अध्यात्मप्रेरणास्पद लघुकथा 

कथा स्यमंतक मणि की

द्वारका का राजकुमार सत्राजित सूर्यदेव का उपासक था। एक दिन जब वह अपने रथ में बैठकर जंगल से गुजर रहा था , अचानक एक तेज चमक से उसके नेत्र चौंधिया  गए, चमक से बचने के लिए उसने अपने नेत्रों पर हाथ रख लिया। तभी एक वृक्ष के पीछे एक अत्यंत तेजस्वी पुरुष निकला। उसे देखकर सत्राजित ने पूछा, ‘‘आप कौन हैं, महाराज?’’
‘‘वही, जिसकी तुम नित्य उपासना करते हो?’’ उत्तर मिला।
सत्राजित का चेहरा खुशी से खिल उठा। वह सूर्यदेव के चरणों में गिर गया, ‘‘मैं धन्य हुआ प्रभु, जो आपने मुझे दर्शन दिए।’’ उसके मुख से निकला।
सूर्यदेव ने उसे एक मणि दी बोले? ‘‘यह स्वमंतक मणि है, जो रात के समय में दिन की भांति रोशनी फेंकती है। इसे अपनी भक्ति का पुरस्कार समझकर ग्रहण करो।’’
सूर्यदेव उपहार देकर अंतर्धयान हो गए। तभी सूर्य छिप गया और रात्रि की कालिमा धरती पर उतर आई, लेकिन मणि की जगमगाहट ने उसके लौटने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
सत्राजित गले में वह जगमगाती मणि धारण किए द्वारका लौटा। उसके चेहरे पर एक अलौकिक प्रकाश था। उसे देखकर नगरवासी आश्चर्य करने लगे, ‘‘हमारे राजकुमार को क्या हो गया, इन पर अनोखा प्रकाश जगमग कर रहा है।’’
नगरवासी श्रीकृष्ण के पास पहुंचे। उन्होंने राजकुमार सत्राजित की ओर संकेत करते हुए कृष्ण से कहा, ‘‘देखिए भगवान कृष्ण। सूर्य पृथ्वी पर उतर आया है।’’
‘‘आश्चर्य मत करो, नगर वासियों,’’ श्रीकृष्ण बोले, ‘‘यह स्यमंतक मणि है जो स्वयं सूर्यदेव ने सत्राजित की भक्ति से प्रसन्न होकर इसे दी है। इस मणि में अकाल और युद्ध को रोकने की अदभुत शक्ति है।’’
उस रात्रि सत्राजित मणि पहनकर ही सोया अगले दिन प्रातः उसने देखा कि छत से स्वर्ण मुद्राएं बरस रही हैं। तब उसने मणि की मंदिर में प्रतिष्ठा की और उसकी पूजा करने लगा। वह मणि प्रतिदिन आठ भार, लगभग सौ सेर स्वर्ण मुद्राएं देती थी।
मणि के कारण राज्य में बड़ी शांति और समृद्धि आई। सारी प्रजा में सुख-शांति छा गई। प्रजानन पूर्णतः संतुष्ट हो गए।
एक दिन श्रीकृष्ण सत्राजित से मिलने आए। सत्राजित ने उनका स्वागत किया। श्रीकृष्ण बोले, ‘‘सत्राजित आजकल द्वारका में तुम्हारे सौभाग्य की बहुत चर्चा है।’’
‘‘यह सब सूर्य देव की कृपा है।’’ सत्राजित बोला।
‘‘लेकिन यह तो तुम्हारी भक्ति का पुरस्कार है। तुम्हारे पास तो बहुत सोना हो गया। अब यह मणि राजा उग्रसेन को दे दो ।’’ कृष्ण बोले।
‘‘क्यों दे दूं? मणि मुझे सूर्य देव ने दी है। मैं उसे किसी दूसरे को क्यों दे दूं?’’ सत्राजित ने कहा।
कृष्ण बोले, ‘इसलिए दे दो कि वह राजा है। उनके पास मणि सुरक्षित रहेगी।’
‘‘मेरे पास भी यह उतनी ही सुरक्षित रहेगी।’’ सत्राजित बोला, ‘‘मैं यह मणि किसी को नहीं दूंगा।’’ सत्राजित ने कृष्ण की बात नहीं मानी तो वह निराश होकर चले गए।
