(महासमर की महागाथा-38) परमात्मा तक जाते हैं सभी रास्ते

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
जिसे हम अपना मजहब कहते हैं, उसके लिए हम सब कुछ बलिदान करने पर तैयार हो जाते हैं परंतु इस बात पर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं कि उनका मजहब क्योंकर उनका है। जिस मजहब को हम अपना समझकर उससे इतना प्यार करते हैं, उसके चुनने में प्रायः हमारा कोई हाथ नहीं होता। प्रायः जिस विशिष्ट माता-पिता के यहाँ हमारा जन्म होता है, उन माता-पिता का मजहब ही हमारा मजहब हो जाता है। बचपन में विशेष विचार-क्रम हमारे दिमाग पर ऐसा जम जाता है कि हम अपने जीवन में बुद्धि तथा विद्या संबंधी चाहे जितनी उन्नति कर लें, उन विचारों से पीछा नहीं छुड़ा सकते। हमारा समाज और हमारे विद्यालय व रिवाज भी उसी प्रभाव को दृढ़ करते हैं। अपने मजहब के साथ लोगों का लगाव इतना ज्यादा हो जाता है कि जो कुछ उसके अनुसार न हो, वह उन्हें बुरा मालूम देने लगता है। यही नहीं, अन्य मजहबों से घृणा भी हो जाती है। यह मनुष्य के तअस्सुब या मजहबी पक्षपात की नींव है। इसी कारण संसार में मजहबी असहिष्णुता फैली है। इस असहिष्णुता के कारण जो अत्याचार मानव ने मानव पर किए हैं, वे न तो शैतान ने किए हैं, न किसी प्राकृतिक शक्ति ने।
इस युग में प्रकट रूप से मजहब के नाम पर वे लड़ाइयाँ और खून-खराबा नहीं हुआ, जो पिछले जमाने में होता रहा है। इसलिए हम समझने लग जाते हैं कि दुनिया उन्नति कर गई है, मजहबी अत्याचार की पुनरावृत्ति का कोई डर नहीं लेकिन यह केवल नुमाइशी बात है। असल में हर एक मनुष्य अपनी शक्ति को प्रायः उन्हीं कामों में खर्च करता है, जो या तो प्रेमवश किए जाते हैं या घृणा के कारण करने पड़ते हैं। राग और द्वेष दो भाग हैं, जो मनुष्य के कारोबार को चलाते हैं। एक मजहब के कई करोड़ मनुष्य शेष सभी मनुष्यों से मजहब के कारण द्वेष रखते हैं। संसार में सबसे अधिक घृणा की सृष्टि मजहबी मतभेद के कारण होती है। इसका इलाज भगवद्गीता में बताया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं, सभी रास्ते मुझ तक आते हैं। जो जिस रास्ते से आता है, उसे मैं उसी रास्ते से स्वीकार करता हूँ। यह सच्ची सहिष्णुता है, जो अन्यत्र कहीं नहीं दिखलाई देती।
हजरत इब्राहीम की कहानी है कि वह हर रोज मेहमान को खाना खिलाकर खाया करता था। संयोग की बात, तीन-चार दिनों तक कोई मेहमान न मिलने के कारण उसे भूखा रहना पड़ा। बड़ी खोज के बाद एक बूढ़ा पारसी इब्राहीम को मिला। उसको वह घर लाया। दस्तरखान बिछाया गया। इब्राहीम ने दुआ पढ़ी। पारसी ने बिना किसी दुआ के खाने को हाथ बढ़ाया। इब्राहीम ने पूछा, यह क्या? बूढ़े ने जवाब दिया, हमारे यहाँ खुदा का नाम लेने का रिवाज नहीं है। इस पर हजरत को गुस्सा आ गया। वह खाना भूल गया और लाठी लेकर उसे निकालने लगा। उसी समय अचानक खुदा का फरिश्ता दिखाई दिया। उसने इब्राहीम को डाँटा और कहा, मैंने इस बूढ़े को अस्सी साल तक खाना दिया है, तुम्हें सिर्फ एक ही दिन खाना देना पड़ा है और उसी में घबरा गए हो! तब इब्राहीम को समझ आई
