
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम अब रावण से द्वन्द्व युद्ध कर रहे हैं। रावण के सिर और भुजाएं बार-बार काटते लेकिन भगवान शंकर के वरदान से तुरंत ही नए सिर और भुजाएं उत्पन्न हो जाती हैं। यह देखकर रावण का अभिमान और बढ़ जाता है। वह विभीषण को देखता है तो उसे लगा कि विभीषण उसका भेद बता सकते हैं इसलिए वह विभीषण को मारने के लिए प्रचण्ड शक्ति छोड़ता है। प्रभु श्रीराम तो शरणागत की रक्षा करने वाले हैं और विभीषण उनकी शरण में आया है इसलिए विभीषण को पीछे कर प्रभु श्रीराम उस शक्ति के सामने आ जाते हैं। शक्ति के लगने से श्रीराम क्षण भर के लिए मूच्र्छित हो जाते हैं। प्रभु का यह खेल है लेकिन देवता इससे व्याकुल हो गये। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो वह दृश्य बताया जा रहा है जब रावण के सिर और भुजाएं कटकर आकाश में छायी हैं-
जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं।
एक-एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं।
जानु कोपि दिनकर कर निकर जहं तहं बिधुंतुद पोहहीं।
जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार।
सेवत विषय बिवर्ध जिमि नित नित नूतन मार।
प्रभु श्रीराम ने रावण के सिर और भुजाएं कई बार काट दीं तो मानो अनेक राहु और केतु खून बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड़ रहे हैं श्री रघुबीर जी के प्रचण्ड बाणों से वे सिर और धड़ पृथ्वी पर गिर नहीं पाते। एक-एक वाण से समूह के समूह सिर छिदे हुए आकाश में उड़ रहे हैं। वे इस तरह शोभा पा रहे हैं मानों सूर्य की किरणें क्रोध करके जहां-तहां राहुओं को अपने में गूंथ रही हैं। जैसे-जैसे प्रभु श्रीराम रावण के सिरों को काटते हैं, वैसे ही वैसे अपार होते हैं। जैसे विषय-वासना में उलझे लोगांे में भोग करने की इच्छा बढ़ती है।
दसमुख देखि सिरन्ह के बाढ़ी, बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी।
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी,
धायउ दसहु सरासर तानी।
समर भूमि दसकंधर कोप्यो, बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो।
दंड एक रथ देखि न परेऊ, जनु निहार महुं दिनकर दुरेऊ।
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा, तब प्रभु कोपि कारमुख लीन्हा।
सर निवारि रिपु के सिर काटे, ते दिसि विदिसि गगन महि पाटे।
काटे सिर नभ मारग धावहिं, जय जय धुनि करि भय उपजावहिं।
कहं लछिमन सुग्रीव कपीसा, कहं रघुवीर कोसलाधीसा।
कहं रामु कहि सिर निकर
धाए देखि मर्कट भजि चले।
संघानि धनु रघुवंसमनि हंसि सरन्हि सिर बंेधे भले।
सिर मालिका कर कालिका गहि वृन्द वृंदन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सर मज्जनु मनहुं संग्राम बट पूजन चलीं।
सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध करता हुआ वह महान अभिमानी, मूर्ख गरजा और दसों धनुष तान कर दौड़ा। रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथ जी का रथ ढक दिया। एक घड़ी तक रथ दिखाई ही नहीं पड़ा। मानों घने कुहरे में सूर्य छिप गया हो। यह देखकर देवताओं में हाहाकार मच गया। तब प्रभु ने कोप करके धनुष उठाया और शत्रु के वाणों को हटाकर उन्होंने शत्रु के सिर काट डाले। इन कटे सिरों से दिशा-विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया। काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौड़ते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न कर रहे हैं। लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहां हैं, कोसलपति रघुवीर कहां हैं? इस प्रकार की आवाज कर रहे हैं।
इस प्रकार राम कहां हैं? यह कहकर रावण के सिरों के समूह जब दौड़े तो उन्हें देखकर वानर भाग चले, तब
धनुष चढ़ाकर रघुकुल मणि श्रीराम जी ने वाणों से उन सिरों को भलीभांति छेद डाला। हाथों में बहुत से मुंडों की मालाएं लेकर बहुत सी कालिकाएं (देवी दुर्गा का एक रूप कालिका है) झुंड की झुंड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं मानो संग्राम रूपी वट वृक्ष की पूजा करने जा रही हों।
पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छांड़ी सक्ति प्रचण्ड।
चली विभीषन सन्मुख मनहुं काल कर दण्ड।
आवत देखि सक्ति अति घोरा, प्रनतारित भंजन पन मोरा।
तुरत विभीषन पाछे मेला, सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला।
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई, प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई।
देखि विभीषन प्रभु श्रम पायो, गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो।
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे, तैं सुरनर मुनि नाग बिरुद्धे।
सादर सिव कहुं सीस चढ़ाए, एक एक के कोटिन्ह पाए।
तेहि कारन खल अब लगि बाच्यो, अब तव कालु सींस पर नाच्यो।
राम विमुख सठ चहत सम्पदा, अस कहि हनेसि माझ उर गदा।
उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि परयो।
दस बदन सोनित स्रवत पुनि संभारि धायो रिस भरयो।
द्वौ भिरे अतिबल मल्ल जुद्ध विरुद्ध एक एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित विभीषनु धालि नहिं ताकहुं गनै।
प्रभु श्रीराम ने जब रावण के सिर पुनः काट दिये और नए सिर आ गये तो उसने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह शक्ति विभीषण के सामने ऐसे चली जैसे यमराज का दण्ड आ रहा हो। प्रभु श्रीराम ने अत्यंत भयानक शक्ति को आते देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुखों को नाश करने का है, इसलिए श्रीराम जी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने आकर वह शक्ति स्वयं सह ली। शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूच्र्छा आ गयी। प्रभु ने तो यह लीला की पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को शारीरिक कष्ट हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े। विभीषण ने कहा अरे अभागे, नीच, मूर्ख तू श्रीराम के विमुख होकर सुख चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचो बीच गदा मारी। बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से खून बहने लगा। वह अपने को संभालकर क्रोध से भरा
हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान
योद्धा भिड़ गये और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। श्री रघुवीर जी के बल से गर्वित विभीषण रावण जैसे दिग विजयी
योद्धा को पासंग के बराबर भी नहीं समझते। -क्रमशः (हिफी)