
रामचरित मानस का छठा सोपान लंकाकाण्ड प्रभु श्रीराम की समर विजय के साथ समाप्त होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने युद्ध के वर्णन में उसी तरह की भाषा का प्रयोग किया जो हिन्दी की रसधारा के अनुकूल है। समर के दौरान कई शिक्षाएं भी दीं जो आज के समय में भी प्रासंगिक हैं जैसे पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे। आजकल विशेष रूप से राजनेता जनता को तरह-तरह से उपदेश देते हैं लेकिन इनका वे स्वयं कितना पालन करते हैं यह तब पता चलता है जब उनके घर पर आयकर विभाग और सीबीआई का छापा पड़ता है अथवा पुलिस उन्हें पकड़कर जेल में बंद कर देती है। गोस्वामी तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम की रावण के साथ युद्ध लीला का वर्णन किया और कहा कि समर में श्री रघुवीर की विजय की लीला को जो भी सुनेंगे उन्हें विजय, मान, ज्ञान और ऐश्वर्य प्राप्त होगा। यही इस प्रसंग में बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम पुष्पक विमान से सीता जी को पृथ्वी के दृश्य दिखा रहे हैं-
तीरथ पति पुनि देखु प्रयागा, निरखत जन्म कोटि अध भागा।
देखु परम पावनि पुनि बेनी, हरनि सोक हरिलोक निसेनी।
पुनि देखि अवधपुरी अति पावनि, त्रिविध ताप भव रोग नसावनि।
सीता सहित अवध कहुं कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम।
प्रभु श्रीराम पुष्पक विमान पर बैठे हुए सीता जी से कहते हैं कि तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्मों के पाप भाग जाते हैं, फिर परम पवित्र त्रिवेणी जी के दर्शन करो, जो शोकों को हरने वाली और श्री हरि के परम धाम तक पहुंचने के लिए सीढ़ी के समान है। उन्होंने कहा अब अत्यंत पवित्र अवधपुरी के दर्शन करो जो तीनों प्रकार के तापों और भव (संसार में आवागमन) रोग का नाश करने वाली है यह कहकर प्रभु श्रीराम ने सीता सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर श्रीराम जी बार-बार हर्षित हो रहे हैं।
पुनि प्रभु आइ त्रिवेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित विप्रन्ह कहुं दान विविध विधि दीन्ह।
प्रभु हनुमंतहिं कहा बुझाई,
धरि बटु रूप अवध पुर जाई।
भरतहिं कुसल हमारि सुनाएहु, समाचार लै तुम्ह चलि आएहु।
तुरत पवनसुत गवनत भयउ, तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ।
नाना विधि मुनि पूजा कीन्ही, अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही।
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी, चढ़ि विमान प्रभु चले बहोरी।
अवधपुरी के दर्शन कर प्रभु श्रीराम पुष्पक विमान से पुनः तीर्थराज प्रयाग आए और त्रिवेणी में हर्षित होकर स्नान किया। उन्होंने वानरों के साथ ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से दान दिया। इसके बाद प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को समझाकर कहा-तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण कर अयोध्या जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना। पवन पुत्र हनुमान जी तुरंत ही चल दिये तब प्रभु श्रीराम मुनि भरद्वाज जी के पास गये। मुनि ने परमपिता जानकर उनकी अनेक प्रकार से पूजा की स्तुति करने के बाद लीला की दृष्टि से मुनि के रूप में आशीर्वाद दिया। भरद्वाज मुनि को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके उनके चरणों की वंदना करके प्रभु विमान पर चढ़कर फिर आगे चले।
इहां निषाद सुना प्रभु आए, नाव नाव कहं लोग बोलाए।
सुरसरि नाघि जान तब आयो, उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो।
तब सीता पूजी सुरसरी, बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी।
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा, सुंदरि तब अहिवात अभंगा।
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल, आयउ निकट परम सुख संकुल।
प्रभुहिं सहित बिलोकि बैदेही, परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही।
प्रीति परम बिलोकि रघुराई, हरषि उठाइ लियो उर लाई।
भरद्वाज ऋषि के आश्रम से प्रभु श्रीराम विमान से श्रृंगवेरपुर पहुंचे। निषादराज ने जब सुना कि प्रभु आ गए हैं तो उसने लोगों को पुकार-पुकार कर कहा कि अरे नाव कहां है-नाव कहां है। प्रभु को जल्दी गंगा के पार लाना है। इतने में ही विमान गंगा को लांघकर आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह गंगा के किनारे पर उतरा। सीता जी ने तब बहुत प्रकार से गंगा जी की पूजा की और उनके चरणों पर गिर पड़ीं। गंगा जी ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि हे सुन्दरी, तुम्हारा सुहाग अटल हो। भगवान श्रीराम के गंगा तट पर उतरने की बात सुनते ही निषाद रजा गुह प्रेम में विह्वल होकर दौड़ा। परम प्रेम और सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया और जानकी जी सहित प्रभु को देखकर वह आनंद की समाधि में मग्न होकर पृथ्वी पर गिर गया उसे शरीर की सुधि नहीं। रघुनाथ जी ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया।
लियो हृदय लाइ कृपा निधान सुजान राय रमापती।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर वीनती।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि विरंचि संकर सेव्य जे।
सुखधाम पूरन काम रामनमामि राम नमामि ते।
सब भांति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मति मंद तुलसीदास सो प्रभु मोहबस बिसराइयो।
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादि हर विग्यान कर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा।
सज्जनों के राजा शिरोमणि, लक्ष्मी के पति, कृपा निधान भगवान ने निषाद राज को हृदय से लगा लिया और अत्यंत निकट बैठाकर उसकी कुशल क्षेम पूंछी। वह विनती करने लगा-निषाद राज ने कहा, आपके जो चरण कमल ब्रह्माजी और शंकर जी से सेवित है, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूं। हे सुख के धाम, हे सभी कामनाओं से परिपूर्ण श्रीराम जी मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे भगवान आपने सब प्रकार से नीच मेरे जैसे निषाद को भरत जी की भांति हृदय से लगा लिया। तुलसीदास जी कहते हैं कि इस मंदबुद्धि ने मोहवश उस प्रभु को भुला दिया। रावण के शत्रु (प्रभु श्रीराम) का यह चरित्र सदा ही श्रीराम के चरणों में प्रीति उत्पन्न करने वाला है। यह काम आदि विकारों को दूर करके भगवान के स्वरूप का विशेष ज्ञान उत्पन्न करने वाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनंदित होकर इसे गाते हैं।
समर विजय रघुवीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
विजय, विवेक विभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु विचार।
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो सज्जन श्री रघुनाथ जी की समर विजय रूपी लीलाओं को सुनते हैं उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। अरे मन, विचार करके देख, यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथ जी के नाम को छोड़कर, पापों से बचने के लिए दूसरा कोई भी आधार नहीं है।
प्रभु श्रीराम जी रावण वध करके गंगा तट आने की लीला का वर्णन करने के साथ कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्रीराम चरित मानस का छठा सोपान लंकाकाण्ड समाप्त होता है। -क्रमशः (हिफी)