(महासमर की महागाथा-20) शब्द, लिपि और पुस्तक

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
यदि प्राचीन आर्य-साहित्य के इतिहास पर विचार किया जाय तो मालूम होता है कि आर्य जाति के ज्ञान का आरंभ तथा उन्नति आर्यों के विचारों की उड़ान और प्रकृति के साथ संपर्क पर निर्भर है। आर्य-साहित्य के चार काल हैं। वैदिक काल में ऋषि प्रकृति के दृश्य देखकर वैसे ही प्रेम तथा आश्चर्य प्रकट करते हैं जैसे जन्म लेने के बाद बच्चा। यह बच्चा संसार की हर वस्तु, यहाँ तक कि सूर्य और चाँद को भी, अपने हाथों में लेने की इच्छा और प्रयत्न करता है।
दूसरा काल उपनिषदों का है, जबकि बुद्धि शांत होकर ध्यान में लगी हुई मालूम देती है। ब्रह्मांड के अंतस्तल में जो रहस्य काम करते हैं, उनकी खोज का उल्लेख उपनिषदों में पाया जाता है। नचिकेता का प्रश्न कितना सुंदर है-मृत्यु के बाद आत्मा किधर जाती है? मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से पूछती है- आत्मा क्या है?
तीसरे काल में तर्क प्रधान है। इसमें दर्शन के कई संप्रदाय पैदा हो गए। ये सब दुःखदर्शी हैं और इस दुःख को दूर करने के लिए अपने-अपने तरीके से उपाय ढूँढ़ते हैं। बौद्ध मत इस दर्शन को मजहब के स्तर पर ले जाता है, इच्छा छोड़ दो। बस, यही निर्वाण है।
भगवद्गीता बताती है कि ज्ञानी की दृष्टि में सुख और दुःख बराबर हैं। अध्याय दो का श्लोक 561 और
अध्याय चौदह के श्लोक 242 और 253 बताते हैं, संसार में दुःख है, परंतु उससे डरो मत। अपने कर्तव्य का पालन करते जाओगे तो दुःख ही सुख मालूम होगा। बौद्ध मत दुःख से घबराकर उससे मुक्ति ढूँढ़ता है। भगवद्गीता दुःख के ऊपर विजय प्राप्त कर उसे सुख बना देती है। चौथा पौराणिक काल है। इसमें पुराणों का रिवाज पाया जाता है। कभी- कभी लोग प्राचीन भाषा के शब्दों के प्रयोग न समझकर उनके अर्थ अपने हालात के अनुसार मानने लगते हैं।
ज्ञान के आरंभ के साथ मिलता हुआ प्रश्न भाषा का आरंभ है। इस विषय पर विचार करना आवश्यक है। स्वामी दयानंद तो वेद-ज्ञान के साथ शब्द को भी अनादि मानते हैं। शब्द ज्ञान का पहनावा है। ऋषियों के मन में ज्ञान का प्रकाश इन्हीं शब्दों के द्वारा हुआ। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक वेद-ज्ञान को अनादि मानते हैं परंतु वे यह भी कहते हैं कि हर हिमानी युग के अंत में इस पृथ्वी पर एक तूफान आता है, जो बीस-पच्चीस हजार वर्ष के बाद एक प्रलय सी होती है। तब यह ज्ञान विचारों के रूप में याद रह जाता है। फिर सृष्टि फैलने पर ऋषिगण इसका वर्णन अपने शब्दों में करते हैं। मनुस्मृति में इस तूफान को मनु का तूफान कहा गया है। संभवतः इसी को बाइबिल नूह का तूफान बताती है। (शब्द, मनु और नूह में बहुत साम्य पाया जाता है।)
