अध्यात्म

राम का नाम ‘परशुराम

भगवान परशुराम

 

परशुराम महर्षि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका के पुत्र थे। उनका जन्म असाधारण परिस्थितियों में हुआ था। उनके परदादा गाधि बड़े लोकप्रिय शासक थे। समस्त प्रजानन उनसे प्रसन्न रहते थे और उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे, ‘‘हमारा सौभाग्य है कि हमारे महाराज जैसे पराक्रमी हैं, वैसे ही दयालु भी हैं।’’
‘‘हां, इनके शासन में हमें किसी का भय नहीं है।’’ कुछ ऐसे ही विचार थे प्रजाजनों के महाराज गाधि के प्रति।
गाधि के कोई पुत्र न था, केवल एक पुत्री थी, जिसका नाम था-सत्यवती।
एक बार महर्षि भृगु ऋचीक ने सत्यवी को देखा और वह उसके रूप पर मोहित हो गए। ऋचीक ने निश्चय कर लिया कि वे सत्यवती के साथ ही विवाह करेंगे।
वे सत्यवती के पिता के पास पहुंचे और आपका परिचय देकर कहा, ‘‘महाराज! मैं आपकी पुत्री के साथ विवाह करने का इच्छुक हूं।’’
‘‘यह आपकी कृपा है, ऋषिवर। परंतु आपको एक हजार भूरे घोड़े पहले भंेट करने होंगे। यह हमारे कुल की परंपरा है। बताइए, दे सकेंगे इतने घोड़े?’’ महाराज गाधि ने कहा।
‘‘बस इतनी-सी बात है? इसमें कोई कठिनाई नहीं होगी। मैं इतने घोड़ों का प्रबंध कर दूंगा।’’ ऋचीक ने स्वीकार कर लिया। उन्होंने महाराज गाधि की शर्त पूरी कर दी और सत्यवती के साथ विवाह कर लिया।
एक दिन उनके पिता भृगु अपने पुत्र और पुत्रवधू से मिलने ऋचीक और उनकी पत्नी ने बड़े स्नेहपूर्वक उनका आदर-सत्कार किया। भृगु की दोनों ने भरपूर सेवा की। इससे भृगु उनसे बहुत प्रसन्न हुए। वे बोले, ‘‘बहू! मैं तुम्हारी कर्तव्यनिष्ठा से और आज्ञाकारिता से बहुत प्रसन्न हूं। मांगो, आज मैं तुम्हें मुंहमांगा वर दूंगा।’
‘‘पिता जी! मुझे एक पुत्र और एक भाई प्रदान कीजिए।’’ सत्यवती हाथ जोड़कर बोली।
‘‘तुम्हें दोनों की प्राप्ति होगी।’’ भृगु ने उसे वर दे दिया। फिर सत्यवती को एक ओर ले जाकर कहा ‘‘ये चावल और दुग्ध से बनी खीर के दो पात्र हैं। ये तुम्हारे निमित्त हैं। छोटे वाला पात्र तुम्हारे लिए और बड़ा पात्र तुम्हारी माता के लिए।’’
भृगु के जाने के बाद सत्यवती दोनों पात्र लेकर अपने पति के साथ अपनी माता के यहां गई। वहां पहुंचकर उसने दोनों पात्र मां को देकर कहा, ‘‘मां! ये पवित्र खीर के दो पात्र हैं जिन दोनों से हम दोनों को पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति होगी।’’
‘‘बेटी! ऋचीक से तुम्हारा विवाह होने से हम दोनों का भाग्योदय हुआ है।’’ मां ने हर्षित स्वर में कहा। परंतु माता ने सत्यवती के हिस्से में आया अपनी माता वाला खीर का पात्र।
महर्षि भृगु अपने तपोबल से यह अदला-बदली जान गए। उन्होंने सत्यवती के पास पहुंचकर कहा, ‘‘बेटी! तुमने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। अब तुम्हारी माता की कोख से जन्म लेने वाला क्षत्रिय संन्यासी बनेगा और तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होते हुए भी पराक्रमी होगा।’’
