अध्यात्म

पुनि आए जहं मुनि सरभंगा

 

प्रभु श्रीराम भाई लक्ष्मण और सीता जी के साथ चित्रकूट का वन छोड़कर जा रहे हैं। महामुनि अत्रि उनकी तारीफ करते हैं रास्ते में विराध असुर मिलता है जिसका प्रभु श्रीराम ने वध किया। श्राप वश वह राक्षस बना था, इसलिए उसे दुखी देखकर अपने परम धाम को भेज दिया। इसके बाद प्रभु श्रीराम शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचते हैं। शरभंग मुनि अपनी तपस्या और व्रत आदि प्रभु को समर्पित करके आत्मदाह कर लेते हैं। इस प्रसंग में यही कथा बतायी गयी है। अभी तो अत्रि मुनि श्रीराम को विदा कर रहे हैं-
अब जानी मैं श्री चतुराई, भजी तुम्हहि सब देव बिहाई।
जेहि समान अतिसय नहिं कोई, ता कर सील कस न अस होई।
केहि विधि कहौं जाहु अब स्वामी, कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी।
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा, लोचन जल बह पुलक सरीरा।
तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए।
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावईं।
रघुवीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावईं।
कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल।
कठिन कालमल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर।
महामुनि अत्रि कहते हैं कि अब मैंने लक्ष्मी जी की चतुराई को समझा, जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आपको ही क्यों भजा अर्थात् पूजा की। इसका कारण है कि आपके समान सब बातों में अत्यन्त बड़ा और कोई नहीं है और उस व्यक्ति का शील भला ऐसा क्यों न होगा। अत्रि जी कहते हैं कि मैं किस प्रकार कहंू कि हे स्वामी आप अब जाइए। हे नाथ, आप अन्तरयामी हैं, आप ही यह कह सकते हैं। ऐसा कहकर धैर्यवान मुनि श्रीराम की तरफ देखने लगे। मुनि के नेत्रों से जल बह रहा है और शरीर पुलकित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि अत्रि मुनि प्रेम से अत्यन्त पूर्ण हैं उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों को श्रीराम जी के मुख कमल की ओर लगाये हुए हैं। वे मन में विचार रहे हैं कि मैंने ऐसे कौन से जप-तप किये थे, जिसके कारण मन, ज्ञान और युग व इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाये। जप-जोग और धर्म समूह से मनुष्य अनुपम भक्ति को पाता है। श्री रघुवीर के पवित्र चरित्र को तुलसीदास रात दिन गाता है।
श्री रामचन्द्र जी का सुन्दर यश कलियुग के पापों का नाश करने वाला, मन को दमित करने वाला ओर सुखों का मूल है, जो लोग आदरपूर्वक सुनते हैं उन पर श्रीरामजी प्रसन्न रहते हैं। यह कठिन कलिकाल पापों का खजाना है। इसमें न धर्म है, न ज्ञान है और न योग तथा जप है। इसमें तो जो लोग सभी भरोसों को छोड़कर श्रीरामजी को ही भजते हैं, वे ही चतुर हैं।
मुनि पद कमल नाइ कर सीसा, चले बनहि सुरनर मुनि ईसा।
आगे राम अनुज पुनि पाछें, मुनिवर वेष बने अति काछें।
उभय बीच श्री सोहइ कैसी, ब्रह्म जीव बिच माया जैसी।
सरिता वन गिरि अवधट घाटा, पति पहिचानि देहिं बरबाटा।
जहं जहं जाहिं देव रघुराया, करहिं मेघ तहं तहं नभ छाया।
मिला असुर विराध मग जाता, आवतहीं रघुवीर निपाता।
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा, देखि दुखी निज धाम पठावा।
पुनि आए जहं मुनि सरभंगा, सुंदर अनुज जानकी संगा।
देखि राम मुख पंकज, मुनिवर लोचन भ्रंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग।
