(महासमर की महागाथा-33) आत्मा की उन्नत अवस्था

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
मनुष्य की उन्नति का अगला दरजा वह है, जिसमें बिरादरी के अंदर वह अपनी आत्मा फैला देता है। इस प्रकार वह बिंदु फैलते-फैलते परिवार से कुल तक पहुँच जाता है। आत्मा के फैलाव का अगला क्षेत्र जाति है। जो लोग जाति के लिए जीते और मरते हैं, वे जाति में ही अपनी आत्मा देखते हैं। ऐसे मनुष्य देश और जाति या राष्ट्र के लिए हर प्रकार का त्याग करते हैं। मनुष्य की उन्नति एक दरजा और बाकी है। तब मनुष्य प्राणिमात्र के अंदर अपनी आत्मा को फैला हुआ देखता है। यह वह अवस्था है, जहाँ पर पहुँचकर मनुष्य का स्वार्थ और परमार्थ एक हो जाते हैं। उसकी आत्मा समस्त संसार की आत्मा हो जाती है और वह उन्नत आत्मा समस्त ब्रह्मांड की आत्मा के साथ एक हो जाती है। भगवान् कृष्ण की आत्मा इस उन्नत अवस्था में थी। इसीलिए वे अपने आपको सारे ब्रह्मांड की आत्मा कह सकते थे।
सामान्य मतों के अनुयायी परमात्मा को ऊपर आसमान में स्थित सत्ता मानकर उसकी प्रशंसा करते हैं। उससे अपने लिए दुआएँ माँगते हैं। किंतु न वह इन तारीफों से खुश होता है, न उसे इनकी कुछ जरूरत है और न वह माँगने से कुछ देता है।
परमात्मा की भक्ति की तीन श्रेणियाँ हैं- स्तुति, प्रार्थना और उपासना। जिस प्रकार हम किसी भव्य भवन या अद्भुत शक्तिवाले मनुष्य को देखकर चकित होते हैं और हमारे अंदर उसके लिए प्रशंसा-भाव उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार परमात्मा को समस्त ब्रह्मांड में काम करता हुआ देखकर हमारे मन में स्तुति का भाव उत्पन्न होता है। किसी विचित्र गुण को देखकर हमारे अंदर उस गुण को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है। परमात्मा को और अधिक जानने की इच्छा का नाम प्रार्थना है, हमारी बुद्धि तीक्ष्ण हो और हम आपको और ज्यादा जान सकें। दिन- प्रतिदिन अधिक
अध्ययन करता हुआ बच्चा अधिक ज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा करते-करते वह गुरु के अधिक निकट हो जाता है। इसे उपासना कहते हैं। ऐसा ज्ञान व बुद्धि होने से हमारी परमात्मा के साथ निकटता या उपासना होती है।
हम उसी शक्ति को ब्रह्मांड में देखते हैं जिसे अपने अंदर काम करते पाते हैं। इस सच्ची उपासना से हमें सभी प्राणियों के अंदर परमात्मा की शक्ति नजर आती है। परमात्मा की संगति में हम उस लोहे के समान होते हैं, जो चुंबक के साथ लगने से चुंबक हो जाता है। एक कवि की कल्पना है- सिवा बाँस के, क्योंकि यह अभिमानी सीधे ऊँचा-ही-ऊँचा चला जाता है और अंदर से खोखला होता है- जो भी वृक्ष चंदन के पास होता है, वह चंदन के समान सुगंधित हो जाता है। नमक की खान में पड़ी कोई चीज नमक ही बन जाती है। यह भक्ति वह पारस है, जिसके स्पर्श से पत्थर सोना हो जाता है। भगवद्गीता के अध्याय चार के श्लोक 361 में कहा गया है, उसको प्राप्त करने के बाद बड़े-से-बड़ा पापी भी पाप के समुद्र से पार हो जाता है।
