
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
चित्रकूट क्षेत्र में आज भी भरत कूप के नाम से एक तीर्थ मौजूद है। इस तीर्थ की स्थापना का भी यह प्रसंग है। भरत जी प्रभु श्रीराम की बातों से संतुष्ट हैं और चैदह वर्ष तक अयोध्या का राज करने को भी तैयार हो जाते हैं। इसके बाद वह कहते हैं कि गुरू की आज्ञा से सभी तीर्थों का जल लेकर आया हूं, उसे कहां पर रखूं तब श्रीराम उन्हें अत्रि ऋषि से इस मामले में आदेश लेने की बात कहते हैं और अत्रि मुनि के निर्देश पर एक कुएं में वह जल भर दिया जाता है। अत्रि जी ने कहा कि अब यह कुआं (कूप) भरत के नाम पर तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाएगा।
अभी तो भरत जी चित्रकूट के मनोहर वन को देखने की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं-
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं, सभयं सकोच जात कहि नाहीं।
कहहु तात प्रभु आयसु पाई, बोले बानि सनेह सुहाई।
चित्रकूट सुचि थल तीरथ वन, खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन।
प्रभु पद अंकित अवनि विसेषी, आयसु होइ त आवौं देखी।
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू, तात विगत भय कानन चरहू।
मुनि प्रसाद बनु मंगलदाता, पावन परम सुहावन भ्राता।
रिषि नायकु जहं आयसु देहीं, राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं।
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा, मुनि पद कमल मुदित सिरू नावा।
भरत राम संबादु सुनि, सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरू फूल।
भरत जी प्रभु श्रीराम से कह रहे हैं कि एक और बड़ा मनोरथ है जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। श्रीराम ने कहा हे भाई अपनी बात कहो। तब प्रभु की आज्ञा पाकर भरत जी स्नेहपूर्ण सुंदर वाणी बोले-उन्होंने कहा कि यदि आपकी आज्ञा हो तो चित्रकूट के पवित्र स्थान, तीर्थ वन, पक्षी-पशु, तालाब, नदी, झरने और पर्वतों के समूह तथा विशेषकर प्रभु आपके चरण चिन्हों से अंकित भूमि को देख आऊं। श्री रघुनाथ जी बोले अवश्य ही अत्रि ऋषि की आज्ञा को सिर पर धारण करके अर्थात वे जो कहें वैसा ही करो और निर्भय होकर वन में विचरण करो। हे भाई, अत्रि मुनि के प्रसाद से वन मंगलदायक, परम पवित्र और अत्यंत सुंदर है और ऋषियों के प्रमुख अत्रि जी जहां आज्ञा दें वही तीर्थों से लाया गया जल स्थापित कर देना। प्रभु के बचन सुनकर भरत जी ने सुख पाया और आनंदित होकर मुनि अत्रि जी के चरण कमलों में सिर नवाया। उस समय समस्त मंगलों को पैदा करने वाला मूल भरत जी और श्रीरामचन्द्र जी का संवाद सुनकर स्वार्थी देवता रघुकुल की सराहना करके कल्पवृक्ष के फूल बरसाने लगे।
धन्य भरत जय राम गोसाई, कहत देव हरषत बरि आई।
मुनि मिथिलेस सभां सब काहू, भरत बचन सुनि भयउ उछाहू।
भरत रामगुन ग्राम सनेहू, पुलकि प्रसंसत राउ विदेहू।
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन, नेमु पेमु अति पावन पावन।
मति अनुसार सराहन लागे, सचिव सभासद सब अनुरागे।
सुनि सुनि राम भरत संबादू, दुहु समाज हियं हरषु विषादू।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी, कहि गुन राम प्रबोधी रानी।
एक कहहिं रघुवीर बड़ाई, एक सराहत भरत भलाई।
अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरय तोय तहं पावन अमिअ अनूप।
देवता कह रहे हैं कि भरत जी धन्य हैं, स्वामी श्रीराम की जय हो। इतना कह कर वे अत्यंत हर्षित हो गये। भरत जी के बचन सुनकर मुनि वशिष्ठ जी मिथिलापति जनक जी और सभा में सभी को अत्यंत आनंद हुआ। भरत जी तथा श्रीराम के गुण समूहों की तथा प्रेम की विदेह राजा जनक जी प्रशंसा कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनों का सुंदर स्वभाव है। इनके नियम और प्रेम पवित्र को भी अत्यंत पवित्र करने वाला है। मंत्री और सभासद सभी प्रेम मुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सराहना करने लगे। श्रीरामचन्द्र जी और भरत जी का संवाद सुनकर दोनों समाजों के हृदय में हर्ष और विषाद दोनों हुए क्योंकि भरत जी के सेवा धर्म को देखकर खुशी हुई और श्रीराम-लक्ष्मण व सीता का वियोग रहेगा, यह देखकर विषाद हुआ। श्रीरामचन्द्र जी की माता कौशल्या जी ने दुःख और सुख को समान जानकर श्रीरामचन्द्र जी के गुण कहकर दूसरी रानियों को धैर्य बंधाया। वहां पर कोई श्रीराम के बड़प्पन की चर्चा कर रहे हैं तो कोई भरत जी के अच्छेपन की सराहना कर रहे। तभी महामुनि अत्रि ने भरत से कहा-इस पर्वत के समीप ही एक सुंदर कुआं है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत जैसे तीर्थ जल को उसी में स्थापित कर दीजिए।
-क्रमशः (हिफी)