कुछ दिन बाद सत्राजित का भाई प्रसेन,मणि को धारण करके आखेट को गया, जाते समय सत्राजित ने उसे समझाया, ‘‘ध्यान रखना प्रसेन, मेरी मणि खोने न पाएं।’’
‘‘चिंता मत करो भैया।’’ प्रसेन बोला, ‘‘मेरी जान बेशक चली जाए, लेकिन मणि को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दूंगा।’’
जंगल में प्रसेन पेड़ पर चढ़कर जानवरों के आने की राह देखने लगा। तभी नीचे उसे एक शेर दिखाई दिया। पेड़ के ऊपर निगाह डाली तो एक अजगर मुंह फाड़े उसे निगलने के लिए उसकी ओर बढ़ता दिखाई दिया। प्रसेन घबरा गया और एकदम पेड़ से नीचे कूद गया। लेकिन नीचे शेर मौजूद था। वह तुरंत उस पर झपट पड़ा और चीर-फाड़ कर खा गया। सिंह ने वह मणि मुंह में दबाइ्र और गहन जंगल में प्रविष्ट हो गया।
उसी समय रीछों के राजा जांबवान जंगल से गुजर रहे थे, उन्होंने सिंह को मणि ले जाते देखा तो लपक कर सिंह के सामने जा पहुंचे। उन्होंने सिंह को मार डाला और स्यमंतक मणि छीन ली। मणि लेकर वह अपनी गुफा में पहुंचे और स्यमंतक मणि अपने बेटे को दे दी। उधर द्वारका में, सभी प्रसेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। सत्राजित कह रहा था, ‘‘प्रसेन अभी तक आखेट से नहीं लौटा। कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया। उसका ध्यान तत्काल कृष्ण की तरफ गया और वह सोचने लगा कि संभवतः कृष्ण ने ही मेरे भाई की हत्या कराई है, मणि हथियाने के लिए।’’
उधर, कृष्ण भी उसके व्यवहार से उसके मन की बात ताड़ गए। वे सोचने लगे कि शायद सत्राजित को मुझ पर यह संदेह हो गया है कि मैंने प्रसेन की हत्या कराई है। यह सोचकर कृष्ण अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए अपने आदमियों सहित मणि की खोज में निकल पड़े। जंगल में कुछ घंटों के प्रयास के बाद ही उन्होंने मृत प्रसेन को खोज लिया। उन्होंने लाश का निरीक्षण किया। प्रसेन की गरदन पर सिंह के दांतों के निशान उन्होंने स्पष्ट देखे। फिर उन्होंने इधर-उधर देखा और बोले, ‘‘इसे किसी सिंह ने मारा है। यह देखो उसके पद चिन्ह। मेरे पीछे आओ।’’ कुछ और आगे बढ़े तो एक जगह कुछ स्वर्ण मुद्राएं मिलीं। मुद्राएं उठाकर वे सिंह के पद चिन्हों के सहारे-सहारे आगे बढ़े और एक गुफा में जा पहुंचे। वहां उन्हें सिंह का मृतक शरीर दिखाई दिया, ‘‘अरे ये तो मर गया है।’’ कृष्ण के साथ आए एक युवक के मुख से निकला।
‘‘हां पर इसे मारा किसने?’’ दूसरे ने जिज्ञासा जाहिर की।
‘‘और मणि कौन ले गया? कृष्ण ने कहा, फिर उन्होंने अपने साथ गए आदमियों को वहीं ठहरने को कहकर कृष्ण अकेले ही गुफा में चले गए। अंदर एक विशाल बूढ़ा रीछ उन्हें दिखाई दिया जिसके हाथ मंे मणि चमक रही थी।
कृष्ण को देखकर रीछ जोर से गुर्राया, फिर पूछा, ‘‘तुम कौन हो और इस गुफा में क्यों आए हो?