श्री अरविंद घोष ने भाषा के आरंभ को विकास के सिद्धांत के अनुसार सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनके परिणाम इस प्रकार हैं- आरंभ में मनुष्य पशुओं के समान कुछ आवाजें निकालते थे। (इन आवाजों को अरविंद बाबू ने बीज-शब्द कहा है।) वे आवाजें विशेष गतियों के संबंध से विशेष अर्थ प्रकट करती थीं। एक काल के बाद जब इन आवाजों के कई विभिन्न अर्थ समझे जाने लगे, तब ये धातु बन गईं। ज्यों-ज्यों इन धातुओं के प्रयोग और अर्थ बढ़ते गए त्यों-त्यों इनसे कई शब्द बनने लगे। पहले-पहल ये समष्टिगत अर्थों में प्रयुक्त होते थे, जिनसे एक शब्द अवसर के अनुसार कई अर्थ देता था। इन शब्दों को तरल, आसानी से बदलनेवाले, कहा गया है। (वेदों के बहुत से शब्द इस प्रकार के हैं।) बहुत समय गुजरने पर जब इन शब्दों की संख्या बहुत बढ़ी तब एक-एक विशेष अर्थ देने लगा। इससे उसका अर्थ सीमाबद्ध हो गया। यही कारण है कि पुरानी संस्कृत में श्लेष का प्रयोग बहुत पाया जाता है और एक ही शब्द कई अर्थों में इस्तेमाल होता है। यह अन्वेषण भाषा-विज्ञान को एक नए रूप में प्रकट करता है। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर मालूम होता है कि न केवल आर्य नस्ल की शाखाओं की भाषाएँ, बल्कि अन्य भाषाएँ भी वैदिक भाषा से विशेष संबंध रखती हैं।
अक्षरों के आविष्कार में अन्य जातियों का हाथ दिखलाई देता है। लिखने की प्राचीनतम कला चीनियों की मालूम होती है। चीनी भाषा में हर एक पूर्ण वाक्य के लिए विशेष चिह्न या संकेत है। जो मनुष्य इस भाषा का पंडित होना चाहता है, उसे लगभग पैंसठ हजार चिह्न याद करने पड़ते हैं। साधारण शिक्षा के लिए दो-तीन हजार चिह्नों का जानना आवश्यक होता है। चीनियों ने सातवीं शताब्दी से पूर्व ही छापाखाना, मुद्रण यंत्र और समाचार-पत्र जारी किए थे। यूरोप के ईसाई पादरियों ने मुद्रण कला चीन से ले जाकर यूरोप में प्रचलित की।
प्राचीन मिस्रवासी जानवरों के चित्र खींचकर लिखा करते थे । एक चित्र अवसर के अनुसार विभिन्न अर्थों के लिए संकेत होता था। इनको चित्र-लिपि कहा जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के दरमियान एक लेख मिला, जिस पर लैटिन भाषा के साथ कुछ चित्र विद्यमान थे। लैटिन भाषा से उस लेख की चित्र-लिपि पढ़ने में मदद मिली। उस चित्र-लिपि की सहायता से ईसा से छह-सात हजार वर्ष पूर्व के मिस्र का इतिहास मालूम हो गया है।
चाल्डिया के वासी रेखाओं की सहायता से लिखते थे। इसे क्यूनिफार्म तरीका कहा जाता है। ये लोग ईंटों पर पुस्तकें लिखकर उन्हें आग में पका लेते थे। ऐसी पुस्तकों का एक संग्रहालय नैनवा के महलों के खंडहरों में पाया गया है।
टाइर नाम के स्थान में रहने वाले फिनीशियन लोग थे, जिन्होंने खास आवाजों के लिए खास निशान नियत कर रखे थे। ये अक्षरों के रूप में थे। थीब्स का रहने वाला कॉडमस नामक एक शख्स ईसा से पंद्रह सौ वर्ष पूर्व इन अक्षरों को यूनान या ग्रीस में ले गया। यूनान से ये रोम पहुँचे और वहाँ से इनका रिवाज समस्त यूरोप में हो गया। फिनीशिया और चाल्डिया के अक्षर मिलाकर बेबेलोनिया के अक्षर बनाए गए। बेबेलोनिया के अक्षरों से अरबी लिपि उत्पन्न हुई। पुराने पारसी लोगों ने भी, यद्यपि उनकी भाषा आर्यभाषा की एक शाखा है, अक्षरों की नकल यहाँ से की।-क्रमशः (हिफी)