प्राचीन जातियाँ भी जहाँ-जहाँ जाती थीं, उनकी सभ्यता की अच्छी बातें अन्य जातियाँ स्वयमेव ग्रहण कर लेती थीं परंतु जब से वर्तमान मजहबों ने सभ्यता का स्थान ले लिया है तब से उसके प्रसार के तरीके विचित्र हो गए हैं। यद्यपि श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में अपनी भक्ति तथा प्रेम पर जोर दिया है परंतु यह सब एक प्रकार से रूपक है। वहाँ मैं का अर्थ आत्मा है। बौद्ध मत संसार में सबसे पहला मजहब है, जिसमें गौतम बुद्ध ने अपने नाम का मजहब जारी करके प्रचार को फैलाव का साधन बनाया। उनका अनुकरण कर राजाओं ने बेटे-बेटियों तक से धर्म-प्रचार का काम करवाया।
बौद्ध मत के बाद ईसाई मजहब ने अपने आपको फैलाने में प्रेम तथा नम्रता से बहुत काम लिया, साथ ही तलवार से भी कम काम नहीं लिया। इसलाम ने तो अपने फैलाव के लिए प्रायः तलवार का ही सहारा लिया। समय आने पर ईसाइयत और इसलाम की तलवारों का मुकाबला हुआ। आठवीं शताब्दी के पहले भाग से स्पेन को जीतने के पश्चात् मुसलिम फौजें फ्रांस पर चढ़ गई। तब सारी ईसाई जातियाँ मुकाबले के लिए तैयार हो गईं। पेरिस के पास ही इसलाम और ईसाइयत का निर्णायक युद्ध हुआ, जिसके परिणाम के संबंध में प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार गिबन यों लिखता है, श्यदि इस युद्ध में इसलाम जीत जाता तो आज ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज के विश्वविद्यालयों में अंग्रेज विद्वान् मुसलिम विद्यार्थियों को कुरान पढ़ा रहे होते। सचमुच, चार्ल्स मारटल ने यूरोप को इस गजब से बचा लिया। किंतु गिबन यह भूल गया कि जिन तरीकों से यूरोप या इंग्लैंड ईसाई हुए थे वे भी वास्तव में उसी प्रकार के थे।
यदि आज वर्तमान मजहबों के रखने में लोगों का अपना हाथ नहीं है तो यह देखना बाकी है कि जिन लोगों ने ये मजहब ग्रहण किए, उन्होंने क्या सोच-विचार के बाद ऐसा किया था। विभिन्न मनुष्यों और जातियों ने जिन प्रभावों के अधीन मजहबी परिवर्तन स्वीकार किए, वे आश्चर्यजनक हैं। हमारा आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि उनके बावजूद मजहब रखनेवाले लोग अपने- अपने मजहब से इतना प्रेम करते हैं। इन परिवर्तनों को पैदा करनेवाली सबसे बड़ी शक्ति तलवार या युद्ध में विजय है। तलवार की ताकत ने मिस्रवासियों और ईरानवासियों जैसी दो पुरानी जातियों को मुसलमान बनाया तो जर्मनी को ईसाई बनने के लिए बाध्य किया।
रोम का सम्राट् कॉन्स्टेंटाइन लड़ाई पर जा रहा था। जब उसने अपने सिपाहियों को ईसाई ढंग से प्रार्थना करते देखा तो उसने उनसे कहा कि अगर वे विजयी हुए तो वह भी ईसाई मत को स्वीकार कर लेगा। हुआ भी ऐसा ही।
विवाह संबंध ने भी मजहबी परिवर्तन में बड़ा भाग लिया है। फ्रांस और इंग्लैंड के इतिहास में इसके कई उदाहरण मिलते हैं। फ्रांस का राजा ईसाई लड़की से विवाह करके ईसाई हो गया। उसी प्रकार फ्रांस की राजकुमारी ने केंट के राजा को और फिर वहाँ की राजकुमारी ने एंगलिया आदि के राजा को ईसाई मत में शामिल किया।-क्रमशः (हिफी)