अध्यात्म

हनुमान जी ही संभाल सकते अपना तेज

 

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

 

एक बार भीम देवलोक जा रहे थे, तब हनुमान जी ने उनकी परीक्षा ली। भीम हनुमान जी के पैरों पर गिर पड़े, हनुमान जी ने वही रूप दिखाया जो अशोक वाटिका मंे दिखाया था। भीम थर-थर कांपने लगे, तब हनुमान जी ने अपना तेज स्वयं संभाला। इसी प्रसंग को रोचक ढंग से यहां बताया गया है।
सब सुख लहै तुम्हरी सरना।
तुम रच्छक काहू को डरना।।
अर्थ-जो आपकी शरण में आते हैं वही वास्तविक सुख का अनुभव करते हैं। जिसके आप रक्षक हों वह सदा अभय रहता है।
भावार्थ-जब पाण्डव वनवास गए तो काम्यवन में पाँचों भाई और द्रौपदी शोकमग्न हो वार्तालाप कर रहे थे। ‘हम सब श्रीकृष्ण के भक्त हैं। उन्हीं के द्वारा रक्षित हैं। पता नहीं किस पाप का उदय हुआ है कि भगवान् कृष्ण का हाथ होते हुए भी हम सब दर-दर भटक रहे हैं।’ इस प्रकार भगवान् को याद कर रहे थे। उसी समय भगवान् प्रकट हो गए। तब भगवान् कृष्ण ने कहा-‘तुम पर दुःख क्यों आया है उसका कारण बताता हूँ।’
‘‘प्रद्युम्न के जन्म लेते ही समरासुर नामक राक्षस उसको उठाकर ले गया। रुक्मिणी विलाप करने लगी कि ‘लड़का कहाँ गया है, उसकी खोज करो।’ तब मैंने दुर्वासाजी का स्तवन किया और उनके द्वारा उपदेश दिलवाया। दुर्वासाजी ने हनुमानजी का मन्त्र और उनकी पूजा का विधान बताया। तब से रुक्मिणी हनुमानजी की नित्य पूजा करती थी। एक बार द्रौपदी द्वारिका में आई थी। उसने भी रुक्मिणी से पूजा विधान ले लिया। इस पूजन के प्रभाव से ही तुम्हें इन्द्रप्रस्थ का राज्य मिला, शत्रु पर विजय प्राप्त हुई और संसार में यश मिला। यह अर्जुन महान् घमण्डी है। इसी के दोषों से यह दण्ड मिला। अर्जुन ने पूछा-‘‘मैंने कौन-सा पाप किया है?’’ भगवान कृष्ण कहने लगे- ‘‘एक बार द्रौपदी पूजन कर रही थीं अचानक अर्जुन आ गया। उसने पूछा-‘यह किसका पूजन कर रही हो?’ उसने कहा-‘पवन-पुत्र हनुमानजी का।’ अर्जुन ने उसी समय पूजन का सामान बाहर फेंकवा दिया और कहा-‘रामावतार के वानरों का पूजन क्यों करती हो? मैं बहुत वीर हूँ, मेरी पूजा करो।’ द्रौपदी प्रसन्न हो गई क्योंकि उसका स्नेह अर्जुन के साथ था। पूजन में तेरह गाँठों वाला एक सूत का धागा रखा जाता था। वही बारह साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास तुमको मिला। यदि अभी भी नहीं क्षमा याचना करोगे तो फिर बारह साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास भोगना पड़ेगा।’’
अर्जुन का घमण्ड चूर-चूर हो गया। वह भगवान् के चरणों में गिर गया और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की- ‘हमारी रक्षा करो।’ भगवान कृष्ण ने हनुमानजी का आह्वान किया। वह वहाँ आ गए। भगवान कृष्ण से कहा-‘‘महाराज, कैसे याद किया?’’ भगवान् कृष्ण ने कहा-‘‘इन दीन-दुःखी जीवों पर दया करो और रक्षा करो। तुच्छ प्राणियों पर इतना
क्रोध नहीं होना चाहिए। यह आपकी कृपा के पात्र हैं। आपको पता है कि महाभारत के युद्ध के निमित अर्जुन हैं। इसकी रक्षा करना आपका कर्तव्य है। क्योंकि यह सब कार्य देवताओं का ही है।’’ तब हनुमानजी ने कहा-‘‘जैसा आप कहोगे वैसा करूँगा।’’ भगवान् कृष्ण ने कहा-‘‘आप अर्जुन ध्वजा पर विराजमान होकर ही रक्षा करना।’’ भला हनुमानजी की शरण में आने पर कौन ऐसा जीव है जिसका दुःख दूर न हुआ हो। हनुमानजी की कृपा से महान सुख की प्राप्ति हो सकती है। चाहे ऐहिक हो चाहे पारलौकिक।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक से काँपे।।