उत्तर देने के स्थान पर कृष्ण ने पूछा, यह मणि तुम्हें कैसे मिली?’’ तभी रीछ का बेटा वहां आ पहुंचा और कृष्ण को देख भीत स्वर में चिल्लाने लगा।
‘‘रो मत बेटा। मैं इस अजनबी का अभी काम तमाम किए देता हूं।’’ यह कहते हुए वह तलवार लेकर कृष्ण पर टूटा।
‘‘इसका फैसला तो अभी हो जाएगा मूर्ख रीछ,’’ कृष्ण भी तलवार उठाकर बोले,:ःपर मरने से पहले अपना परिचय तो दे दे।’’
‘‘मैं जांबवान।’’ रीछों का राजा।
‘‘क्या वही जांबवान, जो राम कालीन युग में श्रीराम की ओर रावण से लड़ा था?’’ कृष्ण ने पूछा।
‘‘हां, वही। अब और बातें मत बना। मरने के लिए तैयार हो जा।’’ कहते हुए उसने कृष्ण पर तलवार चला दी, किंतु कृष्ण चैकन्ने थे, उन्होंने उसकी तलवार के वार को अपनी तलवार से रोका और तत्काल ही ऐसा वार किया कि जांबवान की तलवार दूर जा गिरी। वह निहत्था हो गया तो कृष्ण ने भी अपनी तलवार फेंक दी। दोनों में द्वंद्व युद्ध होने लगा। पहले वे हथियारों से लड़े और फिर पत्थर और चट्टानों से और जब दोनों में किसी ने भी हार न मानी तो वे वृक्ष उखाड़ कर लड़ने लगे। अचानक कृष्ण को ठोकर लगी और वे नीचे गिर पड़े। बस, इतना अवसर काफी था जाबंवान के लिए। उसने तत्काल कृष्ण की गरदन दबाच ली और गरदन पर अपना दबाव बढ़ाने लगा।
उधर गुफा के बाहर बैठे कृष्ण के साथ आए लोग जब कई दिन बीत गए और कृष्ण न लौटे, तो वे बेचैन होने लगे।
‘‘कृष्ण को गए आज बाहर दिन हो गए। वे अभी तक लौटे क्यों नहीं?’’ उनमें से एक बोला ‘‘अवश्यक ही मारे गए होंगे।’’ दूसरे ने आशंका जताई।
‘‘हम लोग थक चुके हैं, भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे हैं। चलो, वापस द्वारका लौट चलते हैं।’’
तीसरे ने कहा। इस प्रकार वे लोग द्वारका के लिए चल पड़े।
इस बीच द्वारका में कृष्ण की पत्नियां और उनके माता-पिता चिंता में डूबे हुए थे। तभी दूर उन्हें एक धूल का बादल-सा उड़ता दिखाई दिया। इससे सबके मन में आशा का संचार होने लगा कि कृष्ण लोट आए, किंतु उनकी खुशी क्षणि साबित हुई। वह धूल का बादल दरअसल उन लोगों के पैरों की धमक से उठ रहा था, जो कृष्ण के साथ प्रसेन की खोज में गए थे। उन्होंने महल में पहुंचकर कृष्ण के पिता से कहा, ‘‘महाराज, हम कृष्ण के बिना ही लौट आए। लगता है वे मारे गए।’’ उनकी बात सुन कृष्ण की पत्नियां रोने लगीं। बूढ़े माता-पिता की आंखों से भी झर-झर आंसू बहने लगे। पूरे महल में उदासी का वातावरण बन गया। उधर गुफा में, कृष्ण मरे नहीं थे। लगातार अट्ठाईस दिन तक जांबवान के साथ उनका युद्ध हुआ। अंत में जांबवान का बल घट गयां वह बोला, ‘‘तुम अजेय हो। मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूं।’’
