के सामने कैसे दौड़े जैसे पतंगों के समूह आग के आगे दौड़ते हैं। इधर, देवताओं ने स्तुति की कि हे श्रीराम जी, इसने (रावण ने) हमको दारुण दुख दिये हैं, अब आप इसे अधिक न खेलाइए। जानकी जी बहुत दुखी हो रही हैं। देवताओं के बचन सुनकर प्रभु मुस्कराए। फिर रघुनाथ जी ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूड़े को कसकर बांधे हुए हैं। उसके बीच-बीच में पुष्प गुंथे शोेभा पा रहे हैं। लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम वर्ण वाले, सम्पूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फंेटा और तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शारंग धनुष लिया। हाथ में धनुष लेकर कमर में वाणों का अक्षय तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड बहुत ही पुष्ट हैं और मनोहर चैड़ी छाती पर ब्राह्मण (भृगु जी) के चरण का चिह्न शोभित है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेष जी,
पृथ्वी समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे। प्रभु श्रीराम की शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार
वर्षा करने लगे और शोभा, शक्ति और गुणों के धाम, कल्याण निधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो, ऐसा पुकारने लगे।
एहीं बीच निसाचर अनी, कसमसात आई अति घनी।
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा, प्रलयकाल के जनु धन घट्टा।
बहु कृपान तलवारि चमंकहिं, जनु दहं दिसि दामिनीं दमंकहिं।
गज रथ तुरग चिकार कठोरा, गर्जहिं मनहुं बलाहक घोरा।
कपि लंगूर विपुल नभ छाए, मनहुं इन्द्रधनु उए सुहाए।
उठइ धूरि मानहुं जल धारा, बान बृंद भै वृष्टि अपारा।
दुंहु दिसि पर्वत करहिं प्रहारा, बज्रपात जनु बारहिं बारा।
रघुपति कोपि बान झरि लाईं, घायल भै निसिचर समुदाई।
लागत बान वीर चिक्करहीं, घुर्मि घुर्मि जहं तहं महि परहीं।
स्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी, सोनित सरि कादर भयकारी।
कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी।
जलजंतु गज पदचर तुरग खर विविध वाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने।
श्रीराम युद्ध के लिए तैयार हो गये तो इसी बीच निशाचरों की अत्यंत घनी सेना एक दूसरे को धक्का देती (कसमसाती) हुई आ गयी। उसे देखकर वानर योद्धा उसके सामने इस प्रकार चले जैसे प्रलय काल के बादलों के समूह आ गये हों। युद्ध भूमि में बहुत से कृपाण और तलवारें चमक रही हैं, मानो दशों दिशाओं से बिजली चमक रही हो। हाथी, रथ और घोड़ों का चिग्घाड़ ऐसा लग रहा है, मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों। वानरों की पूंछे आकाश में छायी हुई हैं, वे ऐसी शोभा दे रही हैं, मानों सुंदर इन्द्र धनुष उदय हुए हों। धूल ऐसे- उठ रही है मानो जल की धारा हो, बाण रूपी बूंदों की अपार वृष्टि हुई। दोनों ओर के योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं, मानों बारंबार बज्रपात हो रहा हो। श्री रघुनाथ जी ने क्रोध करके वाणों की झड़ी लगा दी जिससे राक्षसों की सेना घायल हो गयी। वाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खाकर जहां-तहां पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है, मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकों में भय उत्पन्न करने वाली खून की नदी बह चली। डरपोकों को भय उपजाने वाली अत्यंत अपवित्र रक्त की नदी बह चली है जिसके दोनों दल किनारे की तरह ही है, रथ रेत हैं और पहिए भवंर है। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े गधे तथा अनेक सवारियां हैं जिनकी गिनती कौन करे, वे नदी के जल जंतु हैं वाण, शक्ति और तोमर सर्प है, धनुष तरंगे हैं और ढाल बहुत से कछुए हैं।
बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहं सुभटन्ह के मन चेन।
मज्जहिं भूत पिसाच बेताला, प्रमथ महा झोटिंग कराला।
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं, एक ते छीनि एक लै खाहीं।
एक कहहिं ऐसिउ सौंधाई, सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई।
कहंरत भट घायल तट गिरे, जहं तहं मनहुं अर्धजल परे।
युद्ध में वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वहीं नदी का फेन है। डरपोक जहां इसे देखकर डरते हैं, वहीं उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है। भूत, पिशाच और बैताल बड़े-बड़े झोंटों वाले महान भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान कर रहे हैं। कौए और चीलें भुजाएं लेकर उड़ते हैं और एक-दूसरे से छीन कर खा जाते हैं। कोई कहते हैं कि अरे मूर्खों, ऐसी सस्ती अर्थात् बहुतायत है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पड़े कराह रहे हैं मानो जहां-तहां अर्धजल अर्थात् चिता पर आधे जले हुए मुर्दे पड़े हों। -क्रमशः (हिफी)

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