अध्यात्म

भगवान की भक्ति से ही कल्याण-सूरदास

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भक्त कवि सूरदार जन्मंध होने की वजह से अपने माता-पिता का स्नेह प्राप्त नहीं कर सके थे। उन्होंने बहुत थोड़ी ही आयु में अपना घर छोड़ दिया था और एक तालाब के किनारे रहने लगे थे। मात्र छह वर्ष की आयु में वे सगुन बताने में माहिर हो गये थे जिससे कई श्रद्धालु उनके सेवक बन गए। सूरदास जी के कंठ में रस था और उनकी रुचि संगीत में होने की वजह से वह श्रोताओं को पल भर में मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता रखते थे। गोस्वामी हरिराय ने लिखा है कि सूरदास अंधे तो थे लेकिन जन्मांध थे यह प्रामाणिक नहीं है। इस बारे में कहा जाता है कि ब्रज प्रदेश के यमुना तट पर गोवर्धन गिरि पर जब से उनका निवास हुआ तब से नित्य स्नान करना और उसके प्रति आस्था भरी आत्मीयता रखना ही उनके भक्त जीवन का अंग था। वहीं मंदिर में भजन कीर्तन करना उनकी दैनिक दिनचर्या बन गई थी। कवि और गायक होने के नाते भगवान का गुणगान करना उनका कर्म बन गया था। प्रारंभ में सूरदास जी श्रीकृष्ण के बाल रूप के उपासक थे किंतु महाप्रभु श्री विट्ठलदास से दीक्षित होने के पश्चात वे राधाकृष्ण की युगल मूर्ति एवं राधा के उपासक बन गए।
एक बार की बात है, एक दिन तानसेन ने सूरदास का एक पद जब सम्राट अकबर को दरबार में सुनाया तो उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की। अकबर स्वयं सूरदास जी के दर्शन करने मथुरा में गोवर्धन पर श्रीनाथ जी के मंदिर में पहुंचे। उन्होंने सूरदास जी से कुछ गाने की प्रार्थना की तो वे एक पद गाने लगे, मना रे कर माधव सों प्रीति। गायन के समय मंत्रमुग्ध हो अकबर एक क्षण के लिए खो सा गया। फिर प्रसन्न मुद्रा में तानसेन के माध्यम से अपने यश ज्ञान की प्रार्थना करने पर सूरदास ने दूसरा पद सुनाया, नाहिंन रहो मन में ठौर। पद की अंतिम पंक्ति जब उन्होंने पढ़ी, सूर ऐसे दर्श को न मरन लोचन प्यास। तो गीत की समाप्ति पर बादशाह ने नम्रतापूर्वक प्रश्न किया। सूरदास जी, तुम्हारे लोचन तो दिखाई नहीं देते वे प्यासे कैसे मरते हैं? सूरदास निरूतर हो मौन रहे किन्तु अकबर को स्वयं इसका समाधान सूझ गया। बादशाह को मंदिर के द्वार तक छोड़ वे वापिस लौट आये। सूरदास जी ने कलियुग में भक्ति को ही कल्याण का एकमात्र साधन बताया और कहा कि भजन के बिना मनुष्य का जीवित रहना प्रेत के समान है। भगवद्पूजन के बिना यमूदत द्वार पर खड़े ही रहते हैं। जिस व्यक्ति का मलिन मन उदर भरने के लिए घर-घर डोलता है वह कुटुम्ब सहित डूबता है। भगवान की कृपा की शक्ति तो असीम है ही उसका क्षेत्र भी असीम है। हरि नाम ही भक्त की अतुल संपत्ति है जिसे कोई छीन नहीं सकता। यही मेरा ध्यान है, यही मेरा ज्ञान, यही सुमिरन। सूर प्रभु यही वर दो, मैं यही पाउं।
श्रीनाथ जी की अधिक दिन सेवा में रहने के पश्चात भगवदिच्दा से सूरदास जी एक दिन 1583 में रासलीला की भूमि पारसौली आये और श्रीनाथ जी की ध्वजा के सामने दण्डवत लेट श्री गोसाई जी एवं श्री आचार्य जी का स्मरण करते रहे। तब उनकी उम्र 100 वर्ष से ज्यादा थ। सूरदास जी ने अपना अंतिम पद गाया, खंजन नैन रूप रस माते। और इसके बाद अपना शरीर त्याग दिया। (हिफी)

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