सत्यवती को यह सुनकर बहुत दुख हुआ, उसने भृगु से विनती की, ‘‘पूज्यवर! मेरा पौत्र चाहे वीर-धर्मा बने परंतु पुत्र ऐसा नहीं होना चाहिए।
भृगु उसे अनुनय से पसीज गए, ‘‘ठीक है बहू। ऐसा ही होगा।’’ उन्होंने कहा।
यथा समय सत्यवती ने पुत्र को जम्न दिया। दोनों पति-पत्नी ने उसका नाम रखा-जमदग्नि। जमदग्नि को बचपन से ही विद्याभ्यास में रुचि थी। शीघ्र ही उन्होंने वेदों का अध्ययन पूरा कर लिया। फिर उन्होंने रेणुका से विवाह किया और गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हो गए। उस युग में अधिकांश क्षत्रीय कुकर्मी हो गए थे और धरती माता के लिए भार-स्वरूप हो रहे थे। उनमें से सबसे नीच था-कार्तवीर्य अर्जुन। हैहय वंश के इस शासक के हजार भुजाएं थीं। कार्तवीर्य अर्जुन जब अपने अजेय सुनहरे रथ में बैठकर नगर में निकलता था तो स्त्री-पुरुष और बालक सभी भय से कांप उठते थे। भागो-भागो, कार्तवीर्य आ रहा है। ऐसा कहते हुए वे वहां से भाग निकलते। वह अपने सैनिक भीड़ पर छोड़ देता जो उनसे कीमती चीजंे छीन लेते और जो बचतीं उन्हें आग में जला देते।
एक दिन सहसा कार्तवीर्य को एक विचार आया, मत्र्यलोक के इन दुर्बल मनुष्यों पर अपनी शक्ति क्यों नष्ट करूं। क्यों न देवताओं के राजा इंद्र की नगरी में चला जाए। कार्तवीर्य एक बड़ी-सी सेना लेकर इंद्रपुरी जा पहुंचा। वह इंद्र के उस निजी उद्यान में घुस गया जहां इंद्र अपनी पत्नी शचि के साथ विश्राम कर रहा था। उसे अनाधिकार प्रवेश करते देख इंद्र भड़क उठा। गुस्से से बोला’ ‘‘अर्जुनफ! तुमने अति कर दी है। अब तुम्हारा अंत समय आ गया है। मैं जाकर भगवान विष्णु से विनती करूंगा।’’
ऋषि-मुनि भी कार्तवीर्य अर्जुन के अत्याचारों से दुखी थ। अर्जुन के अत्याचारों से दुखी होकर वे भी भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। उन्होंने भगवान विष्णु से विनती की, ‘‘हे प्रभु! समस्त धरती कार्तवीर्य अर्जुन के अत्याचारों से कांप रही है। भले लोगों का जीना दूभर हो गया है। हमारी विनती स्वीकार करो और कार्तवीर्य अर्जुन के अत्याचारों से हमें मुक्ति दिलाओ।’’
श्रीहरि ने उन्हें धैर्य बंधाया और बोले, ‘‘आप लोग धैर्य रखिए। मैं शीघ्र ही उसे अत्याचारों का अंत करूंगा।’’
ऋषि-मुन वहां से विदा हुए तो इंद्र उनके पास पहुंच गए। ‘‘प्रभु! कार्तवीर्य अर्जुन की कुदृष्टि अब इंद्रपुरी पर लगी है। उसका नाश कीजिए।’’
श्रीहरि बोले, ‘‘मैं सब जानता हूं, देवराज। मैं बहुत शीघ्र अतुल पराक्रमी ब्राह्मण के रूप में पृथ्वी पर जन्म लंूगा और उस आततायी का वध करूंगा।’’
देवराज इंद्र भगवान विष्णु से ऐसा आश्वासन पाकर वापस लौट गए।
