
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम की सभी देवगण स्तुति कर चुके हैं। सबसे अंत में शंकर जी विनती करते हैं। उनके जाने के बाद विभीषण जी आते हैं और कहते हैं कि हे प्रभु आपने रावण का संहार कर मुझे लंका का राजा बना दिया है लेकिन ये सब सम्पदा आपकी ही है। समर में आप थक गये हैं, इसलिए मेरे घर को पवित्र करिए और कुछ दिन आराम कीजिए। प्रभु श्रीराम ने कहा ‘तुम ठीक कह रहे हो लेकिन भाई भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल युग के समान बीत रहा है। चैदह वर्ष की अवधि बीतने के बाद यदि मैं पहुंचूंगा तो मेरा भाई भरत जीवित नहीं मिलेगा, इसलिए मुझे अयोध्या पहुंचाने का इंतजाम करो। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो शिवजी विनय करने के बाद अनुरोध कर रहे हैं-
नाथ जबहि कोसलपुरी होइहि तिलक तुम्हार।
कृपा सिंधु मैं आउब देखन चरित उदार।
करि बिनती जब संभु सिधाए, तब प्रभु निकट विभीषन आए।
नाइ चरन सिरु कह मृदुबानी, विनय सुनहु प्रभु सारंग पानी।
सकुल सदल प्रभु रावन मार्यो, पावन जस त्रिभुवन विस्तार्यो।
दीन मलीन हीन मति जाती, मो पर कृपा कीन्हि बहु भांती।
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे, मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे।
देखि कोस मंदिर संपदा, देहु कृपाल कपिन्ह कहुं मुदा।
सब विधि नाथ मोहि अपनाइअ, पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ।
सुनत बचन मृदु दीन दयाला, सजल भए द्वौ नयन विसाला।
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात।
तापस वेष गात कृत जपत निरंतर मोहि।
देखौं बेगि सो जतन करु सखा निहोरउँ तोहि।
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर।
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मनमाहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहां संत सब जाहि।
भगवान शंकर कहते हैं कि हे नाथ, जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपा सागर, आपकी उदारलीला देखने आऊँगा।
शंकर भगवान जब विनती करके चले गये, तब विभीषण जी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले- हे शारंग धनुष को धारण करने वाले प्रभो, मेरी बिनती सुनिए- आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर कृपा की अब हे प्रभु, इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहां चलकर स्नान कीजिए जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु, खजाना, महल और संपत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए। हे नाथ, मुझे सब प्रकार से अपना बना लीजिए और फिर हे प्रभो, मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए।
विभीषण जी के कोमल बचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में प्रेम के अश्रु भर आए। श्रीराम ने कहा कि हे भाई (विभीषण), सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह बात सच है, लेकिन भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प (युग) के समान बीत रहा है। तपस्वी के वेश में, शरीर से दुर्बल हो चुके भरत जी निरंतर मेरा नाम जप रहे हैं। हे सखा, वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी से जल्दी उन्हें देख सकूं, मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूं, यदि वनवास की अवधि बीत जाने पर जाता हूं तो भाई को जीवित नहीं पाऊँगा। छोटे भाई भरत की प्रीति का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। श्रीराम जी ने कहा कि हे विभीषण तुम कल्प भर राज्य करना, मन में मेरा निरंतर स्मरण करते रहना फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहां सब संत जाते हैं।
सुनत विभीषन बचन राम के, हरषि गहे पद कृपा धाम के।
बानर भालु सकल हरषाने, गहि प्रभु पद गुन विमल बखाने।
बहुरि विभीषन भवन सिधायो, मनि गन बसन विमान भरायो।
लै पुष्पक प्रभु आगे राखा, हँसि करि कृपा सिंधु तब भाषा।
चढ़ि बिमान सुनु सखा विभीषन, गगन जाइ बरषहु पट भूषन।
नभ पर जाइ विभीषन तबहीं, बरषि दिए मनि अंबर सबही।
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं, मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।
हँसे रामु श्री अनुज समेता, परम कौतुकी कृपा निकेता।
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपा सिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक विनोद।
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम।
श्री रामचन्द्र जी के बचन सुनते ही विभीषण जी ने हर्षित होकर कृपा के धाम श्री रघुबीर के चरण पकड़ लिये। सभी वानर-भालू हर्षित हो गये और प्रभु के चरण पकड़कर उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे, फिर विभीषण जी महल को गये और उन्होंने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों से बिमान को भर लिया। उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने किया। कृपा सागर श्रीराम ने हंसकर कहा, हे सखा विभीषण सुनो, विमान पर चढ़कर आकाश में जाओ और वस्त्रों व गहनों को ऊपर से गिरा दो। यह आज्ञा सुनकर विभीषण ने आकाश में जाकर मणियों और वस्त्रों को बारिश की तरह गिरा दिया। जमीन पर गिरते ही जिनके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुंह में लेकर, वानर उन्हें खाने की चीज न समझ उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम श्रीराम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी हँसने लगे।
भगवान शंकर पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं जिन प्रभु को मुनिगण ध्यान लगाकर भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र श्रीराम जी वानरों के साथ अनेक प्रकार के विनोद कर रहे हैं। हे उमा, अनेक प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचन्द्र जी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं।
भालु कपिन्ह पट-भूषन पाए, पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए।
नाना जिनस देखि सब कीसा, पुनि पुनि हँसत कोसलाधीशा।
वानर-भालुओं ने वस्त्र और आभूषण पाए तो उन्हें पहनकर श्रीराम जी के पास आए। अनेक जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति राम जी बार-बार हँस रहे हैं। -क्रमशः (हिफी)