अर्थ-आपकी साधारण गर्जना से भी तीनों लोक काँप उठते हैं। साधारण जीव की तो बात ही क्या है! इसलिए आप अपने तेज को स्वयं शान्त रखें।।
भावार्थ-देवलोक को जाते समय भीमसेन का हनुमानजी से मिलाप हुआ। दयावश हनुमानजी ने वृद्ध वानर का रूप धारण करके रास्ते मंे भीमसेन को रोका। भीम ने कहा-‘‘अरे बन्दर! उठ जा यहाँ से, नहीं तो तुझे पूँछ पकड़कर फेंक दूँगा।’’ वानर ने कहा-‘‘मैं बीमार हूँ, वृद्ध हूँ, चलने में असमर्थ हूँ, तू मुझे लाँघ जा या पूँछ पकड़कर जरा इधर कर दे। जैसी तेरी रुचि हो वैसा ही कर।’’ भीमसेन ने कहा-‘‘मैं आत्मा को लाँघना नहीं चाहता क्योंकि सबके हृदय में परमात्मा का वास है। यदि मैं ईश्वर की मर्यादा को लाँघना चाहूँ तो मैं भी अपने भाई हनुमान की तरह बड़े-बड़े समुद्रों, पर्वतों को लाँघ सकता हूँ।’’ वृद्ध वानर ने कहा-‘‘भाई, मैं तो अब चल नहीं सकता हूँ। मेरी पूँछ पकड़कर मुझे रास्ते से अलग कर दो और चला जा।’’ तब गुस्से में आकर भीमसेन ने उनकी पूँछ पकड़कर फेंकने की कोशिश की। उसका उठाना तो बहुत मुश्किल था, वह तिल भर भी नहीं हिली। भीमसेन कहने लगा-‘‘इस द्वापर के अन्त में न तो मेरे जैसा कोई विकट स्वरूप है, न बल है, और न मेरे तेज को कोई सहन कर सकता है, हो न हो आप पवन-पुत्र हनुमानजी तो नहीं हैं?’’ तब हनुमानजी खड़े हो गए। कहने लगे-‘‘वत्स, तुम अकेले देवलोक में जा रहे थे। वहाँ सब मायावी लोग रहते हैं। वे तेरे को छल बल से मार देंगे। इसलिए मैंने तेरी राह को रोका है।’’ भीमसेन चरणों में गिर गए। भीमसेन के प्यार भरे हठ को देखकर हनुमान ने कहा-‘‘पुत्र! घबराना नहीं, तेरा कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।’’ ऐसा कहकर लंका में जाते समय का रूप प्रकट किया। वृक्ष, पर्वत, चट्टानें सब गिरने लग गए, शेर-चीते सब भागने लग गए। उस रूप के बढ़ने से बड़ी भयंकर आवाज होने लग गई। इस दृश्य को देखकर भीमसेन थर-थर काँपने लग गया। जिस भीमसेन को अपने बल और शरीर का घमण्ड था वह श्री हनुमानजी के पैर के आधे अंगुष्ठ के बराबर हो गया। वह हनुमानजी के तेज और विकट रूप को देखने में असमर्थ ही रहा। तब हनुमानजी ने भीमसेन के सिर पर हाथ रखा और बोले-‘‘पुत्र! घबरा मत। मेरी कृपा से तुम जीवित हो। मैं सदा तुम्हारी रक्षा करता रहूँगा। युद्ध में तुम्हारी गर्जना के साथ मैं अपनी थोड़ी-सी किलकारी करूँगा ताकि युद्ध में शत्रु को मारने में तुम्हें श्रम नहीं लगेगा।’’ ऐसा कहकर सूक्ष्म और सुन्दर रूप धारण कर भीमसेन को गले लगा लिया। श्री हनुमानजी ने उपदेश देते हुए भीमसेन से कहा-सर्वशक्तिमान होते हुए भी मैं मर्यादा में रहता हूँ। कलियुग में तो में केवल मनुष्य रूप में ही दर्शन देता हूँ। यदि इस रूप का दर्शन करें तो वैसे ही भस्म हो जावें। तुमने भी मनुष्य योनि में जन्म लिया है। देवताओं की मर्यादा रखो और देवलोक में न जाओ। उनको मर्यादापूर्वक सम्मानित करो।’’ (हिफी)-क्रमशः
(साभार-स्वामी जी श्री प्रेम भिक्षु महाराज)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button