कृष्ण ने उसे छोड़ दिया। जांबवान उठकर अपने कक्ष में गया और मणि तथा अपनी कन्या के साथ लौटा। उसने कहा, ‘‘लो यह मणि। साथ ही मेरी कन्या जांबवती के साथ विवाह करो।’’
‘‘मुझे स्वीकार है, किंतु विवाह होते ही मुझे द्वारका जाना होगा-मणि इसके स्वामी को सोंपने के लिए।’’
फिर दोनों ने जैसे ही एक-दूसरे को हार पहनाए, जाबंबवती एक सुंदर युवती में बदल गई।
कृष्ण अपनी पत्नी तथा स्यमंतक मणि को लेकर द्वारका लौटे। उन्हें सही-सलामत देखकर नगर में खुशियां फैल गईं। कृष्ण की पत्नियों ने नवविवाहिता जांबवती का खूब स्वागत-सत्कार किया। कृष्ण ने प्रतिहारी भेजकर सत्राजित को बुलावाया।
सत्राजित पहुंचा तो कृष्ण बोले, ‘‘सत्राजित। मैंने मणि खोज ली है, यह लो अपनी मणि।’’ फिर उन्होंने उसे सारी बातें बताईं तो सत्राजित बहुत शर्मिंदा हुआ।
उसने कृष्ण से कहा, ‘‘कृष्ण! ये भूल मुझसे अनजाने में हुई। अब यह मणि अपने पास ही रखो और मेरी पुत्री सत्यभामा से विवाह कर लो।’
‘‘तुम्हारी पुत्री से विवाह करने पर मुझे बहुत खुशी होगी सत्राजित। किंतु यह मणि तुम्ही रखो। हां, इससे जो सोना मिले मुझे दे देना।’’; कृष्ण ने कहा।
सत्राजित ने ऐसा ही किया। लेकिन इससे अक्रूर, कृतवर्मा और शतधन्वा, जो सत्यभामा ने विवाह करना चाहते थे, नाराज हो गए और बदला लेने की योजना बनाने लगे। अक्रूर बोला, ‘‘शतधन्वा! यह तो सरासर हमारा अपमान है।’’
‘‘हां, सत्राजित ने वचन दिया था कि सत्यभामा का विवाह वह हममें से किसी के साथ करेगा। तुम उसे मारकर मणि क्यों नहीं हथिया लेते? शतधन्वा बोला।
मणि के लोभ में दुष्ट शतधन्वा सत्राजित की हत्या करने पर उतारू हो गया। एक रात वह चोरी-छिपे सत्राजित के महल में जा घुसा और सोते हुए सत्राजित की कटार भोंक कर हत्या कर दी। उसने मणि छीनी और अपने रथ में बैठकर भाग निकला। सुबह जब सत्राजित की पत्नी ने अपने पति को मरा हुआ देखा तो वह दहाड़े मार कर रोने लगी। पिता के मरने की खबर सुनकर सत्यभामा भी वहां पहुंची और वह भी विलाप करने लगी। फिर वह इस बात की सूचना देने के लिए कृष्ण के पास पहुंची जो उन दिनों हस्तिनापुर गए हुए थे। उसने रो-रोकर सारी बात उन्हें बता दी। कृष्ण ने उसे ढाढ़स बंधाया, फिर कहा कि वह शीघ्र ही शतधन्वा को खोजकर उसे इस कुकृत्य का दंड देंगे।
उधर, हत्यारा शतधन्वा भागकर कृतवर्मा की शरण में पहुंचा। बोला, ‘‘मेरी रक्षा करो। कृष्ण के क्रोध से मुझे बचाओ।’’ लेकिन कृतवर्मा ने उसे शरण देने से स्पष्ट इनकार कर दिया। बोला, ‘‘कहीं और जाकर शरण मांगो, शतधन्वा। तुम्हारे कारण मैं कृष्ण से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता।’
शतधन्वा तब अक्रूर के पास पहुंचा। उसने भी उसे टका-सा जवाब दे दिया। इस पर शतधन्वा ने कहा, ‘‘ठीक है। यदि तुम मुझे अपने यहां शरण नहीं देना चाहते, तो मत दो। लेकिन यह मणि तुम रख लो। मैं द्वारका से भाग जाता हूं।’’
