अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

द्वितीयं-ब्रह्मचारिणी

नवरात्र पर विशेष

 

(हिन्दुस्तान समाचार-फीचर)

‘दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।’

दुर्गा का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी मां का है। इनकी पूजा नवरात्र के दूसरे दिन की जाती है। कठिन तपस्या करके शिवजी को पति के रूप में प्राप्त करने वाली है। ब्रह्मचारिणी दुर्गा की पूजा करने से जप-तप त्याग और सदाचार में वृद्धि होती है। वहां ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ तपस्या से है। वेद, तत्व और तप ‘ब्रह्म’ के अर्थ है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी या यूं कहें कि तप का आचरण करने वाली इनके दाहिने हाथ में जप की माला और बांये हाथ में कमंडल रहता है। ऐसा कहा जाता है कि जब यह अपने पूर्व जन्म में हिमालय के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब नारद के उपदेश से भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये इन्होंने एक हजार वर्ष तक केवल फल-फूल खाकर व्यतीत किये थे। इसके बाद सौ वर्षों तक केवल साक पर निर्वाह किया था। कठिन व्रत-उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के कष्ट भी सहे। इसके बाद तीन हजार वर्षों तक जमीन पर गिरे हुये बेलपत्रों को खाकर भगवान शंकर की आराधना की थी। इसके बाद उन्होंने बेलपत्र भी खाना छोड़ दिया और निर्जल और निराहार रहकर हजारों वर्षों तक तपस्या करती रही। उनकी इस तपस्या से तीनों लोक थर्रा उठे। अतः ब्रह्माजी ने आकाशवाणी द्वारा प्रसन्न मुद्रा में उनसे कहा-हे देवी! आज तक किसी ने भी ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी। भगवान शिव जी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ। मां द्वितीय ब्रह्मचारिणी की स्तुति एवं आराधना जो भक्त श्रद्धा पूर्वक करता है, उसकी सारी मनोकामनायें पूरी होती हैं। वह सदा सुखी रहता है। इनके अतिरिक्त देवी मां की पूजा करने से व्यक्ति में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। (हिफी)

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