अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता(322)

आधा कटकु कपिन्ह संघारा

 

श्रीराम की सेना और रावण की सेना में भीषण युद्ध हो रहा है। शाम होते ही हनुमान और अंगद लौट आए तो वानर सेना भी लौटने लगी लेकिन निशाचर तो रात में ही बलशाली होते हैं, उन्होंने वानर-भालुओं पर हमला कर दिया। निशाचरी माया कर दी। अंधेरा हो गया और पत्थर व रक्त की वारिश होने लगी तो प्रभु श्रीराम ने पावक बाण चलाकर निशाचरों की माया को नष्ट कर दिया। वानर-भालू बड़ी वीरता से फिर से लड़ने लगे। इस प्रकार राक्षसों की
आधी सेना का एक ही दिन में संहार कर दिया। रावण चिंतित है तब उसका पुत्र मेघनाद कहता है कि कल मेरा कौतुक देखना। मेघनाद भयानक युद्ध करता है। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो निशाचरों की माया से परेशान वानर-भालुओं को देखकर प्रभु श्रीराम अग्निवाण छोड़ने वाले हैं-
सकल मरमु रघुनायक जाना, लिए बोलि अंगद हनुमाना।
समाचार सब कहि समुझाए, सुनत कोपि कपि कुंजर धाए।
पुनि कृपाल हंसि चाप चढ़ावा, पावक सायक सपदि चलावा।
भयउ प्रकास कतहुं तम नाहीं, ग्यान उदय जिमि संसय जाहीं।
भालु बलीमुख पाइ प्रकासा,
धाए हरष विगत श्रम त्रासा।
हनूमान अंगद रन गाजे, हांक सुनत रजनीचर भाजे।
भागत भट पटकहिं धरि
धरनी, करहिं भालु कपि अद्भुत करनी।
गहि पद डारहिं सागर माहीं, मकर उरग झष धरि धरि खाहीं।
कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपुदल बल बिचलाइ।
राक्षस सेना ने जब निशाचरी माया कर घनघोर अंधेरा कर दिया और पत्थर, राख, खून की वारिश होने लगी तो श्री रघुनाथ जी यह रहस्य जान गये। उन्होंने अंगद और हनुमान जी को बुलाया और राक्षसी सेना की माया के बारे में समझाया। यह सुनते ही दोनों कपि श्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े। इसके बाद कृपालु श्रीराम जी ने हंसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अग्निवाण चला दिया, जिससे प्रकाश हो गया। कहीं भी अंधेरा नहीं रह गया जिस तरह ज्ञान के उदय होने पर सब प्रकार के संदेह दूर हो जाते हैं। उधर, बानर और भालू प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित होकर प्रसन्नता के साथ दौड़े। हनुमान और अंगद भी रणभूमि में गरज उठे। उनकी हांक (गर्जना) सुनकर राक्षस डर से भागने लगे। भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर पटक देते हैं और आश्चर्यजनक करनी करते हैं। राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं, जहां मगर, सांप और मछलियां उन्हें पकड़-पकड़ कर खा डालते हैं। इस प्रकार कुछ राक्षस मारे गये, कुुछ घायल हो गये और कुछ भागकर लंका के किले में पहुंच गये। अपने बल से शत्रु दल को विचलित करके रीछ और वानर वीर गरज रहे हैं।
निसा जानि कपि चारिउ अनी, आए जहां कोसला धनी।
रामकृपा करि चितवा सबहीं, भए विगत श्रम बानर तबहीं।
उहां दसानन सचिव हंकारे, सब सन कहेसि सुभट जे मारे।
आधा कटकु कपिन्ह संघारा, कहहु बेगि का करिअ विचारा।
माल्यवंत अति जरठ निसाचर, रावन मातु पिता मंत्री बर।
बोला बचन नीति अति पावन, सुनहु तात कछु मोर सिखावन।
जब ते तुम्ह सीता हरिआनी, असगुन होहिं न जाहिं बखानी।
बेद पुरान जासु जसु गायो, राम विमुख काहुं न सुख पायो।
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपा सिंधु भगवान।
काल रूप खल बन दहन गुनागार धन बोध।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन विरोध।
