
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम अयोध्या पहुंचते हैं तो सभी के आनंद का पारावार नहीं। श्रीराम का राज्याभिषेक होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने राम राज्य के लक्षण बताए। सुग्रीव आदि कुछ दिन रहकर अपने घर चले जाते हैं लेकिन हनुमान जी सुग्रीव से आज्ञा लेकर अयोध्या में ही रहते हैं। पार्वती जी ने शंकर जी से जितनी कथा सुनाने को कहा था वो पूरी हो चुकी तो पार्वती जी ने कहा कि श्रीराम की कथा सुनते मन ही नहीं भर रहा, तब शंकर जी ने कहा कि पार्वती तुम ठीक कह रही हो-रामचरित जे सुनत अघाहीं, रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं। सच में यह कथा ऐसी ही है। पार्वती जी ने कहा कि हे प्रभु आपने कहा था कि पक्षी राज गरुड़ ने काग भुशुण्डि से यह कथा सुनी थी। यह सुनकर आश्चर्य होता है कि कहां पक्षियों के राजा और कहां
अधम पक्षी कौआ? शंकर जी ने तब काग भुशुण्डि और गरुड़ के मिलने की कथा सुनाई। इसी में गरुड़ जी ने कई प्रश्न किये तो काग भुशुण्डि जी ने ग्यान और वैराग्य का विशद वर्णन किया। इस प्रकार उत्तराकाण्ड में जो ज्ञान छिपा है उससे राम राज्य स्थापित किया जा सकता है। अभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी प्रभु श्रीराम और भगवान शंकर की वंदना करते हैं।
केकीकंठाभनीलं सुरवरविलसद्वि प्रपादाव्जचिह्नं।
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपि निकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं।
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढ़रामम्।
कौसलेन्द्रपदकंजमंजुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकी कर सरोज लालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगिनौ।
अर्थात- मोर के कंठी की आभा के समान (हरिताभ) नील वर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगु जी) के चरण कमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बर धारी, कमल नेत्र सदा परम प्रसन्न, हाथों में वाण और धनुष धारण किये हुए वानर समूह के साथ भाई लक्ष्मण जी से सेवित स्तुति किये जाने योग्य, श्री जानकी जी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार श्रीरामचन्द्र जी को मैं निरंतर नमस्कार करता हूं। कोशलपुरी के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी के सुंदर और कोमल दोनों चरण कमल ब्रह्मा जी और शिवजी के द्वारा वंदित हैं, श्री जानकी जी के कर कमलों से दुलराए हुए है
और चिंतन करने वाले के मनरूपी भौंरे के नित्य संगी (साथी) हैं अर्थात चिंतन करने वालों का मन रूपी
भ्रमर सदैव उन चरण कमलों में बसा रहता है।
इसके पश्चात गोस्वामी तुलसीदास जी दीन-दुखियों पर हमेशा दया करने वाले भगवान शंकर की वंदना करते हैं-
कुन्दइंदुदरगौरसुन्दरम् अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीक कल कंजलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम।
अर्थात कुंद के फूल, चन्द्रमा और शंख के समान सुंदर गौरवर्ण, जगत जननी श्री पार्वती जी के पति, मन चाहा फल देने वाले, दीनों पर सदा दया करने वाले, सुंदर कमल के समान नेत्र वाले, कामदेव से छुड़ाने वाले अर्थात कल्याणकारी श्री शंकर जी को मैं नमस्कार करता हूं।
इस प्रकार प्रभु श्रीराम और शंकर जी की वंदना करने के बाद गोस्वामी तुलसीदास हम सभी को अयोध्या में ले जाते हैं जहां भरत जी श्रीराम के वनवास के एक-एक दिन कम होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं-
रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहं तहं सोचहिं नारि नर कृस तन राम वियोग।
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनावजनु नगररम्य चहुं फेर।
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद बस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुजजुत कहन चहत अब कोइ।
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन विचार।
श्रीराम जी के वनवास से लौटने का एक ही दिन बाकी रह गया है इसलिए नगर के लोग आतुर अर्थात अधीर हो रहे हैं। राम के वियोग में दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहां-तहां विचार कर रहे हैं कि क्या बात है रामजी अब तक क्यों नहीं आए। इतने में ही सब सुंदर शकुन होने लगे और सभी के मन प्रसन्न हो गये। नगर भी चारों ओर से रमणीक हो गया, मानो ये सबके सब चिह्न प्रभु के आगमन का संकेत दे रहे हों। राजमहल में कौशल्या आदि सभी माताओं के मन में ऐसा आनंद हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीता जी और लक्ष्मण समेत प्रभु श्रीराम आ गये। भरत जी की दाहिनी आंख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मन में अत्यंत हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे-
रहेउ एक दिन अवधि अधारा, समुझत मन दुख भयउ अपारा।
कारन कवन नाथ नहिं आयउ, जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।
अहह धन्य लछिमन बड़ भागी, राम पदार बिन्द अनुरागी।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा, ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी, नहिं निस्तार कलप सत कोरी।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ, दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।
मोरे जिय भरोस दृढ़ सोई, मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।
बीते अवधि रहहिं जौं प्राना, अधम कवन जग मोहि समाना।
राम बिरह सागर महं भरत मगन मन होत।
विप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत।
भरत जी सोच रहे हैं कि मेरे प्राणों का आधार श्रीराम जी के वनवास की अवधि का एक ही दिन शेष रह गया है। भरत जी के मन में अपार दुख हुआ। वे सोच रहे कि क्या कारण कि प्रभु श्रीराम अभी नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर कहीं मुझे भुला तो नहीं दिया। वे कहते हैं कि अहा लक्ष्मण बड़े धन्य और भाग्यशाली हैं जो श्रीराम चन्द्र जी के कमलरूपी चरणों के प्रेमी हैं। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल के रूप में पहचान लिया है इसी से नाथ (श्रीराम) ने मुझे साथ में नहीं लिया। वह कहते हैं कि बात भी ठीक है क्योंकि यदि प्रभु श्रीराम मेरी करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़ वर्षों तक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता लेकिन मेरे लिए आशा इतनी ही है कि प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबंधु हैं और उनका स्वभाव अत्यंत कोमल है। इसीलिए मेरे हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि श्रीराम जी अवश्य मिलंेगे। इसका कारण यह भी है कि शकुन बहुत अच्छे हो रहे हैं। श्रीराम के वनवास की अवधि बीत जाने के बाद भी यदि मेरे प्राण रह गये तो संसार में मेरे समान नीच कौन होगा? इस तरह श्रीराम के बिरह सागर में भरत जी का मन डूब रहा था,
उसी समय पवनपुत्र हनुमान जी ब्राह्मण का रूप धारण कर इस प्रकार आ गये जैसे डूबते हुए व्यक्ति को बचाने के लिए अचानक नाव आ गयी हो। -क्रमशः (हिफी)