
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम ने देवताओं का पूरा कार्य सिद्ध कर दिया। रावण के अत्याचार से उन्हें मुक्ति दे दी तब सभी देवता, जो सदैव के स्वार्थी हैं लेकिन बातें इस तरह करते हैं जैसे बहुत परमार्थी हों, आतें हैं और प्रभु की वंदना करते हैं। देवगण कह रहे हैं कि हे प्रभु देवों पर जब-जब संकट आया तब-तब आपने उनकी रक्षा की है। देवता अपने स्वार्थ को भी नहीं छिपा पाते और कहते हैं कि हम देवगण श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े हैं लेकिन रावण जैसे अधम को आपने परम पद दे दिया। इस प्रकार कई तरह से देवता प्रार्थना करके अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाते हैं, तब ब्रह्मा जी विनय करते हैं। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम इन्द्र के सारथी मातलि को रथ वापस ले जाने को कहते हैं-
तब रघुपति अनुसासन पाई, मातलि चलेउ चरन सिरुनाई।
आए देव सदा स्वारथी, बचन कहहिं जनु परमारथी।
दीनबंधु दयाल रघुराया, देव कीन्हि देवन्ह पर दाया।
विस्व द्रोहरत यह खल कामी, निज अध गयउ कुमारग गामी।
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी, सदा एक रस सहज उदासी।
अकल अगुन अज अनध अनामय, अजित अमोध शक्ति करुनामय।
मीन कमठ सूकर नरहरी, बामन परसुराम बपु धरी।
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो, नाना तनु धरि तुम्हइ नसायो।
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही, काम लोभ मद रत अतिकोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा, यह हमरे मन बिसमय आवा।
हम देवता परम अधिकारी, स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।
भव प्रवाहं संतत हम परे, अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे।
करि विनती सुर सिद्ध सब रहे जहं तहं कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि विधि अस्तुति करत बहोरि।
श्री रघुनाथ जी की आज्ञा पाकर इन्द्र का सारथी मातलि, चरणों में सिर नवाकर और रथ को लेकर चला गया। इसके बाद सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे बचन कह रहे हैं मानो दूसरों का वे बड़ा कल्याण करते हैं। देवगण कहते हैं कि हे दीनबंधु, हे दयालु रघुराज। हे परम देव, आपने देवताओं पर बड़ी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलने वाला रावण अपने ही पापों से नष्ट हो गया। आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एक रस, स्वभाव से शत्रु-मित्र में भेद न करने वाले, अखंड, निर्गुण, अजन्मा, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोध, शक्ति और दयामय हैं। आपने ही मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किये। हे नाथ जब-जब देवताओं ने दुख पाया, तब-तब अनेक शरीर धारण करके आपने ही उनका दुख नाश किया। यह दुष्ट, मलिन हृदय, देवताओं का सदैव शत्रु रहा, काम, क्रोध और मद में डूबा हुआ तथा अत्यंत क्रोधी था। ऐसे
अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पाया, इस बात से हमारे मन में आश्चर्य हुआ। हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थ में डूबकर आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भव सागर के प्रवाह अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े हैं। अब हे प्रभो हम आपकी शरण में आ गये हैं हमारी रक्षा कीजिए। इस प्रकार देवता और सिद्ध सभी विनती करके जहां के तहां हाथ जोड़े खड़े रहे, तब अत्यंत प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्मा जी स्तुति करने लगे-
जय राम सदा सुखधाम हरे, रघुनायक सायक चाप धरे।
भव बारन दारन सिंह प्रभो, गुन सागर नागर नाथ विभो।
तन काम अनेक अनूप छबी, गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी।
जसु पावन रावन नागमहा, खगनाथ जथा करि कोप गहा।
जन रंजन भंजन सोक भयं, गत क्रोध सदा प्रभु बोध मयं।
अवतार उदार अपार गुनं, महि भार विभंजन ग्यान धनं।
अजव्यापकमेकमनादि सदा, करुनाकर राम नमामि मुदा।
रघुवंस विभूषन दूषन हा, कृत भूप विभीषन दीन रहा।
गुन ग्यान निधान अमान अजं, नित राम नमामि विभुं बिरजं।
भुज दण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं, खल वृन्द निकंद महा कुसलं।
बिनु कारन दीनदयाल हितं, छवि धाम नमामि रमा सहितं।
भव तारन कारन काज परं, मन संभव दारुन दोष हरं।
सर चाप मनोहर त्रोनधरं, जलजारुन लोचन भूपबरं।
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं, मद मार मुधा ममता समनं।
अनवद्य अखण्ड न गोचर गो, सब रूप सदा सब होइ न गो।
इति बेद वंदति न दंत कथा, रवि आतप भिन्नम भिन्न जथां
ब्रह्मा जी कहते हैं कि हे नित्य सुख धाम और दुखों को हरने वाले हरि, हे धनुष वाण धारण किये हुए रघुनाथ जी आपकी जय हो। हे प्रभो, आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ, हे सर्व व्यापक आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं। आपके शरीर की अनेक कामदेवों के समान लेकिन अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावण रूपी महा सर्प को गरुण की तरह क्रोध करके पकड़ लिया। हे प्रभो आप सेवकों को आनंद देने वाले, शोक और भय का नाश करने वाले, सदा क्रोध रहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणों वाला, पृथ्वी का भार उतारने वाला और ज्ञान का समूह है लेकिन अवतार लेने पर भी आप नित्य अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वैत) और अनादि है। हे करुणा की खान श्रीराम जी मैं आपको बड़े ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूं। हे रघुकुल के आभूषण, हे दूषण राक्षस को मारने वाले तथा समस्त दोषों को हरने वाले। विभीषण तो अत्यंत दीन था उसे भी आपने लंका का राजा बना दिया। हे गुण और ज्ञान के भंडार हे मान-अपमान से मुक्त, हे अजन्मा, व्यापक और माया के विकारों से रहित श्रीराम मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूं। आपके भुजदण्डों का प्रताप और बल प्रचंड है। दुष्ट समूह का नाश करने में आप परम निपुण हैं। हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम मैं जानकी जी सहित आपको नमस्कार करता हूं। आप भव सागर से तारने वाले हैं। कारण रूपी प्रकृति और कार्य रूप जगत-दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन दोषों को हरने वाले हैं। आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस को धारण करने वाले हैं। लाल कमल के समान रक्त वर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मंदिर, सुंदर, श्री (लक्ष्मी जी) के पति तथा मद (अहंकार) काम और झूठी ममता का नाश करने वाले हैं। आप अनिन्द्य अर्थात दोषरहित हैं, अखंड हैं, इन्द्रियांे के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी
हुए ही नहीं अर्थात सभी कुछ आपकी लीला के तहत हुआ-ऐसा वेद कहते हैं। यह कोई दंतकथा अर्थात कोरी कल्पना नहीं जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग है और अलग-अलग नहीं भी हैं वैसे ही आप भी संसार से भिन्न और अभिन्न दोनों प्रकार से हैं। -क्रमशः (हिफी)