समय बीतने के साथ जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र पैदा हुए। वास्तव में विष्णु ने अपने वचन का पालन करके के लिए उनके पांचवें पुत्र ‘राम’ के रूप में जन्म लिया था। राम की रुचि बचपन से ही व्यायाम करने और शस्त्र विद्या में थी। वह नियमित रूप से मल्ल विद्या का अभ्यास करता और अस्त्र-शस्त्र चलाने का अभ्यास भी किया करता था। राम धीरे-धीरे युवावस्था में जा पहुंचा। एक दिन ऋषि जमदग्नि के पास पहुंचकर राम ने कहा, ‘‘पिताजी! मैं गंधमादन पर्वत पर जाकर भगवान शिव की तपस्या करना चाहता हूं। मेरी इच्छा उनसे वरदान प्राप्त करने की है।’’
‘‘अवश्य जाओ पुत्र! मैं तुम्हंे आशीर्वाद देता हूं।’’ जमदग्नि ने सहर्ष आज्ञा दे दी।
राम गंधमादन पर्वत पर पहुंचे और भगवान शिव की कठोर तपस्या करने लगे। अंत में भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए। कहा, ‘‘मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, पुत्र। बता तेरी इच्छा क्या है?’’
‘‘मेरी इच्छा परशु नामक आग्नये कुल्हाड़ी प्राप्त करने की है, भगवान।’’ राम ने कहा।
‘‘तू उसका अधिकारी है, अतः ये ले परशु। अब संसार का कोई भी वीर तुझे पराजित न कर सकेगा।’’ कहते हुए शिव ने उन्हें अपना परशु प्रदान कर दिया। उसी दिन से राम का नाम ‘परशुराम’ हो गया।
कुल्हाड़ी प्राप्त करके परशुराम अपने पिता के आश्रम में लौट आए। महर्षि जमदग्नि उन्हें देखकर बहुत हर्षित हुए! बोले, ‘‘तेरे आने से मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं, पुत्र। अब मुझे तेरा एक काम पूरा करना होगा।’’
‘‘कौन-सा काम, पिता जी।’’
‘‘अपनी माता की हत्या। उसने पाप किया है।’’ जमदग्नि कुपित स्वर में बोले।
‘‘आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है, पिताजी, आप जो भी आदेश देंगे, मैं अवश्य पूरा करूंगा।’’
‘‘तूने आदेश माना, ये मेरे लिए खुशी की बात है। पुत्र लेकिन तेरे भाइयों ने मेरी बात नहीं मानी मैंने उन्हें पागल हो जाने का शाप दे दिया है।’’ परशुराम अपनी माता के पास पहुंचे। मन ही मन में माता को नमन किया, फिर अपनी कुल्हाड़ी के एक ही वार से उनकी गरदन काट दी। जमदिग्न प्रसन्न हो गए। बोले, ‘‘तेरी इस निष्ठा से मैं बहुत प्रसन्न हंू, पुत्र! तू जो चाहे, मुझसे मांग ले, मैं तुझे वही दे दूंगा।’’
परशुराम तो जैसे इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे, झट से बोल उठे, ‘‘तब तो आप मेरी माता को पुनर्जीवित कर दीजिए और उनसे पहले जैसा ही प्रेममय व्यवहार कीजिए। मेरे भाइयों को भी पागलपन के शाप से मुक्त कीजिए और मुझे अमर कर दीजिए।’
‘‘तथास्तु’’ जमदग्नि ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें वर प्रदान कर दिया।
