निष्काम ही कर्मयोग है

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
गीता अध्यात्म की अनूठी थाती है। इसमें भारतीय दर्शन के ब्रह्म-प्राप्ति तथा कर्म के आदर्शों का व्यावहारिक पक्ष सम्यक् और बोधगम्य रूप में समाहित है। भारत ही नहीं अपितु सारे जगत के लिऐ इसमें अमर संदेश हैं। गीता मंे समन्वयात्मक मार्गों का निर्धारण किया गया है। यह मोक्ष-प्राप्ति के किसी मार्ग का तिरस्कार न करके प्रत्येक पथ से गीता के कर्मयोग को सम्पृक्त करती है। गीता का मूल प्रतिपाद्य कर्मयोग ही है। इसमें समत्व का ही नाम योग बताया गया है। योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात कर्मों में कुशलता को ही योग कहते हैं।
अपने समग्र कार्यों, इच्छाओं और स्वयं को अहंकार रहित होकर परमेश्वर को लाना ही ज्ञानमार्ग का अनुसरण है। ज्ञान से एकनिष्ठ होना गीता का परम उद्देश्य है। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमहि विद्यते, तात्पर्य, ज्ञान से श्रेष्ठ पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है। भक्तों में ईश्वर को ज्ञानी-भक्ति सर्वाधिक प्रिय है। गीता की प्रथम मान्यता है कि सभी कर्मों का त्याग असंभव है। थोड़ी देर के लिए भी कोई बिना कर्म किये जीवन का संरक्षण असंभव है। निष्ठावान कर्मयोगी के लिए कृष्ण ने जो सर्वोच्च स्थान निर्धारित किया उससे गीता के कर्मरत मार्ग की फलप्राप्ति का ज्ञान होता है। इसे कर्मनिष्ठा का मूलमंत्र कहा जाता है।
गीता उपनिषदों का सार होने के कारण ब्रह्म-विद्या है। ब्रह्मतत्व का जिस साधन से साक्षात्कार किया जाता है, उस योग की गीता में दृष्टि है। गीता प्रवृत्ति प्रधान और निवृत्ति प्रधान शास्त्र भी है। गीता के कर्मयोगानुसार मानव में जीव के अस्तित्व तक संकल्प के बिना कर्मरत होना चाहिए। इसके अलावा ईश्वर साक्षात्कार हेतु अन्य दूसरा श्रेष्ठ साधन नहीं है। यही गीता की सर्वांगीण और महान दृष्टि है। कर्म-पथ पर अग्रसर होने वाले मनुष्य के मन से अपने पराये की भावना मूलतः विनष्ट हो जाती है। गीता में मोक्ष प्राप्ति के लिए दो प्रकार के उपाय बताये गये हैं-प्रथम ज्ञान अथवा कर्म-सन्यास द्वारा और द्वितीय कर्मयोग या निष्काम कर्म द्वारा। इनमें द्वितीय अधिक श्रेष्ठ है। गीता में वर्णित है कि काम्य कर्म का अनुष्ठान करने मात्र से मोक्ष नहीं मिलता, वह निष्काम कर्म करने से प्राप्त होता है। यही निष्काम कर्म यज्ञ नाम से प्रसिद्ध है।
गीता का यही कर्मपथ अत्यंत सार्वभौम है। इससे उपदेष्टा भी मुक्त नहीं रहता बल्कि जुड़ा रहता है। यह कर्माचरण स्वयं के लिए तो मोक्षदायक है ही दूसरों के लिए भी मंगलकारी है। इसके द्वारा लोकसंग्रह और लोककल्याण होता है। व्यक्ति का गुण ही उसका स्वभाव है। उसी के द्वारा मानव के कर्तव्य का निर्णय होता है। इसी स्वभाव या गुण के अनुसार गीता में प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निर्धारित है। मात्र मनुष्य ही नहीं अपिुत ईश्वर भी कर्म करता है। सब कुछ करते हुए भी ईश्वर किसी कर्म में आसक्ति नहीं रखता। कर्म के लिए किया गया कर्म ही वास्तविक कर्म है। यह ही निष्काम कर्मयोग है।
कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग का गीता मंजुल समन्वय भी है। कर्म के साथ जुड़ी भक्ति भावना साधक के जीवन को अधिक रसमय और रोचक बना देती है। परमपद वाले को अपने कर्मों के फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। कर्म और भक्ति के बिना ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। बिना पराशक्ति के ज्ञान भी नहीं मिल पाता। अनासक्त भाव से कर्म किये बिना भक्ति की प्राप्ति भी नहीं होती। अतः तीनों का अत्यंत अभिन्न संबंध है। गीता में तीन प्रकार के तत्वों का समावेश मिलता है क्षर, अक्षर और पुरूषोत्तम। जगत के सारे जड़ पदार्थ ‘क्षर’ हैं। यही अवश्त्थ, अधिभूत, क्षेत्र और अपरा प्रकृति नाम से भी प्रसिद्ध है। कारणों का, विकारों का और भूतों का यह मूल कारण है। आकाश आदि पांच भौतिक परमाणु और पांच तन्यत्राएं विकार हैं। मन, अहंकार, बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां करण कहलाती हैं। इनके अतिरिक्त इनमें उत्पन्न राग-द्वेष, सुख-दुख, परमाणु का संद्यात, चेतना और घृति-ये क्ष्ज्ञर हैं। इनमें से पृथ्वी, जल, तेल, आकाश, मनस, बद्धि और अहंकार ये आठ भगवान की अपरा प्रकृति के रूप हैं। अक्षर तत्व को जीवन पराप्रकृति अध्यात्मा पुरूष और क्षेत्रज्ञ भी कहते हैं। यह अपरा प्रकृति से उच्चकोटि की है। यह ही जगत को धारण करती है। केवल अविद्या के कारण यह तत्व भगवान से भिन्न दिखाई पड़ता है। गीता में माया ईश्वर की दैवी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। यह सदा ईश्वर के साथ रहती है। माया दृश्य जगत की अधिष्ठात्री है। गीता की मौलिक विवेक दृष्टि सर्वथा अनूठी लगती है। मानव-मानव को जोड़ती है।
गीता कल्पतरू है जिसकी शीतल छाया में आने से समग्र दैहिक, दैविक और भौतिक ताप मिट जाते हैं। सभी के लिए सर्वकालीन और सार्वदेशिक है। गीता। सिद्ध हो जाने पर स्वयं में ही डूबे रहने की अपेक्षा लोकसंग्रह के लिए अनवरत कर्म करते रहने का उपदेश इसमें है। निष्काम कर्म करते-करते पूर्ण निष्कामता की भावना आ जाती है। संपूर्ण वैदिक और उपनिषद तत्वों का मन्थन करके गीता निष्कामता का नवनीत देती है जिससे दिव्यदृष्टि और दिव्य जीवन प्राप्त होता है और अमृतत्व मिलता है। स्थित प्रज्ञ होने की स्थिति में लोकसंग्रह के लिए नियत कर्म करते रहना अधिक श्रेयस्कर बताती है। निष्कार्य कर्म करने के लिए शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता होती है, साथ ही परिष्कृत हृदय की भी। मानव जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म इस प्रकार से जुड़े हैं कि उन्हें परस्पर दूर कर पाना कठिन होता है। यह जीवन को अजस्र स्रोत देती है।
आशावादी-दर्शन से अनुप्राणित गीता के अनुसार मन का निग्रह करना बहुत सहज नहीं है। अभ्यास और वैराग्य से इस पर नियंत्रण संभव है। हृदयस्पर्शिनी दृष्टि और लोकदृष्टि की यह संवाहक है। साधक को उपदेश ही नहीं देती वरन कठिनाइयों से सहानुभूति भी प्रकट करती है। वेदान्त की तरह गीता माया को अविद्या-स्वरूपा नहीं कहती। मानव मूल्यों से तादात्म्य करके जीवन को गतिमान करती है। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है-‘यदि कदाचित असावधानीवश मैं कार्म का अनुसरण न करूँ तो हे अर्जुन सब प्रकार के मनुष्य मेरे आचरण का अनुकरण करने लगेगे और कर्मच्युत होने से मेरी गणना वर्णसंकरों में की जायेगी और मैं सारी प्रजा का विनाशक बन जाऊंगा। लौकिक-पारलौकिक ज्ञानप्राप्ति के मार्गदर्शक चैबीस गुरूओं का उल्लेख जीवन को संजीवनी प्रदायक है। पृथ्वी से धैर्य, क्षमा, वायु से जीवन-निर्वहन की संतुष्टि, आकाश से अखण्डता, जल से स्वभाव, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हिरन, मत्स्य, पिंगला, वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुंवारी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट चैबीस गुरू के रूप में हैं। गीता शाश्वत चिन्तन की अमूल्य जीवनधारा मानवता की संवाहक है। (हिफी)