
देवलोक के शिल्पकार विश्वकर्मा की एक पुत्री थी। उसका नाम था-संज्ञा। वह दिन भर तपती धूप में खेला करती थी। सूर्य की तेज किरणों का जैसे उस पर कोई असर ही नहीं होता था। संज्ञा जब बड़ी र्हु तो एक दिन विश्वकर्मा और उसकी पत्नी ने संज्ञा को बड़े मुग्ध भाव से सूर्य को निहारते देखा। यह देख विश्वकर्मा बोले, देवी! ऐसा लगता है हमारी बेटी सूर्य पर मोहित हो गयी है। देख रही हो, कितने मुग्ध भाव से सूर्य की ओर ताके जा रही है।
मुझे भी ऐसा ही लगता है, स्वामी! विश्वकर्मा की पत्नी ने कहा।
सूर्य के सौंदर्य के प्रति संज्ञा का आकर्षण उसकी आयु के साथ बढ़ता ही गया। एक दिन विश्वकर्मा उसे अपने साथ हाथी पर बैठाकर सैर को निकले। अपनी पुत्री को सूर्य की ओर निहारते देख उन्होंने पूछ लिया, बेटी! अब तुम छोटी नहीं रहीं। सोचता हूं जल्दी ही तुम्हारा विवाह कर दूं। बताओ, किस देव को तुम चाहती हो।’
पिता जी, आकाश में सूर्य से बढ़कर कोई तेजस्वी नहीं है। संज्ञा ने उत्तर दिया। ठीक है हम सूर्य के साथ ही तुम्हारा विवाह कराए देते हैं। विश्वकर्मा बोले और अपनी पुत्री को लेकर सूर्य के पास पहुंचे। उन्होंने अपनी पुत्री की इच्छा सूर्यदेव को बताई तो उन्होंने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। बोले आपकी पुत्री मेरे साथ विवाह करना चाहती है यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। पर इससे यह तो पूछ लो कि क्या यह मेरा ताप सहन भी कर पाएगी?
विश्वकर्मा संज्ञा को एक ओर ले गए और उससे पूछा सूर्यदेव का उत्तर तुमने सुन लिया बेटी। अब बताओ, सहन कर लोगी हर ऋतु में उनका ताप।
हां पिता जी! संज्ञा ने बड़े विश्वास के साथ कहा। कुछ ही दिन बाद संज्ञा का विवाह सूर्यदेव के साथ हो गया। संज्ञान सूर्यदेव के साथ उनके लोग चली गई। पति के साथ संज्ञा के दिन सुखपूर्वक बीतने लगे। फिर उनके यहां एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम रखा गया-मनु। अनेक ऋषि-मुनि बालक को आशीर्वाद देने आए।
यह बालक ज्ञानियों मंे भी ज्ञानी होगा। ऋषियों ने भविष्यवाणी की। आशीर्वाद सच निकला। जब वह कुछ बड़ा हुआ तो ऋुषि-मुनियों से शिक्षा ग्रहण करने लगा।
सूर्य देव और संज्ञा को अपने बेटे पर गर्व था। वे बहुत ही प्रेम से अपने बेटे का लालन-पालन करते थे। अचानक एक बार ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो गईं। उनका तेज अपनी चरम सीमा पर जा पहुंचा। संज्ञा की चमड़ी झुलसने लगी। सूर्यदेव ने उसे अपने पास बुलाया तो वह अपनी आंखों पर हाथ रखकर उनके पास पहुंची। सूर्यदेव बोले, संज्ञा मेरी ओर देखो। तुमने अपनी आंखें क्यों ढक ली हैं। नेत्र खोलो और मेरी ओर देखो। मैं तुम्हारा पति हूं।
स्वामी! आपके ताप से मेरी आंखें खुल नहीं पा रहीं। संज्ञा ने कहा। इसका अर्थ तो हुआ कि तुम मुझे अपने से दूर कर रही हो। विवाह के पूर्व मैंने तुमने पूछा भी था कि क्या मेरा ताप सहन कर पाओगी? तुम्हारी सहमति पाकर ही मैंने तुम्हारे साथ विवाह करना स्वीकार किया था लेकिन अब तुम अपने वचन से मुकर रही हो। सूर्यदेव ने कुछ क्रोधित होते हुए कहा।
स्वामी! इसमें मेरा कोई दोष नहीं। संज्ञा बोली आपका ताप ही इतना प्रखर है कि…। सूर्यदेव और भी कुपित हो उठे। बोले सुनो संज्ञा। प्राणवान वसतुओं को जीवित रखने वाला मैं ही हूं, परंतु तुमने मेरी ओर से आंखंे बंद कर लीं अतः तुम्हारे गर्भ से जो बालक उत्पन्न होगा वह यम होगा। यम अर्थात मृत्यु का देवता।
संज्ञा वहां से भाग जाना चाहती थी लेकिन बच्चों का मोह उसे विवश किए हुए था। संज्ञा की एक सहचरी थी उकसा नाम था छाया। जो हुबहू संज्ञा की ही प्रतिलिपि थी। उसने इस विषय में छाया से मदद लेने का निश्चय किया। उसने छाया को बुलाया और अपनी समस्या बताई। सुनकर छाया बोली, मुझे क्या करना होगा?
