(महासमर की महागाथा-31) मूर्ख को ज्ञान नहीं देना चाहिए

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
इस बात का अनुभव करना मुश्किल है कि अज्ञान में रहने वाला मनुष्य दुःख के गड्ढे में पड़ा रहता है। यह अनुभूति होने के बाद मनुष्य उस अवस्था को बदलना चाहता है। तब वह मार्ग ढूँढ़ता है और कोई पथ-प्रदर्शक चाहता है। भगवद्गीता के अध्याय चार के श्लोक 331 और 342 में बताया गया है, गुरु की खोज करने के बाद उसकी सेवा कर उससे ज्ञान-धन प्राप्त करो, वही इसकी प्राप्ति के वे आवश्यक साधन और तप बताएगा, जिनके बगैर ज्ञान की उपलब्धि कठिन है।
गुरु के लिए पहले यह सोचना जरूरी होता है कि जिज्ञासु किस दरजे के ज्ञान का पात्र है। जब एक व्यक्ति जिज्ञासु गुरु के पास जाता था तब गुरु उसे कोई खास तप करने को बताता और कहता कि इसके छह मास या साल भर के बाद आना। इस प्रकार गुरु को यह मालूम हो जाता कि वह सचमुच ज्ञान का इच्छुक है या नहीं। इसके अतिरिक्त तप के द्वारा उसकी अन्य इच्छाओं को दबाना भी एक उद्देश्य होता था।
भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 261, 272 और 293 में कहा गया है, मूर्ख को ज्ञान कभी नहीं देना चाहिए। संसार के साथ उसका प्रेम हिला देने का परिणाम अच्छा न होगा। इस पर आपत्ति की जा सकती है कि यह तो एक प्रकार का झूठ और लोगों को धोखा देने के बराबर है। यहाँ आपत्ति करनेवाले भूल करते हैं। वह यह नहीं समझते कि मूर्ख वह है, जिसके मन में ज्ञान की इच्छा उत्पन्न न हुई हो। जिसे इच्छा ही नहीं, उसे ज्ञान की बात बताना व्यर्थ है। इसके विपरीत, वह तो ज्ञानोपदेश के अनुसार आचरण कर ही नहीं सकेगा।
साधारण और मोटी बातें लोगों को भली मालूम देती हैं। संभवतः इसी से कहानियों की किताबें अधिक बिकती हैं। गूढ़ विषय पर व्याख्यान हो तो लोग थोड़ी देर के बाद धीरे-धीरे उठकर खिसकने लगते हैं। गंभीर और विचारणीय पुस्तक को बहुत कम लोग पढ़ना चाहते हैं।
जैसे निम्न कक्षा का विद्यार्थी ऊँची शिक्षा की पुस्तकों से आनंद नहीं उठा सकता और छोटी आयु का बच्चा विषय-भोग के सुख को नहीं समझ सकता, वैसे ही मूढ़ के लिए बात समझना मुश्किल होता है।
भगवद्गीता के अध्याय पाँच के श्लोक 264 में कहा गया है, वही योगी, जिसने तृष्णा को मारकर मन को अपने काबू में कर लिया है, ब्रह्म आनंद को प्राप्त कर सकता है। इस मन को वश में करने का एक तरीका तो राजयोग है। मन पर किस प्रकार का काबू पाया जा सकता है, यह अष्टावक्र के उदाहरण से प्रकट होता है। राजा जनक ने इच्छा प्रकट की कि उन्हें कोई ऐसा गुरु मिले, जो क्षण भर में ज्ञान का मार्ग दिखला दे। भरी सभा में एक भी ऐसा मनुष्य नहीं निकला। यह सुनकर अष्टावक्र वहाँ पहुँचे। उनके टेढ़े शरीर को देखकर सभा के कुछ सदस्य हँस पड़े। इस पर अष्टावक्र ने कहा, क्या यह चमारों की सभा है, जो चमड़े को परखना चाहती है ? सब लोग शर्म के मारे चुप हो गए। अष्टावक्र से भी वही प्रश्न किया क्या आप क्षण भर में ज्ञान का मार्ग दिखला सकते हैं? अष्टावक्र ने उत्तर दिया, पहले गुरुदक्षिणा मिले तब बताऊँगा। इस पर जनक ने कोष और राज्य की ओर इशारा किया। अष्टावक्र ने कहा, इनमें आपका क्या है ? आपसे पहले इनके कई मालिक