अध्यात्म

खेतड़ी नरेश ने दिया था विवेकानंद नाम

(रमेश सर्राफ धमोरा-हिफी फीचर)
भारत में रियासतों के विलीनीकरण से पूर्व राजस्थान में खेतड़ी एक सुविकसित रियासत थी। चारों तरफ फैले खेतड़ी के यश की चर्चा सुनकर ही विदेशी आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने एक बार खेतड़ी पर भी आक्रमण किया था। मगर उसके उपरान्त भी खेतड़ी की शान में कोई कमी नहीं आयी थी। खेतड़ी के सभी राजा साहित्य एवं कला पारखी व संस्कृति के प्रति आस्थावान रहे थे। वे शिक्षा के विकास व विभिन्न क्षेत्रों को प्रकाशमान करने की दिशा में सदैव सचेष्ट रहते थे। खेतड़ी सदैव से ही महान विभूतियों की कार्यस्थली के रूप में जानी जाती रही है। खेतड़ी नरेश अजीतसिंह भी धार्मिक व आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले शासक थे। राजा अजीतसिंह ने माऊन्ट आबू में एक नया महल खरीदा था। गर्मी में राजा उसी महल में ठहरे हुये थे। उसी दौरान 4 जून 1891 को उनकी युवा संन्यासी विवेकानन्द जी से उनकी पहली बार मुलाकात हुई। इस मुलाकात से अजीतसिंह उस युवा संन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि राजा ने उस युवा संन्यासी को अपना गुरू बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे संन्यासी ठुकरा नहीं सके। स्वामी विवेकानन्द 7 अगस्त 1891 को प्रथम बार खेतड़ी आये और 27 अक्टूबर 1891 तक रहे।
स्वामीजी ने राजा अजीतसिंह को उदार व विशाल बनने के लिए आधुनिक विज्ञान के महत्व को समझाया। खेतड़ी में ही स्वामी विवेकानन्द ने राजपण्डित नारायणदास शास्त्री के सहयोग से पाणिनी का ’अष्टाध्यायी’ व पातंजलि का ’महाभाष्याधायी’ का अध्ययन किया। स्वामीजी ने व्याकरणाचार्य और पाण्डित्य के लिए विख्यात नारायणदास शास्त्री को लिखे पत्रों में उन्हे मेरे गुरु कहकर सम्बोधित किया था। अमेरिका जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह के निमंत्रण पर 21 अप्रैल 1893 को स्वामीजी दूसरी बार खेतड़ी पहुंचे। स्वामी जी ने इस दौरान 10 मई 1893 तक खेतड़ी में प्रवास किया। इसी दौरान एक दिन नरेश अजीत सिंह व स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे, तभी राज्य की नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर संन्यासी होने के नाते स्वामीजी उठकर जाने लगे तो नर्तकियों की दल नायिका मैनाबाई ने स्वामी जी से आग्रह किया कि स्वामीजी आप भी विराजें। मैं यहां भजन सुनाउंगी। इस पर स्वामीजी बैठ गये। नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन
प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो।
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो…
सुनाया तो स्वामीजी की आंखों में पश्चाताप मिश्रित आंसुओं की धारा बह निकली और उन्होंने उस पतिता नारी को ज्ञानदायिनी मां कहकर सम्बोधित करते हुये कहा कि आपने आज मेरी आंखें खोल दी हैं। इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी जीवन पर्यन्त सद्भााव से जुड़े रहने का व्रत धारण किया। 10 मई 1893 को स्वामीजी मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका को प्रस्थान किया। महाराजा अजीतसिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में शामिल हुए और वेदान्त की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया।
इस बात का पता बहुत कम लोगों को है कि स्वामीजी का स्वामी विवेकानन्द नाम भी राजा अजीतसिंह ने रखा था। इससे पूर्व स्वामीजी का अपना नाम विविदिषानन्द था। शिकागो जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह ने स्वामीजी से कहा आपका नाम बड़ा कठिन है। उसका अर्थ नहीं समझा जा सकता है। उसी दिन राजा अजीतसिंह ने उनके सिर पर साफा बांधा व भगवा चोगा पहना कर नया वेश व नया नाम स्वामी विवेकानन्द प्रदान किया था, जिसे स्वामीजी ने जीवन पर्यन्त धारण किया। आज भी लोक उन्हें राजा अजीतसिंह द्वारा प्रदत्त स्वामी विवेकानन्द नाम से ही जानते हैं।