तुम संज्ञा बनकर मेरे पति के पास जाओ और उनकी पत्नी और मेरे बच्चों की मां बनकर वहीं रहो। संज्ञा ने कहा। उन्होंने मुझसे पूछताछ की तो? तो कहना मैं संज्ञा हूं। भेद मत खोलना। यह सब मैं करूंगी लेकिन मेरी एक शर्त है सूर्यदेव कभी मुझ पर बिगड़े या शाप देने लगे तो मैं सारा भेद खोल दूंगी। छाया ने कहा। ठीक है छाया। अब जाओ और मेरे बच्चों को संभालों। तुमने मुझे बहुत ही कठिन का सौंपा है संज्ञा। फिर भी मैं भरसक प्रयत्न करूंगी। छाया बोली और वहां से चली गई।
उसके जाने के बाद संज्ञा सोचने लगी, मैं मायके जाती हूं। मां और पिता जी मुझे देखकर प्रसन्न होंगे। मैं कुछ समय वहां रहूंगी। परंतु पिता जी कहंेगे स्त्री की शोभा पति के घर रहने में ही है। ऐसे ही विचारों में उलझी वह मायके चल पड़ी। रास्ते में उसे मस्तिष्क में उलझने टकराने लगीं। वह सोचन लगी पिता जी जब मुझे लौट जाने को कहेंगे तब मैं जंगल में चली जाऊंगी। संज्ञा अपने मायके पहुंची। पिता ने उसका बड़ा सत्कार किया। बोले आओ बेटी सब कुशलमंगल तो है?
नहीं पिता जी। आपने ठीक ही कहा था। ग्रीष्म ऋतु में मैं सूर्यदेव का ताप सहन न कर सकीं। संज्ञा कुछ दिन वहां सुख से रही। एक दिन पिता ने उससे कहा संज्ञा तुम्हारे आने से मुझे बड़ा हर्ष हुआ है। परंतु विवाह हो जाने के बाद स्त्री को मायके में अधिक समय तक नहीं रहना चाहिए। अब तुम अपने पति के घर जाओ। फिर कभी हमसे मिलने आना। तुम मुझे प्यारी हो किंतु पति का घर ही स्त्री का घर होता है।
यही मैंने सोचा था। संज्ञा मन ही मन बोली और एक रात चुपचाप पिता का घर छोड़कर जंगल में चली गयी। वह सोचने लगी मैं सूर्य के सामने नहीं जा सकती, अतः घोड़ी बन जाती हूं। उस रूप में मुझे कोई पहचान नहीं पाएगा।
घोड़ी का रूप धारण कर संज्ञा तपस्या करने लगी सूर्य के ताप की शक्ति को कम करने के लिए। उधर छाया ने सूर्य के यहां जाकर संज्ञा का स्थान ले लिया था। सूर्यदेव ने उसे संज्ञा ही समझा वे बोले तुम लौट आई मेरे यहां।
क्षमा कर दो स्वामी। मैंने अपनी दुर्बलता को जीत लिया है। छाया खेद भरे स्वर मंे बोली। संज्ञा मैं तो कब का तुम्हंे क्षमा कर चुका। अब घर की जिम्मेदारी संभालो। बच्चों का लालन-पालन करो। सूर्यदेव ने कहा।
छाया ने कक्ष मंे लेटे दोनों बच्चों पर निगाह डाली और घर की जिम्मेदारियां संभाल लीं। छाया इस घर में सुखी थी। वह प्रायः सोचा करती बेचारी संज्ञा। कितना अच्छा घर त्यागना पड़ा उसे। क्या वह कभी नहीं लौटेगी। समय पाकर छाया को एक पुत्र हुआ। पुत्र पैदा होने के बाद वह कुछ चिंतित रहने लगी मुझे यह नहीं भूलना चाहिए कि मंैं संज्ञा की छाया ही हूं। छाया ने एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया। अब छाया का व्यवहार बदलने लगा। वह अपने बच्चों से तो प्यार करती थी लेकिन संज्ञा के बच्चों को ताड़ने और उनके साथ दुव्र्यवहार करने लगी। मनु ने तो विमाता के व्यवहार को नजरंजदाज कर दिया लेकिन यम को उसका व्यवहार खटकता रहा। माता छाया का यमुना बहन के साथ ऐसा व्यवहार करना उचित नहीं। वह अपने बच्चों के साथ तो कितना अच्छा व्यवहार करती है हम भाई-बहन से नफरत।
एक दिन तो हद ही हो गई। छाया ने यमुना के बाल पकड़े और उसे डंडे से पीटते हुए बाली कंबख्तो। मरते भी तो नहीं। मर जाएं तो मेरा पीछा छूटे। जब छाया देर तक यमुना को पीटती रही तो यम से न रहा गया उसने जाकर छाया का हाथ पकड़ लिया और गुस्से से बोला बस माता! अब तुमने यमुना पर हाथ उठाया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।
अच्छा तेरी यह हिम्मत। मुझे धमकी देता है। ठहर आज मैं तेरे पिता से इसकी शिकायत करूंगी। छाया क्रोध से सिहर उठी। छाया ने तो इस डर से सूर्यदेव से शिकायत न की कि कहीं उसका भेद उजागर न हो जाए लेकिन यम और यमुना ने तंग आकर अपने पिता से उसकी शिकायत अवश्य कर दी पिता जी यह स्त्री हमारी मां नहीं है। यम ने कहा!
