
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
ब्रह्मा जी प्रभु श्रीराम की स्तुति करते हैं। इसी समय वहां दशरथ जी भी पधारते हैं। लोग कहेंगे कि दशरथ जी की तो मृत्यु हो गयी थी वे कैसे आए। इसका समाधान भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया है। वह कहते हैं कि सगुण उपासक मोक्ष नहीं चाहते क्योंकि मोक्ष के बाद पुनः शरीर नहीं मिलता और अपने ईष्ट की उपासना के लिए शरीर धारण करना जरूरी होता है। महाराज दशरथ ने भी मोक्ष नहीं लिया, उन्होंने भेद भक्ति में अपना मन लगाया था। प्रभु श्रीराम ने यही बात जटायु से भी कही थी कि सीता हरण की बात मेरे पिता महाराज दशरथ को न बताना-
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ।
इसीलिए रावण का वध होने के बाद दशरथ जी को यह बात पता चली थी। दशरथ जी बहुत प्रसन्न होते हैं। इसके बाद देवराज इन्द्र प्रभु श्रीराम की वंदना करते हैं। अभी तो ब्रह्मा जी ही स्तुति कर रहे हैं-
कृतकृत्य विभो सब वानर ए, निरखंति तवानन सादर ए।
धिग जीवन देव सरीर हरे, तव भक्ति बिना भव भूलि परे।
अब दीन दयाल दया करिऐ, मति मोरि विभेदकरी हरिऐ।
जेहिते विपरीत क्रिया करिऐ, दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।
खल खंडन मंडन रम्य छमा, पद पंकज सेबित संभु उमा।
नृप नायक दे वरदानमिदं, चरनांबुज प्रेमु सदा सुभदं।
विनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभा सिंधु विलोकत लोचन नहीं अघात।
ब्रह्मा जी स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे व्यापक प्रभो, ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं जो आदरपूर्वक आपका मुख देख रहे हैं और हरे, हमारे अमर जीवन और देव शरीर को धिक्कार है जो हम आपकी भक्ति से रहित सांसारिक विषयों में भूले पड़े हैं। हे दीन दयालु अब दया करिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करने वाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूं और जो दुख है उसे सुख मानकर विचरता हूं। आप दुष्टों का खंडन करने वाले और पृथ्वी का रमणीय आभूषण हैं। आपके चरण कमल श्री शिव और पार्वती द्वारा सेवित है। हे राजाओं के महाराज, मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में सदा मेरा कल्याण दायक अर्थात अनन्य प्रेम हो।
इस प्रकार ब्रह्मा जी ने अत्यंत प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र श्रीरामचन्द्र जी के दर्शन करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं हो रहे हैं।
तेहि अवसर दसरथ तहं आए, तनय बिलोकि नयन जल छाए।
अनुज सहित प्रभु वंदन कीन्हा, आसिरवाद पिता तब दीन्हा।
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ, जीत्यों अजय निसाचर राऊ।
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी, नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना, चितइ पितहिं दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो, दसरथ भेद भगति मन लायो।
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं, तिन्ह कहुुं राम भगति निज देहीं।
बार-बार करि प्रभुहि प्रनामा, दसरथ हरषि गए सुरधामा।
अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।
ब्रह्मा जी जब विनती कर चुके, तब दशरथ जी वहां आए। पुत्र अर्थात श्रीराम और लक्ष्मण को देखकर उनके नेत्रों में प्रेम के आंसू छा गये। छोटे भाई लक्ष्मण जी समेत प्रभु ने उनकी वंदना की और पिता (दशरथ) ने उनको आशीर्वाद दिया। श्रीराम जी ने कहा हे तात, यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है जो मैंने अजेय राक्षस राज को जीत लिया। पुत्र के बचन सुनकर राजा दशरथ की प्रीति अत्यंत बढ़ गयी। नेत्रों में जल छा गया और रोमांचित हो गये। श्रीराम जी ने पहले के अर्थात राजा दशरथ के जीवित काल के प्रेम को विचार कर पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप का दृढ़ ज्ञान करा दिया। शंकर जी कहते हैं कि हे उमा, दशरथ जी ने भेद भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होंने कैवल्य मोक्ष नहीं पाया। उन्होंने कहा माया रहित सच्चिदानंद मय स्वरूप, दिव्य गुण युक्त सगुण स्वरूप की उपासना करने वाले भक्त इस प्रकार का मोक्ष लेते भी नहीं हैं उन्हें श्रीराम जी अपनी भक्ति देते हैं। प्रभु को बार-बार प्रणाम करके दशरथ जी हर्षित होकर देवलोक को चले गये।
छोटे भाई लक्ष्मण जी और जानकी जी समेत प्रभु कोशलाधीश की शोभा देखकर देवराज इन्द्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे-
जय राम सोभा धाम, दायक प्रनत विश्राम।
धृत त्रोन बर सर चाप, भुजदण्ड प्रबल प्रताप।
जय दूषनारि खरारि, मर्दन निसाचर धारि।
यह दुष्ट मारेउ नाथ, भए देव सकल सनाथ।
जय हरन धरनी भार, महिमा उदार अपार।
जय रावनारि कृपाल, किए जातुधान बिहाल।
लंकेस अतिबल गर्व, किए बस्य सुर गंधर्व।
मुनि सिद्ध नर खग नाग, हठि पंथ सबके लाग।
परद्रोह रत अति दुष्ट, पायो सो फलु पापिष्ट।
अब सुनहु दीनदयाल, राजीव नयन बिसाल।
मोहि रहा अति अभिमान, नहिं कोउ मोहि समान।
अब देखि प्रभु पद कंज, गत मान प्रद दुख पुंज।
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव, अव्यक्त जेहि श्रुति गाव।
मोहि भाव कोसल भूप, श्रीराम सगुन स्वरूप।
वैदेहि अनुज समेत, मम हृदय करहु निकेत।
मोहि जानिए निज दास, दे भक्ति रमा निवास।
इन्द्र जी स्तुति करते हुए कहते हैं शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले श्रेष्ठ तरकस, धनुष-वाण धारण किए हुए प्रबल प्रतापी भुजदण्डों वाले श्रीराम जी की जय हो। हे खर और दूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना का मर्दन करने वाले, आपकी जय हो। हे नाथ आपने इस दुष्ट (रावण) को मारा, जिससे सब देवता सनाथ अर्थात सुरक्षित हो गये हैं। हे भूमि का भार हरने वाले, हे अपार श्रेष्ठ महिमा वाले आपकी जय हो। हे रावण के शत्रु हे कृपालु आपकी जय हो, आपने राक्षस (रावण) को बेहाल अर्थात तहस-नहस कर दिया। लंकापति रावण को अपने बल का बहुत घमंड था। उसने देवता और गंधर्व सभी को अपने वश में कर लिया था। वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभी के हाथ धोकर पीछे पड़ गया था। वह दूसरों से द्रोह करने में तत्पर था और अत्यंत दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनों पर दया करने वाले, हे कमल के समान विशाल नेत्रों वाले सुनिए। मुझे अत्यंत अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है लेकिन अब प्रभु के चरण कमलों के दर्शन करके दुख समूह को देने वाला मेरा वह अभिमान नष्ट हो गया है। कोई उन निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद निराकार (अव्यक्त) कहते हैं लेकिन हे राम जी मुझे तो आपका यह सगुण कोशल राज स्वरूप ही प्रिय है। श्री जानकी जी और छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमा निवास, मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए। -क्रमशः (हिफी)