अध्यात्म

मयूरेश्वर मंदिर

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भारत की विविधता में एकता के रंग यहां के उत्सवों व पर्वों में बड़ी खूबसूरती से देखे जाते हैं। एक ही धर्म में अलग-अलग क्षेत्रों में इतनी खूबसूरत सांस्कृतिक परंपराएं हैं। जिस तरह बंगाल में दुर्गा पूजा की धूम होती है, उत्तरी भारत में नवरात्र की उसी प्रकार महाराष्ट्र में गणोशोत्सव बड़े उत्साह से मनाया जाता है। भगवान गणेश हिंदू धर्म में प्रथम पूजनीय माने जाते हैं। भगवान गणेश को रिद्धि-सिद्धि और बुद्धि का देवता कहा जाता है। भाद्रपद माह की गणेश चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक गणेश जी की आराधना का यह उत्सव उनकी स्थापना से लेकर विसर्जन किए जाने तक चलता है। गणेश यानी गणों के ईश, देवताओं के भगवान। दरअसल पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस प्रकार भगवान विष्णु धर्म की हानि होते देख सृष्टि में दुष्टों का संहार कर धर्म की पुनर्स्थापना करते हैं। उसी प्रकार समय-समय पर भगवान गणेश भी देवताओं के रक्षक बनकर सामने आए हैं। इसलिए गणेश जी का एक नाम अति प्रचलित है अष्टविनायक अर्थात आठ गणपति। महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी से लेकर गणेशोत्सव के दौरान अष्टविनायक की यात्रा की जाती है। अष्टविनायक तीर्थ यात्रा का प्रथम पड़ाव मयूरेश्वर माना जाता है। पुणे से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मोरेगांव में गणपति बप्पा का यह प्राचीन मंदिर बना हुआ है। मंदिर की बनावट से लेकर यहां स्थापित प्रत्येक मूर्ति चाहे वह शिव वाहन नंदी की हो या फिर गणपति के वाहन मूषक राज की कोई न कोई कथा कहती है। मंदिर की दीवारों से लेकर मीनारें तक कोई न कोई संदेश देती हैं। इस मंदिर के चार कोनों में मीनारें बनी हुई हैं। दीवारें लंबे पत्थरों की हैं। सतयुग से लेकर कलियुग तक चारों युगों के प्रतीक चार दरवाजे भी मंदिर में हैं। मंदिर के मुख्यद्वार पर नंदी की प्रतिमा स्थापित है, जिनका मुख भगवान गणेश जी की ओर है इनके साथ ही मूषक राज की प्रतिमा भी बनी हुई है। नंदी और मूषक को मंदिर का रक्षक भी माना जाता है। नंदी की प्रतिमा के पीछे तो रोचक मान्यता भी है। हुआ यूं कि भगवान शिव के वाहन नंदी इस मंदिर में विश्राम करने के इरादे से रुके, लेकिन उन्हें गणेश जी का सान्निध्य इतना रास आया कि यहां से फिर कभी वापस ही नहीं जा पाए। मान्यता है कि तब से लेकर वर्तमान तक वे यहीं स्थित हैं। मंदिर में भगवान गणपति की मूर्ति बैठी मुद्रा में स्थापित है। उनकी सूंड बाएं हाथ की ओर है। उनका स्वरूप चतुर्भुजाधारी का बना हुआ है। इस प्रतिमा में उन्हें तीन नेत्रों वाला भी दिखाया गया है। क्यों पड़ा मयूरेश्वर नाम- मान्यता है कि भगवान गणेश ने इसी स्थान पर सिंधुरासुर राक्षस का वध किया था। सिंधुरासुर बहुत ही भयानक राक्षस था, उसके आतंक से ऋषि-मुनियों से लेकर देवता तक सहमे हुए थे। मान्यता है भगवान गणेश ने मयूर पर सवार होकर सिंधुरासुर से युद्ध कर उसका वध किया था। इसलिए इस मंदिर का नाम भी मयूरेश्वर पड़ा।

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