शतधन्वा भागा, किन्तु कृष्ण ने अपने भाई बलराम के साथ उसका पीछा किया और उसे मार्ग में ही जा पकड़ा, ‘‘ठहर जा हत्यारे, भागता कहां है?’’ कृष्ण ने चिल्लाकर कहा। शतधन्वा ने मुड़कर पीछे देखा तो तेजी से रथ को भगाते दोनों भाइयों पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह भय से कांप उठा और बुदबुदाया। ‘हे भगवान। ये तो कृष्ण है। अब नहीं बचूंगा।’
मिथिला के पास शतधन्वा के रथ का एक घोड़ा ठोकर खाकर गिर पड़ा, इस कारण शतधन्वा भी झटका खाकर नीचे जा गिरा। वह उठकर भागना ही चाहता था कि कृष्ण ने सुदर्शन चक्र चला दिया। शतधन्वा का सिर कटकर दूर जा गिरा। तत्काल उसके प्राण पखेरू उड़ गए। कृष्ण ने उसके शरीर की तलाशी ली किंतु मणि उसके पास नहीं मिली। कृष्ण सोच में पड़ गए, ‘मणि इसके पास नहीं है, जरूर इसने अक्रूर को दे दी होगी।’ ऐसा सोचकर वे पुनः द्वारका लौट गए।
उधर जैसे ही कृतवर्मा को शतधन्वा की मृत्यु का समाचार मिला, वह भयभीत हो गया। उसने अक्रूर को बुलाया और कहा, ‘‘सुना है, कृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है।’’
‘‘तो अब वह यहीं आएगा।’’ अक्रूर भी भय से कांपता हुआ बोला, ‘‘इससे पहले कि वह यहां तक पहुंचे, हमें यहां से भाग निकलना चाहिए और वे दोनों रथ में बैठकर वहां से भाग लिए।
कृष्ण द्वारका लौटे और विचार करने लगे, ‘मणि न मिली तो लोगों का संदेह मुझ पर बना रहेगा। अक्रूर ही मुझे इस अपयश से निजात दिला सकता है। उसी को बुलाऊं।’
लेकिन अक्रूर तो कृतवर्मा के साथ पहले ही नगर से पलायन कर चुका था। कृष्ण के गुप्तचरों ने बड़ी मुश्किल से उन्हें खोजा और कृष्ण के सम्मुख पेश किया। कृष्ण अक्रूर से बोले ‘‘मुझे मालूम है कि शतधन्वा ने मणि तुमको सौंपी थी, अक्रूर। अब वह मणि बेशक तुम अपने ही पास रख लो किंतु यह स्वीकार कर लो कि वह तुम्हारे पास है ताकि लोगों के मन में संदेह निकल जाए।’’
‘‘मणि यह रही। चाहो तो तुम ले लो, कृष्ण।’’ अक्रूर ने वह मणि निकालकर कृष्ण को दे दी। कृष्ण ने वह मणि ले ली, साथ ही यह भी कहा, ‘‘द्वारका की जनता को दिखाकर इसे तुम्हें लौटा दूंगा।’’
कृष्ण चले गए। पीछे कृतवर्मा और अक्रूर विचार करने लगे, ‘‘कृतवर्मा। यह कृष्ण तो निराला आदमी है।’’
‘‘जो कुछ यह कह रहा है, उसका कोई कारण होगा।’’ कृतवर्मा बोला।
‘‘क्यों न मैं यह विचार करूं कि मणि मुझे मिली और उसके साथ समृद्धि भी।’’ दोनों देर तक ऐसी ही कल्पनाओं में खोए रहे।
कृष्ण ने शीघ्र ही द्वारका के लोगों का संदेह दूर कर दिया और अपनी पत्नियों के साथ आनंदपूर्वक रहने लगे। (हिफी)

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