रात हुई देखकर वानरों की चारों सेना टुकड़ियां वहां आ गयीं जहां श्रीराम जी थे। प्रभु श्रीराम ने उन्हें ज्यों ही कृपा करके देखा उसी समय उन सभी वानरों की थकावट दूर हो गयी।
उधर, लंका में रावण ने अपने मंत्रियों को बुलाया और जो योद्धा मारे गये उनके बारे में बताया। रावण ने कहा कि वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया है अब शीघ्र बताओ कि क्या उपाय करना चाहिए? रावण की सभा में माल्यवंत नामक अत्यंत वूढ़ा राक्षस था। वह रावण की माता मंदोदरी का पिता अर्थात उसका नाना भी था और श्रेष्ठ मंत्री। वह अत्यंत पवित्र नीति के बचन बोला। उसने कहा हे तात (पुत्र) कुछ मेरी सीख भी सुन लो। उसने कहा जबसे तुम सीता का हरण करके लाए हो तभी से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि जो वर्णन नहीं किये जा सकते। माल्यवंत ने कहा कि वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है, उन श्रीराम से विमुख होकर किसी ने भी सुख नहीं पाया। भाई हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को और बलवान मधु-कैटभ को जिन्होंने मारा था, वे ही कृपा के समुद्र भगवान श्रीराम के रूप में अवतरित हुए हैं। वे काल के स्वरूप हैं, दुष्टों के समूह रूपी वन को भस्म करने वाली आग के समान है, गुणों के धाम और ज्ञान के बादल हैं। माल्यवंत ने कहा कि शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते है, उनसे आपकी दुश्मनी कैसी?
परिहरि बयरु देहु बैदेही, भजहु कृपानिधि परम सनेही।
ताके बचन बानसम लागे, करिआ मुह करि जाहि अभागे।
बूढ़ भएसि नत मरतेउं तोही, अब जनि नयन देखावसि मोही।
तेहि अपने मन अस अनुमाना, बध्यो चहत एहि कृपा
निधाना।
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा तब सकोप बोलेउ घननादा।
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा, करिहउं बहुत कहौं का थोरा।
सुनि सुत बचन भरोसा आवा, प्रीति समेत अंक बैठावा।
करत विचार भयउ भिनुसारा, लागे कपि पुनि चहूं दुआरा।
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ घेरा, नगर कोलाहल भयउ घनेरा।
विविधायुध धर निसिचर धाए, गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।
माल्यवंत रावण को समझाकर कह रहा है कि ऐसे श्रीराम से वैर छोड़कर उन्हें जानकी जी को दे दो और कृपा निधान परम स्नेही श्रीराम जी का भजन करो।
रावण को उसके बचन वाण के समान लगे और वह कहने लगा, अरे अभागे मुंह काला करके यहां से निकल जा। तू बूढ़ा हो गया है नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आंखों को अपना मुंह न दिखा। रावण के वचन सुनकर माल्यवान ने अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपा निधान श्रीराम अब मारना ही चाहते हैं। इसलिए वह रावण को दुर्वचन कहते हुए उठकर चला गया। तभी मेघनाद क्रोध पूर्वक बोला सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूंगा, थोड़ा क्या कहूं अर्थात अभी जो कहूंगा वह कम ही है। पुत्र के बचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठाया। इस प्रकार विचार करते सवेरा हो गया। वानर फिर चारों फाटकों पर युद्ध करने आ गये। उन्होंने क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया। नगर में बहुत शोर मच गया। यह देखकर राक्षस भी बहुत प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और वे किले के ऊपर से पहाड़ों के शिखर (पत्थर) फेंकने लगे। -क्रमशः (हिफी)

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