शिकागो में हिन्दू धर्म की पताका फहराकर स्वामीजी विश्व भ्रमण करते हुए 1897 में जब भारत लौटे तो 17 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी नरेश ने स्वामीजी के सम्मान में 12 मील दूर जाकर उनका स्वागत किया व भव्य गाजे-बाजे के साथ खेतड़ी लेकर आये। उस वक्त स्वामी जी को सम्मान स्वरूप खेतड़ी दरबार के सभी ओहदेदारों ने दो-दो सिक्के भेंट किये व खेतड़ी नरेश ने तीन हजार सिेक्के भेंट कर दरबार हाल में स्वामी जी का स्वागत किया।
सर्वधर्म सम्मेलन से लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद जब खेतड़ी आए तो राजा अजीत सिंह ने उनके स्वागत में शहर में चालीस मण देशी घी के दीपक जलवाए थे। इससे भोपालगढ़, फतेहसिंह महल, जयनिवास महल के साथ पूरा शहर जगमगा उठा था। 20 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी के पन्नालाल शाह तालाब पर प्रीतिभोज देकर स्वामी जी का भव्य स्वागत किया। शाही भोज में उस वक्त खेतड़ी ठिकाना के पांच हजार लोगों ने भाग लिया था। उसी समारोह में स्वामी विवेकानन्द जी ने खेतड़ी में सार्वजनिक रूप से भाषण दिया जिसे सुनने हजारों की संख्या में लोग उमड़ पड़े। उस भाषण को सुनने वालों में खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के साथ काफी संख्या में विदेशी राजनयिक भी शामिल हुये। 21 दिसम्बर 1897 को स्वामीजी खेतड़ी से प्रस्थान कर गये।
स्वामी विवेकानन्द जी ने एक बार कहा था कि यदि खेतड़ी के राजा अजीतसिंह जी से उनकी भेंट नही हुयी होती तो भारत की उन्नति के लिये उनके द्वारा जो थोड़ा बहुत प्रयास किया गया उसे वे कभी नहीं कर पाते। स्वामी जी राजा अजीतसिंह को समय-समय पर पत्र लिखकर जनहित कार्य जारी रखने की प्रेरणा देते रहते थे।
राजा अजीतसिंह और स्वामी विवेकानन्द के अटूट सम्बन्धों की अनेक कथाएं आज भी खेतड़ी के लोगों की जुबान पर सहज ही सुनने को मिल जाती है। स्वामीजी का मानना था कि यदि राजा अजीतसिंह नहीं मिलते तो उनका शिकागो जाना संभव नहीं होता। स्वामी जी ने माना था कि राजा अजीतसिंह ही उनके जीवन में एकमात्र मित्र थे। स्वामी जी के आग्रह पर राजा अजीत सिंह ने स्वामी की माता भुवनेश्वरी देवी को 1891 से सहयोग के लिये 100 रूपये प्रतिमाह भिजवाना प्रारम्भ करवाया था जो अजीतसिंह जी की मृत्यु तक जारी रहा। स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में व मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुयी थी। इसी तरह राजा अजीतसिंह जी का जन्म 10 अक्टूबर 1861 में व मृत्यु 18 जनवरी 1901 को हुयी थी। दोनो का निधन 39 वर्ष की उम्र में हो गया था व दोनो के जन्म व मृत्यु का समय में भी ज्यादा अन्तर नहीं था। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता है।
उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए, यह संदेश देने वाले युवाओं के प्रेरणास्रेत, समाज सुधारक, युवा युगपुरुष स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनके जन्मदिन को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमुख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, आध्यात्मिक विचार और उनके आदर्श हैं। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। किसी भी देश के युवा उसका भविष्य होते हैं। उन्हीं के हाथों में देश की उन्नति की बागडोर होती है।
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन नामक सेवा भावी संगठन की स्थापना की, जिसकी राजस्थान में प्रथम शाखा खेतड़ी में 1958 को राजा अजीत सिंह के पौत्र बहादुर सरदार सिंह द्वारा खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामी जी के ठहरने के स्थान स्वामी विवेकानन्द स्मृति भवन में प्रारम्भ करवायी गयी। (हिफी)

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