अत्रि मुनि को प्रणाम करके देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्रीरामजी दूसरे वन को प्रस्थान कर गये। आगे-आगे श्रीराम चल रहे हैं और पीछे लक्ष्मण जी। दोनों ही मुनियों का सुन्दर वेश बनाये हैं। दोनों भाइयों के बीच में जानकी जी इस तरह सुशोभित हो रही हैं जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया चल रही हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियां सभी अपने स्वामी को पहचान कर सुन्दर रास्ता दे देते हैं, जहां-जहां देव रघुनाथ जी जाते हैं, वहां-वहां बादल आकाश में छाया करते जाते हैं। रास्ते में जाते हुए विराध राक्षस मिला। सामने आते ही श्री रघुनाथ जी ने उसका वध कर दिया। श्रीराम के हाथों मृत्यु प्राप्त करने पर उसने दिव्य स्वरूप प्राप्त कर लिया। दुखी देखकर प्रभु ने उसे अपने परमधाम भेज दिया। इसके बाद श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वहां आए जहां मुनि शरभंग जी का आश्रम था। श्रीराम चन्द्र जी का मुख कमल देखकर मुनि श्रेष्ठ के मन रूपी भौंरा अत्यन्त आदर पूर्वक उसका रसपान करने लगा। शरभंग जी का जन्म धन्य है।
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला, संकर मानस राजमराला।
जात रहेउं विरंचि के धामा, सुनेउं श्रवन बन ऐंहहिं रामा।
चितवत पंथ रहेउं दिन राती, अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती।
नाथ सकल साधन मैं हीना, कीन्ही कृपा जानि जन दीना।
सो कछु देव न मोहि निहोरा, निज पन राखेउ जनमन चोरा।
तब लगि रहहु दीन हित लागी, जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा, प्रभु कहं देइ भगति बर लीन्हा।
एहि विधि सर रचि मुनि सरभंगा, बैठे हृदयं छाड़ि सब संगा।
सीता अनुज समेत प्रभु नील जल्द तनु स्याम।
मम हियं बसहु निरंतर सगुन रूप श्रीराम।
शरभंग जी ने कहा, हे कृपालु रघुबीर, हे शंकर जी के मन रूपी मान-सरोवर के राजहंस। सुनिए, मैं ब्रह्म लोक को जा रहा था, इतने में कानों में सुनाई पड़ा कि श्रीराम जी वन में आएंगे, तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूं, अब आज प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गयी। हे नाथ मैं सब साधनों से हीन हूं। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है। हे देव, यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नहीं है। हे भक्त मनचोर। ऐसा करके आपने अपने प्रण की ही रक्षा की है। अब इस दीन के कल्याण के लिए तब तक यहां ठहरिए, जब तक मैं शरीर छोड़कर आपसे न मिलूं। ऐसा कहकर मुनि ने अपना योग, यज्ञ, जप, तप और व्रत आदि सब प्रभु को समर्पण करके बदले में भक्ति का वरदान ले लिया। इस प्रकार दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके मुनि ने चिता बनायी और हृदय से सभी चाहतें (आसक्ति) छोड़कर चिता पर बैठ गये। उन्होंने कहा हे नीले मेघ के समान शरीर वाले, सगुण रूप श्रीरामजी, सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मण जी समेत आप निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए।
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा, राम कृपा बैकुंठ सिधारा।
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ, प्रथमहि भेद भगति बर लयऊ।
रिषि निकाय मुनिवर गति देखी, सुखी भए निज हृदय विसेषी।
अस्तुति करहि सकल मुनि वृंदा, जयति प्रनत हित करुना कंदा।
शरभंग मुनि ने ऐसा कहते हुए योग की आग से अपना शरीर जला दिया और श्रीराम की कृपा से वे बैकुण्ठ को चले गये। मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए क्योंकि उन्होंने पहले ही भेद भक्ति का वरदान ले लिया था। वहां मौजूद मुनि वृन्द (मुनियों के समूह) ने शरभंग जी की यह दुर्लभ गति देखकर अपने हृदय में सुख पाया। सभी मुनि प्रभु श्रीराम की स्तुति कर रहे हैं। वे कहते हैं शरणागत का कल्याण करने वाले, करुणा के मूल प्रभु की जय हो। -क्रमशः (हिफी)

 

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