कार्तवीर्य अर्जुन के अत्याचारों में कोई कमी नहीं आई थी। एक दिन जब वह समुद्र तट पर घूम रहा था तो अभिमान में भरकर सागर में तीर मारने लगा। सागर से एक वाणी ने उसे रोका, ‘‘मेरे जल में बसने वाले जीवों का विनाश मत करो, युवक। उन्हें जीवित रहने दो। मैं तुम्हारी हर बात मानने को तैयार हूं।’’
‘‘तो पहले मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो। संसार में है कोई ऐसा वीर, जो मेरी बराबरी कर सके।’’
‘‘है। जमदग्नि का पुत्र परशुराम तुमसे बढ़-चढ़कर है।’’
कार्तवीय अर्जुन क्रोध से आग-बबूला हो उठा। उसने अपने पुत्रों को बुलवाया और कहा, ‘‘सुना है कि जमदग्नि पुत्र परशुराम मुझसे श्रेष्ठ नहीं तो बराबरी का अवश्य है। चलो, चलकर इस सच्चाई को परखते हैं।’’
कार्तवीर्य अर्जुन अपने पुत्रों के साथ महर्षि जमदग्नि के आश्रम में पहुंचा। जमदग्नि की पत्नी रेणुका उस समय अपनी गाय को चारा खिला रही थीं। कार्तवीर्य अर्जुन ने जाते ही देवी रेणुका से पूछा, ‘‘तुम्हारा पुत्र परशुराम कहां है?’’
‘‘वह अभी यहां नहीं है।’’ रेणुका बोली आप हमारे अतिथि हैं, थोड़ी देर विश्राम कर लीजिए, परशुराम भी तब लौट आएगा।’’
‘‘वह तो हम करेंगे ही।’’ कार्तवीर्य अर्जुन गाय की ओर देखता हुआ बोला, ‘‘यह गाय का बछड़ा बहुत सुंदर है।’’
‘‘हमारी ‘होम’ की गाय है। ‘होम’ की इस गाय का दूध यज्ञ और पूजा आदि में काम आता है।’’ रेणुका ने कहा।
अर्जुन के पुत्र उसी रात उस बछड़े को चुराकर भाग गए। प्रातःकाल जब महर्षि जमदग्नि अपनी कुटिया से बाहर निकले तो गाय को बछड़े के वियोग में जोर-जोर से रंभाते सुना। इससे महष्रि को कार्तवीर्य अर्जुन और उसके पुत्रों को अपने अतिथि बनाने का खेद होने लगा और वे गाय के गले से लगकर फूट-फूटकर रोने लगे। इतने में वहां परशुराम पहुंच गए। उन्होंने गाय को रंभाते देखा तो पिता से पूछा ‘‘पिताजी, हमारी गाय को क्या हुआ है? वह इतनी दुखी क्यों है? इसका बझड़ा कहां है?’’
जमदग्नि ने सारी बातें उन्हें बताई तो परशुराम क्रोध से भड़क उठे। परशुराम ऊपर उठाकर उन्होंने कहा ‘‘उस दुष्ट की हिम्मत अब इतनी बढ़ गई कि अब वह ऋषि-मुनियों की चीजों पर भी हाथ मारने लगा है। मैं अभी जाता हूं उसके पास और उसे मारकर बछड़ा लेकर आऊंगा।’’
क्रोध में भभकते हुए परशुराम उसी समय कार्तवीर्य अर्जुन के महल की ओर चल पड़े। असहाय बछड़े को उसे आंगन में बंधा देख उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। वे धड़धड़ाते हुए कार्तवीर्य अर्जुन के शयनकक्ष में घुस गए।
दोनों के बीच द्वंद्व युद्ध छिड़ गया। परशुराम ने कार्तवीर्य की एक-एक करके अपनी कुल्हाड़ी से उसकी हजार भुजाएं काट डालीं और उसे मौत के घाट उतार दिया। फिर उन्होंने बड़े स्नहे से बछड़े को अपनी बांहों में उठाया और उसे अपने कंधों पर बैठाकर अपने पिता के आश्रम को चल पड़े।
आश्रम में पहुंचकर उन्होंने अपने पिता से कहा, ‘‘पिताजी! हमारे भोले-भाले बछड़े को चुरा ले जाने वाले नीच को मैंने मार डाला।’’ फिर वे गाय के पास गए, कंधे से बछड़ा उतारकर गाय से बोले, ‘‘गऊ माता! मैं तेरा बछड़ा वापस ले आया हूं।’’