हां पिता जी पुत्र माता से विमुख हो सकता है परंतु माता की ममता कभी कम नहीं होती यमुना भी बोल उठी। मैं देख लूंगा तुम जाओ डरो नहीं सब ठीक हो जाएगा। ऐसा कहकर सूर्यदेव ने बच्चों को धैर्य बंधाया लेकिन बच्चों के जाते ही वे सोच में पड़ गए।
बच्चे ठीक कहते हैं यह अवश्य कोई मायाविनी है। सूर्यदेव गुस्से में भरकर छाया के पास पहुंचे और उसके केश पकड़कर झकझोरते हुए बोले सच बताओ तुम कौन हो? अन्यथा मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा। ठहरिए स्वामी भय से कांपती छाया बोली, म…मैं संज्ञा की छाया हूं। वह आपकी देखभाल का भार किसी को सोंपे बिना नहीं जाना चाहती थी इसलिए उसने मुझे आपक ेपास भेज दिया। वह कहां गई सूर्यदेव ने पूछा। अपने पिता के यहां। सूर्यदेव सीधे विश्वकर्मा के पास पहुंचे और उनसे पूछा संज्ञा कहां है? वह तुम्हारे तेज से बचने के लिए यहां आई थी। विश्वकर्मा ने बताया। अब वह कहां है? मैंने ध्यान करके पता किया है कि उसने घोड़ी का रूप ले लिया है। वह जंगल में घूमती रहती है और तुम्हारे तेज को घटाने के लिए तपस्या कर रही है। विश्वकर्मा ने बतायाज्ञ। तो आप मेरा तेज घटा दीजिए। फिर उसे खोजने के लिए चलते हैं। सूर्यदेव बोले। विश्वकर्मा ने सूर्यदेव के तेज का आठवां भाग छांट दिया जिससे उनका तेज घट गया। फिर वे संज्ञा को खोजने निकले। उन्होंने राहगीरों से पूछताछ की तुमने इधर कोई घोड़ी देखी है। हां एक विलक्षण घोड़ी को हमने नदी के पास विचरण करते देखा है। राहगीरों ने बताया। उसमें विलक्षण क्या बात है। वह घोड़ी मानवी भाषा में बोलती है देव। तब तो वह अवश्य ही संज्ञा होगी। सूर्यदेव बोले।
सूर्य घोड़ी के निकट पहुंचे और कहा संज्ञा मंै सूर्य हंू तुम्हारा पति। अब यह घोड़ी का रूप त्याग दो। जब तक मेरी मनोकामना पूरी न होगी तैं यह रूप नहीं त्यागूंगी। घोड़ी बनी संज्ञा ने उत्तर दिया। तुम्हारी मनोकामना तो पूरी भी हो गई। सूर्य ने कहा। सूर्येदेव ठीक कहते हैं बेटी विश्कर्मा बोले, मैंने इनके तेज का आठवां भाग काट दिया है। पिता से आश्वासन पाकर संज्ञा ने अपना घोड़ी वाला रूप त्याग दिया और अपने स्वाभाविक रूप में आ गई। वह हर्ष और विभोर से अपने पिता से लिपट गई और फूट-फूटकर रोने लगी। फिर उसने झुककर सूर्यदेव के पांव छुए और पूछा स्वामी हमारे बच्चे तो सकुशल हैं न?
हां दोनों बच्चे ठीक हैं। मनु, यम और यमुना को अब फिर से मां मिल जाएगी। सूर्यदेव ने मुस्कराकर कहा। मंै अब कभी भी अपना घर त्याग कर नहीं जाऊंगी। संज्ञा बोली आप छाया को क्षमा कर देना और अपने साथ ही रखना। दोनों का मिलन देखकर विश्वकर्मा ने भी अपना आशीर्वाद प्रदान किया जाओ और सदा सुख-शांति से रहो। सूर्यदेव और संज्ञा सूर्यलोक पहुंचे और छाया और बच्चों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। (हिफी)