थे। जनक ने अपने बाल-बच्चों की ओर संकेत किया तो अष्टावक्र बोले, ये सब तो अपनी-अपनी आत्मा रखते हैं ये आपके नहीं हैं। जनक ने कहा, मन मेरा है। यह आपको अर्पण है। यह सुनकर अष्टावक्र वहाँ से चल दिए। इससे जनक को क्रोध आया कि ये कुछ बताए बिना ही चल दिए। सोचने पर खयाल आया, क्रोध तो मन में उत्पन्न होता है और मन मेरा है नहीं, फिर अष्टावक्र पर क्रोध कैसा? इस प्रकार वहाँ खड़े-खड़े जनक विचार में पड़ गए और उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया।
भगवद्गीता का दूसरा अध्याय आत्मिक ज्ञान का समुद्र है। इसके श्लोक 701 में कहा गया है, ज्ञानी का मन समुद्र के अंतस्तल की तरह शांत हो जाता है। समुद्र में नदियाँ गिरती हैं, तूफान आते हैं परंतु उसका तल ज्यों-का-त्यों अचल और शांत रहता है। अध्याय पाँच के श्लोक 242 और 253 में बताया गया है, जो योगी अपने आंतरिक आनंद को प्राप्त कर लेता है, वह इस जन्म में ही मुक्ति का आनंद प्राप्त कर लेता है। इस जन्म में वह जनक के समान जीवन्मुक्त हो
जाता है। यह आनंद केवल स्व-संवेद्य है। इसका अनुभव वही करता है,
जिसमें अनुभव करने की शक्ति होती है। उपनिषद् में कहा गया है, उसके मन की घुंडियाँ खुल जाती हैं, संशय मिट जाते हैं, कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह आत्मा के स्वरूप को देखने लगता है।
भगवद्गीता के अध्याय सात के श्लोक 21 में कहा गया है, यह वह ज्ञान है, जिसे प्राप्त करने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता। लोग पूछते हैं, ऐसे ज्ञान से हमें क्या लाभ होगा? या इससे हमें कौन सा सुख मिलेगा? यह सवाल ऐसा ही है जैसे पिता से बेटे का यह पूछना कि यदि मैं विद्या-लाभ करूंगा तो क्या इससे मुझे खिलौने मिलेंगे? गीता के अध्याय पाँच के श्लोक 162 में कहा गया है, यह ज्ञान ज्ञानी के हृदय को सूर्य के समान प्रकाशमय कर देता है। पहाड़ की चोटी पर चढ़कर देखने से बादल अकसर पाँव के तले मालूम पड़ते हैं और नीचे बरसात होने पर भी सूर्य सिर पर चमक रहा होता है। इसी प्रकार संसार के सभी बादल ज्ञान के पाँव तले रह जाते हैं उसके ऊपर हमेशा ज्ञान का सूर्य चमकता है।
ऐसा मनुष्य शरीर धारण करते हुए भी मुक्त हो जाता है। पतिव्रता हिंदू नारी घर का सब कामकाज करती है, परंतु उसका चित्त हर समय अपने पति के प्रेम में मग्न रहता है। इसी प्रकार जीवन्मुक्त होने का दृष्टांत दिया जाता है। (भगवद्गीता में उनको जीवन्मुक्त होने का नमूना बताया गया है।) एक संन्यासी ने जनक के पास जाकर अपना संशय प्रकट किया, आपको लोग जीवन्मुक्त क्यों कहते हैं? आप तो संसार में लिप्त हैं। जनक ने राजप्रासाद के अंदर ही सन्यासी को रहने के लिए जगह दे दी। अचानक एक दिन थोड़े फासले पर ही आग लग गई। सिपाही दौड़े-दौड़े आए। उन्होंने राजा को खबर दी, जो उस समय उक्त संन्यासी के पास बैठे थे। राजा ने आग को बुझाने का आदेश दिया। फिर खबर आई, आग तो महल के पास आ पहुँची है। यह सुनते ही संन्यासी उठा और बोला, मेरी लँगोटी और लोटा पड़ा है। उनको लेने जा रहा हूँ। इस पर जनक ने संन्यासी को समझाया कि तुम्हारा मन लँगोटी और लोटे के अंदर फँसा है। इसी से इतनी घबराहट पैदा हुई।-क्रमशः (हिफी)