कुछ क्षणोपरांत पिता ने कहा, ‘‘पुत्र परशुराम! जलाने की लकड़ी खत्म हो गई है।’’
‘‘चिंता न कीजिए पिता जी।’’ परशुराम बोले, ‘‘मैं अभी वन में जाकर लकड़ी काट लाता हूं।
उधर कार्तवीर्य अर्जुन के यहां शोक का वातावरण था। कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्र कह रहे थे, ‘‘बहुत दुख की बात है, हमारे पिता मारे गए और गाय का बछड़ा भी चला गया।’’
‘‘ये काम परशुराम ने किया है। उसके अतिरिक्त और कोई हमारे पिता की हत्या नहीं कर सकता।’’ दूसरे ने कहा।
‘‘हम उससे जरूर बदला लेंगे। चलो, उस हत्यारे को खोजें।’’ वे पांचों रथों पर चढ़कर जमदग्नि के आश्रम की ओर चल पड़े। जिस समय वे जमदग्नि के आश्रम में पहुंचे, जमदग्नि समाधि में बैठे थे लेकिन परशुराम कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे।
‘‘परशुराम तो कहीं नजर नहीं आता।’’ उनमें से एक ने कहा।
‘‘तो चलो, उसके पिता को ही मार डालें।’’
‘‘बिलकुल ठीक कहा तुमने? दूसरा बोला, ‘‘बेटा न सही, बाप सही। उसने भी तो हमारे पिता की हत्या की है।’’ दूसरे ने कहा।
बस, फिर क्या था, समाधिस्थ बैठे जमदग्नि पर उन्होंने तीरों की वर्षा कर दी और उन्हें मरता हुआ छोड़कर चले गए।
उनके जाने के कुछ देर बाद परशुराम लौटे तो पिता के कराहने की आवाज सुनाई दी। यह देख उन्होंने लकड़ी का गटठर वहीं फंेका और दोड़कर पिता के पास पहुंचे और शोकाकुल स्वर में बोले, ‘‘हा पिताजी। मेरे कारण अर्जुन के नीचे पुत्रों ने असहाय हरिण की भांति वाणों से आपकी हत्या कर दी है।’’ फिर उनकी आंखें क्रोध से जल उठीं, ‘‘मुझे मेरे आराध्य देव की सौगंध। मैं आपकी हत्या का बदला उनसे जरूर लूंगा।’’
परशुराम ने पिता का दाह-संस्कार किया और फिर परशु उठाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने निकल पड़े। सबसे पहले उन्होंने कार्तवीर्य अर्जुन के पांचों पुत्रों का वध, फिर एक-एक करके सभी क्षत्रियों का काम तमाम कर दिया। परंतुु एक ओर जहां वे कुछ क्षत्रियों को मारते थे तो दूसरी ओर उनकी और संतानें हो जाती थीं। कभी-कभी वे सोचने लगते, 6जब तक एक भी क्षत्रिय जीवित है, मैं यों ही उन्हें मारता रहूंगा। मुझे तो पिता जी ने अमरत्व प्रदान कर दिया है।’ इस प्रकार परशुराम ने धीरे-धीरे क्षत्रियों की इक्कसी पीढ़ियां समाप्त कर दी। खेद की बात यह थी कि विवेकहीन होकर वे दुष्टों के साथ सज्जन क्षत्रियों को भी मारे डाल रहे थे। उनके सामने जब कोई असहाय क्षत्रिय उन्हें प्राण बख्शने की प्रार्थना करता तो वे उसकी एक न सुनते और कहते, ‘‘तुम्हारे ही एक जाति भाई ने मेरे पिता को असहाय अवस्था में मारा था, अतः तुम्हें मरना ही पड़ेगा।’’
