
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
इस प्रकार महा अभिमानी रावण का वध हो गया। श्रीराम के वाणों ने रावण के सिर और भुजाएं मंदोदरी के पास पहुंचा दिये थे। पति के सिर देखते ही मंदोदरी मूचर््िछत हो जाती है। होश में आने पर विलाप करने लगती है। रावण के बल-पौरुष का बखान करते हुए कहती है कि प्रभु श्रीराम से शत्रुता करके ही तुम्हारी यह गति हुई है। मंदोदरी कहती है कि काल के वश में होने के कारण ही तुम्हारा शरीर पाप की गठरी था, फिर भी श्रीराम ने तुमको अपना धाम दिया है, ऐसे रघुनाथ जी के समान कृपा करने वाला कोई दूसरा नहीं है। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम रावण का
वध करने के बाद रणभूमि में खड़े हैं-
कृपा दृष्टि करि वृष्टि प्रभु अभय किए सुर वृन्द।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद।
पति सिर देखत मंदोदरी, मुरुछित विकल धरनि खसि परी।
जुवति वृंद रोवत उठ धाईं, तेहिं उठाई रावन पहिं आईं।
पति गति देखि ते करहिं पुकारा, छूटे कच नहिं वपुष संभारा।
उर ताड़ना करहिं विधि नाना, रोवत करहिं प्रताप बखाना।
तव बल नाथ डोल नित धरनी, तेजहीन पावक ससि तरनी।
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा, सो तनु भूमि परेउ भरि छारा।
बरुन कुबेर सुरेस समीरा, रन सन्मुख धरि काहुं न धीरा।
भुजबल जितेहु काल जम साईं, आजु परेहु अनाथ की नाईं।
जगत विदित तुम्हारि प्रभुताई, सुत परिजनबल बरनि न जाई।
राम विमुख अस हाल तुम्हारा, रहा न कोउ कुल रोव निहारा।
तव बस विधि प्रपंच सब नाथा, सभय दिसिप नित नावहिं माथां
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं, रामविमुख यह अनुचित नाहीं।
काल बिवस पति कहा न माना, अग जगनाथु मनुज करि जाना।
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं।
आजन्म ते परद्रोहरत पापौधमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं।
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपा सिंधु नहिं आन।
जोगि वृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान।
प्रभु श्रीराम ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुख
धाम मुकुन्द की जय हो-ऐसा पुकारने लगे। उधर, लंका में पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल होकर मूच्र्छित हो गयी। वह धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियां रोती हुई उठ दौड़ीं और मंदोदरी को उठाकर रावण के पास ले आयीं। पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकार कर रोने लगीं। उनके बाल खुल गये और देह को संभाल नहीं पा रही हैं। वे अनेक प्रकार के छाती पीटती हैं और रोते हुए रावण के प्रताप का बखान कर रही हैं। वे कहती हैं हे नाथ तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा कांपती रहती थी। अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेज हीन थे। शेषनाग जी और कच्छप भी जिसका भार नहीं सहन कर पाते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है। वरुण, कुबेर, इन्द्र और वायु- इनमें से किसी ने भी तुम्हारे सामने रण में धैर्य नहीं धारण किया। हे स्वामी तुमने अपने भुजवल से काल और यमराज को भी जीत लिया था, वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो। तुम्हारी प्रभुता जगत भर में प्रसिद्ध थी। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का वर्णन ही नहीं हो सकता था। श्रीराम चन्द्र जी से विमुख होने से ही तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई है कि आज तुम्हारे कुल (वंश) में कोई रोने वाला भी नहीं बचा है। हे नाथ विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे लेकिन हाय? अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है। मंदोदरी कहती है कि हे पति काल (मृत्यु) के पूर्ण वश में होने से तुमने किसी का कहना नहीं माना और चराचर के नाथ (परमात्मा) को तुमने मनुष्य समझ लिया। वह कहती है कि दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्नि स्वरूप साक्षात श्री हरि को तुमने मनुष्य कैसे जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं उन करुणामय भगवान को हे प्रियतम तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूह में डूब रहा है। इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्रीराम जी ने तुमको अपना धाम दिया उनको मैं प्रणाम करती हूं। मंदोदरी कहती है कि हे नाथ श्री रघुनाथ जी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है जिन भगवान ने तुमको वह गति दी जो योगी समाज को भी दुर्लभ है।
मंदोदरी वचन सुनि काना, सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना।
अज महेस नारद सनकादी, जे मुनिवर परमारथ वादी।
भरि लोचन रघुबरहिं निहारी, प्रेम मगन सब भए सुखारी।
रुदन करत देखीं सब नारी, भयउ विभीषन मन दुख भारी।
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा, तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा।
लछिमन तेहि बहु विधि समुझायो, बहुरि विभीषन प्रभु पहिं आयो।
कृपा दृष्टि प्रभु ताहि बिलोका, करहु क्रिया परिहरि सब सोका।
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी, विधिवत देसकाल जियं जानी।
मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि।
भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मनमाहि।
मंदोदरी के बचन कानों से सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी परमार्थ वादी अर्थात परमात्मा के तत्व को जानने वाले और कहने वाले श्रेष्ठ मुनि श्री रघुनाथ जी को नेत्र भरकर निहारने लगे। वे सभी प्रेम में मग्न होकर सुखी हुए। अपने परिवार की सभी स्त्रियों को रोता देखकर विभीषण के मन में भी बहुत दुख हुआ और वे उनके पास गये। उन्होंने भाई की दशा देखकर दुख किया तब प्रभु श्रीराम ने छोटे भाई (लक्ष्मण) को आज्ञा दी कि जाकर विभीषण को धैर्य वंधाओ। लक्ष्मण जी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए। प्रभु ने उनको कृपा पूर्ण दृष्टि से देखा और कहा कि सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषण जी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की। मंदोदरी आदि सब स्त्रियां रावण को तिलांजलि देकर मन में रघुनाथ जी के गुण समूहों का वर्णन करते हुए महल में वापस चली गयीं।
आइ विभीषन पुनि सिर नायो, कृपा सिंधु तब अनुज बुलायो।
सब मिलि जाहु विभीषन साथा, सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा।
पिता बचन मैं नगर न आवउं, आपु सरिस कपि अनुज पठावउं।
रावण की अंतिम क्रिया करके विभीषन पुनः प्रभु श्रीराम के पास आए तब कृपा के समुद्र श्रीराम जी ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को बुलाया। श्री रघुनाथ जी ने कहा कि तुम वानर राज सुग्रीव, अंगद, नल-नील, जाम्बवान और
हनुमान सब नीति निपुण लोग मिलकर विभीषन के साथ जाओ और उन्हें लंका का राजा बनाओ, अर्थात राजतिलक करो। पिता जी के बचनों के कारण मैं नगर में नहीं जाऊंगा पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेज रहा हूूं। -क्रमशः (हिफी)