अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता(359) रामचन्द्र बैठहिं सिंघासन

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम ने अपने साथियों को सभी से मिलाया और उन्हें ठहरने के लिए अच्छी व्यवस्था भी कर दी। अयोध्या में सभी लोग खुश हैं तब गुरु वशिष्ठ ने सभी ब्राह्मणों और संभ्रांत जनों से विचार-विमर्श किया और कहा कि आज बहुत ही सुंदर (शुभ) घड़ी और योग भी अच्छा है तो श्रीरामचन्द्र जी को राजा बना दिया जाए। यह बात सुनकर सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए और श्रीराम के राजतिलक की तैयारियां होने लगीं। प्रभु श्रीराम ने भरत जी को अपने हाथ से स्नान कराया क्योंकि वे भी 14 वर्ष तक मुनि के वेश में रहे थे। इसके बाद प्रभु श्रीराम सीता जी के साथ राज सिंहासन पर विराजमान हुए। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो अयोध्या के लोग श्रीराम जी के वनवास से लौटने पर किस तरह खुश हैं, यह बताया जा रहा है-
नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति विरह दिनेस।
अस्त भए विगसत भईं निरखि राम राकेस।
होहिं सगुन सुभ विविध विधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।
प्रभु जानी कैकई लजानी, प्रथम तासु गृह गए भवानी।
ताहि प्रवोधि बहुत सुख दीन्हा, पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।
कृपा सिंधु जब मंदिर गए, पुर नर नारि सुखी सब भए।
गुर बसिष्ट द्विज लिए बोलाई, आजु सुघरी सुदिन समुदाई।
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन, रामचन्द्र बैठहिं सिंहासन।
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए, सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।
कहहिं बचन मृदु विप्र अनेका, जग अभिराम राम अभिषेका।
अब मुनिवर बिलंब नहिं कीजै, महाराज कहं तिलक करीजै।
श्रीराम जी को देखकर अयोध्या में किस तरह स्त्रियां खुश हैं, इसका वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि स्त्रियां कुमुदिनी के समान हैं और अयोध्या एक सरोवर है और श्री रघुनाथ जी का विरह सूर्य के समान था। सूर्य की तपन से वे मुरझा गयी थीं अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्रीराम जी रूपी पूर्ण चन्द्रमा को देखकर वे खिल उठीं। शिव जी पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि अयोध्या में बहुत प्रकार के शकुन हो रहे हैं। आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियांे को अपने दर्शन से कृतार्थ कर भगवान श्रीरामचन्द्र जी महल के अंदर गये। शंकर जी कहते हैं कि हे भवानी, श्रीराम जी को यह पता है कि कैकेयी माता अपने कृत्य पर बहुत ही शर्मिन्दा हो रही हैं इसलिए वे सबसे पहले अपनी माता के महल में न जाकर कैकेई माता के महल में जाते हैं। वहां उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। इसके बाद श्री हरि (श्रीराम) ने अपने महल को गमन किया। कृपा सिंधु श्रीराम जब अपने महल को गये तब नगर के स्त्री-पुरुष सभी सुखी हुए। उधर, गुरु वशिष्ठ ने ब्राह्मणों को बुलाया और
कहा कि आज शुभ घड़ी, सुंदर दिन आदि सभी शुभ योग हैं। आप
सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिए जिससे श्रीरामचन्द्र जी राज सिंहासन पर विराजमान हो सकें। वशिष्ठ
मुनि के सुहावने बचन सुनते ही सब ब्राह्मणों को बहुत अच्छे लगे। वे सब कोमल ब्राह्मण सम्मिलित रूप से
कहने लगे कि श्रीराम जी का राज्याभिषेक सम्पूर्ण जगत को आनंद देने वाला है। हे मुनि श्रेष्ठ अब विलम्ब न कीजिए और महाराज का तिलक शीघ्र कीजिए।
तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत संवारे जाइ।
जहं तहं धावन पठइ पुनि मंगल द्रव्य मंगाइ।
हरष समेत वसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।
अवधपुरी अति रुचिर बनाई, देवन्ह सुमन वृष्टि झरि लाई।
राम कहा सेवकन्ह बुलाई, प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।
सुनत वचन जहं तहं जन धाए, सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।
पुनि करुनानिधि भरतु हंकारे, निजकर राम जटा निरुआरे।
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई, भगत बछल कृपाल रघुराई।
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई, सेष कोटि सत सकहिं न गाई।
पुनि निज जटा राम बिवराए, गुर अनुसासन मांगि नहाए।
करि मज्जनु प्रभु भूषन साजे, अंग अनंग देखि सत लाजे।
सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दिव्य बसन बर भूषन अंग अंग सजे बनाइ।
विप्रजनों की सहमति पाकर वशिष्ठ मुनि ने तब सुमंत्र से कहा कि श्रीराम जी का राजतिलक होना है। यह सुनते ही सुमंत जी हर्षित होकर चल पड़े। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेक रथ, घोड़े और हाथी सजाए और जहां-तहां दूतों को भेजकर, मांगलिक वस्तुएं मंगाकर फिर हर्ष के साथ वशिष्ठ मुनि के चरणों में सिर झुकाकर कहा कि आपकी आज्ञा के अनुसार सब कार्य हो गया है। अवधपुरी को बहुत ही सुंदर ढंग से सजाया गया है। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी है। श्री रामचन्द्र जी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि पहले जाकर मेरे सखाओं को स्नान कराओ, फिर करुणानिधि श्रीरामजी ने भरत जी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथ से सुलझाया। इसके बाद भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथ जी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरत जी का भाग्य और प्रभु श्रीराम की कोमलता का वर्णन अरबों शेषनाग भी नहीं कर सकते। इसके बाद श्रीराम जी ने अपनी जटाएं खोलीं और गुरु वशिष्ठ की आज्ञा मांगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किये। उनके सुशोभित अंगों को देखकर
असंख्य कामदेव लजा गये। उधर, सासुओं ने जानकी जी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराकर उनके अंग-अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण पहना दिये।
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि विमान आए सब सुर देखन सुखकंद।
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा, तुरत दिव्य सिंहासन मांगा।
रबि सम तेज सो बरनि न जाई, बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।
इस प्रकार श्रीराम और जानकी जी दिव्य वस्त्राभूषणों से सजकर खड़े हुए। प्रभु श्रीराम की बाईं तरफ रूप और गुणों की खान जानकी जी शोभित हो रही हैं। उन्हें देखकर सब माताएं अपना जीवन सफल मानकर हर्षित हो रही हैं। गरुड़ जी को कथा सुनाते हुए काग भुशुण्डि जी कहते हैं कि हे पक्षीराज गरुड़ सुनिए, उस समय ब्रह्मा जी, शिव जी और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सभी देवता आनंद कंद भगवान के दर्शन करने के लिए आए। प्रभु को देखकर मुनि वशिष्ठ जी के मन में प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मंगवाया, जिसका तेज सूर्य के समान था। उसका सौन्दर्य वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणों को प्रणाम करके श्रीरामचन्द्र जी उस सिंहासन पर विराजमान हुए। -क्रमशः (हिफी)

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