परिणाम यह हुआ कि पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई शूरवीर न रहा। क्षत्रियों के परिजन, गुरुजन विलाप करने लगे, ‘‘हाय, हमारे महाराज मारे गए, अब कोई हमारा रखवाला नहीं। हाय कैसे निर्मोही हो गए हैं परशुराम। उन्हें विधवा नारियों की भी कोई परवाह नहीं।’’
अब परशुराम के उपद्रवों की अति हो गई धरती माता सोचने लगी, मैं महर्षि कश्यप के पास जाकर अपनी विपदा बताऊंगी।’ धरती महर्षि कश्यप के पास पहुंची, ‘‘हे ऋषिवर! परशुराम का प्रयोजन पूरा हो गया है। मेरा भार भी उतर चुका है। अब उन्हें रोक दो।’’
‘‘ठीक है। मैं उनके पूर्वजों की आत्माओं से विनती करूंगा।’’ महर्षि कश्यप बोले।
महर्षि कश्यप ने अपने योगबल से ऋचीक की आत्मा का आवाह्न किया। उन्होंने ़ऋचीक की माता से कहा, ‘‘महर्षि! परशुराम का कार्य संपन्न हो गया है, अब उन्हें रोकना चाहिए।’’
‘‘अच्छी बात है। वह अपने पूर्वजों की आज्ञा का पालन करेगा।’’ ऋचीक ने अपनी आत पूरी की।
उधर, धरती पर परशुराम ने क्षत्रियों की बाईसवीं पीढ़ी के एक राजा पर अपनी कुल्हाड़ी उठाई। वे बोले, ‘‘जब तक मेरी प्रतिज्ञा पूरी नहीं होगी, मेरे मन को शाति नहीं मिलेगी। परशुराम उसे मारने ही वाले थे कि ऋचीक की आत्मा बोल उठी, ‘‘ठहरो राम! बस करो, बहुत हो चुका। तुमने सैकड़ों बार अपने पिता की हत्या का बदला ले लिया है। धरती माता दुष्ट क्षत्रियों के भार से मुक्त हो चुकी है। तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया। अब बदले की भावना का त्याग कर दो।’’
परशुराम ने अपना परशु फेंक दिया और ऋचीक की आत्मा को नमन कर बोले, ‘‘मुझे अपने पूर्वजों पर विश्वास है और उनकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। आप जैसा कहते हैं, वैसा ही मैं करूंगा।’’
उसके बाद परशुराम ने फिर एक यज्ञ किया और अपनी सारी संपत्ति ब्राह्मणों को दान कर दी। जब वे अपना सब-कुछ दान कर चुके तो भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण उनके पास पहुंचे और बोले, ‘‘मैं आपसे शास्त्रास्त्र तथा उनके रहस्य प्राप्त करना चाहता हूं।’’
‘‘मुझे खेद है विप्रवर।’’ परशुराम बोले, ‘‘आप देस आए। अब तो मेरे पास केवल मेरा शरीर और अस्त्र-शस्त्र ही बचे हैं। इनमें से जो भी आप चाहें, ले जा सकते हैं।’’
परशुराम ने अपने अस्त्र-शस्त्र द्रोण को दे दिए तथा उनके रहस्य व उपयोग भी सिखाए। इस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों के उपयोग में द्रोण अद्वितीय हो गए। इस प्रकार परशुराम संसार से मुक्त होकर कठोर तपस्या करने महेंद्र पर्वत पर चले गए।
परशुराम अरब सागर से लेकर पश्चिमी घाट तक के भूभाग के संरक्षक देवता माने जाते हैं। इस क्षेत्र के वासियों की यह मान्यता है कि यह भूमि परशुराम ने अपनी सशक्त कुल्हाड़ी के बल पर समुद्र से प्राप्त की थी। (हिफी)

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