भगवद्गीता के अध्याय सात के श्लोक 212, 223 और 234 बतलाते हैं, जो जिस देवता की पूजा करता है, उसी में मैं उसकी श्रद्धा पूरी करता हूँ। वह उस देवता से फल प्राप्त करता है, परंतु वास्तव में फल देने वाला मैं हूँ। थोड़ी समझ वाले लोग देवताओं की पूजा करते हुए उन तक पहुँचते हैं। मेरे भक्त मुझको पाते हैं। अल्पबुद्धि लोग इन श्लोकों में मूर्तिपूजा की सिद्धि ढूँढ़ते हैं। भगवद्गीता में देव का अर्थ ज्ञान, विद्या, वीरता आदि गुण हैं जैसा अध्याय चार के श्लोक 121 से प्रकट होता है। मेरे शब्द का अर्थ आत्मा का है। जिस अर्थ में मूर्तिपूजा आजकल भारत में समझी जाती है, उसका विचार भी भगवद्गीता में नहीं मिलता। यदि मूर्ति के अंदर हमें कोई गुण दिखलाई नहीं देता और न हमको यह ज्ञात है कि जिसकी यह मूर्ति है, उसके क्या गुण हैं, तो उस मूर्ति से भक्तिभाव कैसे उत्पन्न हो सकता है? और यदि हमको किसी देवता के गुणों का वास्तविक ज्ञान है तो उसकी मूर्ति बनाकर रखना या न रखना बराबर है। भगवद्गीता के अध्याय नौ के लोक 262, 273, 284 और 295 में कहा गया है, यदि कोई मनुष्य प्रेम से एक पत्ता भी मुझे भेंट करता है तो मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ । यों तो सभी प्रिय हैं, परंतु जो मनुष्य मुझसे प्रेम करता है, वह मुझमें मिल जाता है। तब मैं उसमें होता हूँ और वह मुझमें होता है।
प्रेम वास्तव में क्या है? ऐतरेय उपनिषद् में इसका सुंदर विवेचन है। ऋषि पूछता है, माता को पुत्र और पुत्र को माता क्यों प्रिय है? पत्नी को पति तथा पति को पत्नी क्यों प्रिय है? आगे चलकर उत्तर दिया है, पुत्र होने के कारण लड़का माता को प्यारा नहीं, बल्कि आत्मा के कारण। पत्नी पत्नी के कारण प्यारी नहीं है। बल्कि आत्मा के कारण। यों स्त्री, पुत्र और पिता अगणित हैं परंतु हम उनमें से एक को इसलिए प्यार करते हैं कि हमारी आत्मा का संबंध उससे है। कोई मनुष्य दूसरे आदमी को उसकी खातिर प्रेम नहीं करता, बल्कि इसलिए कि अपनी आत्मा को फैलाकर उसे दूसरे के अंदर देखता है। सीप रेत का एक कण अपने अंदर प्रविष्ट करती है, जैसे माता वीर्य को धारण करती है और उसके कण के गिर्द अपने स्व को लपेटना शुरू करती है। इस प्रकार वह उसको मोती बना लेती है। इसी तरह मनुष्य जिसे प्रेम करता है उसे अपने अंदर लेकर अपनत्व को उसके चारों ओर लपेट लेता है और उसे अपना बना लेता है। यही उसका प्रेम है। जब वह अपनी आत्मा को दूसरी सत्ता में विलीन कर देता है तो उसका अहं नष्ट हो जाता है। ज्ञानी लोग अपनी आत्मा को इतना फैलाते हैं कि समाज, जाति, मानव-समाज, यहाँ तक कि प्राणिमात्र में अपने आपको ही समझने लगते हैं। यदि इसमें भी स्व का कुछ अंश है तो वह इतना अधिक फैला हुआ है कि उसका अस्तित्व नहीं के बराबर है।
भगवद्गीता के अध्याय बारह के श्लोक 62 और 73 में कहा गया है, अर्जुन! तुम मन, बुद्धि और कर्म-सब कुछ मुझे अर्पित कर दो। अध्याय अठारह के श्लोक 654 और 665 में बताया गया है, हे अर्जुन! सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा। मुझ पर भरोसा रख। मेरे चरणों में आ और मेरा ही भक्त बन जा। मैं तुझसे कहता हूँ कि तू ऐसा कर, क्योंकि तू मुझे प्रिय है। इन श्लोकों को पढ़ने पर मनुष्य एक बार अपना
अस्तित्व भूलकर भगवद्गीता में तन्मय हो जाता है। तब प्रेम में मग्न हो पुकार उठता है, मैं धन नहीं चाहता। न मुझे सुख की इच्छा है, न मुक्ति की। मैं केवल आपके प्रेमामृत का प्यासा हूँ।-क्रमशः (हिफी)