
एक बार भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मृकुंडु मुनि ने कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए। मृकंडु ने उनसे विनती की, ‘‘हे प्रभु! मुझे पुत्र प्रदान करो।’’
‘‘कैसा पुत्र चाहिए भक्त?’’ शिव ने पूछा, ‘‘ऐसा जिसकी आयु तो लंबी हो किंतु गुण कोई न हो, अथवा जो बुद्धिमान हो, गुणी हो किंतु जिसकी आयु मात्र सोलह वर्ष की हो।’’
‘‘मुझे गुणवान पुत्र चाहिए, प्रभु!’’ मुनि ने कहा।
शिव ने ‘तथास्तु’ कहा और अंतरधान हो गए।
समय आने पर मृकंडु की पत्नी मरुद्वती ने पुत्र को जन्म दिया। अनेक ऋषि-मुनियों ने आकार प्रसन्नता जताई और बच्चे को आशीर्वाद दिया। ऋुषि-मुनियों की उपस्थिति में ही मृकंडु दंपति ने बालक का नाम रखा-मार्कण्डेय।
बालक मार्कण्डेय बहुत मेधावी निकला। सोलह वर्ष की आयु से पहले ही उसने वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उनके आचार्यगण उसकी प्रशंसा करते न थकते। वे कहते, ‘‘मृकंडु! बहुत भाग्यशाली हो तुम, जो ऐसा होनहार बेटा मिला।’’ लेकिन मार्कण्डेय के भविष्य को लेकर उसकी माता बहुत चिंतित रहती। मृकंडु जब उसे समझाते तो वह रोते हुए कहती, ‘‘स्वमी! मैं भूल नहीं पाती कि शीघ्र ही हमारा बेटा हमसे हमेशा के लिए दूर हो जाएगा।’’
एक दिन की बात है। कुमार मार्कण्डेय पूजा के लिए फूल लेने वाटिका में गया हुआ था। लौटा तो उसने अपनी माता को रोते हुए देखा। समीप ही उदास भाव में उसके पिताजी बैठे हुए थे। माता को रोते हुए देख उसने पूछा, ‘‘मां! तुम रो क्यों रही हो?’’
‘‘मां कुछ न बोली, बस धीरे-धीरे सिसकियां भरती रहीं इस पर मार्कण्डेय ने पूछा ‘‘मां! तुम बोलती क्यों नहीं। बोलो मां, बोलो। कौन-सा दुख है तुम्हें? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो तुम चाहती हो वह मैं नहीं कर पाऊंगा? पर देखो मां! अब मैं बालक नहीं रहा। कल पूरे सोलह वर्ष का हो जाऊंगा।’’
‘‘तुम्हारी मां इसलिए तो रो रही है, पुत्र! ‘‘पिता धीरे से बोले।
‘‘क्यों? सोलह वर्ष का होने में क्या हानि है?’’ मार्कण्डेय ने उलझने भरे स्वर में पूछा।
पिता बोले, ‘‘बताता हूं, सुनो।’’
तब मृकंडु ने उसके जन्म से संबंधित बातें उसे बताईं। सुनकर मार्कण्डेय ने माता को धैर्य बंधाया, बोला ‘‘रोओ मत मां। मैं नहीं मरूंगा। भगवान शिव मृत्युंजय हैं। मैं उनके अमरत्व का वरदान प्राप्त करूंगा।
‘‘मेरे बच्चे। शिव की कृपा से तुम्हें सफलता मिले।’’ पिता ने आशीर्वाद दिया। मार्कण्डेय माता-पिता से आशीर्वाद लेकर वन को चले ग। जाते समय माता ने शिव से प्रार्थना की, ‘‘हे सदाशिव मृत्युंजय। मेरा पुत्र आपके आसरे है, देव। इसकी रक्षा करना।’’
अगले दिन प्रातःकाल मार्कण्डेय ने सागर तट पर जाकर गीली मिट्टी से शिवलिंग बनाया। उस पर पुष्प चढ़ाए और शिव का ध्यान लगाकर बैठ गए। रात पड़ने पर वे प्रभु के सामने नाचने और गाने लगे। तभी अचानक यमराज वहां आ पहुंचे। बोले, ‘‘तुम्हारी आयु पूरी हुई। संसार से चलने के लिए तैयार हो जाओ।’’
‘‘थोड़ी देर ठहरिए महाराज। ‘‘मार्कण्डेय बोले, ‘‘मैं जब तक अपनी उपासना पूरी कर लेता हूं।’’
‘‘मूर्ख! क्या तू जानता नहीं कि मृत्यु किसी का इंतजार नहीं करती।’’ यमराज गरजे।
‘‘कृपा कर मेरी उपासना में बाधा मत डालिए, यमराज।’’ मार्कण्डेय ने कहा, ‘‘मेरी उपासना पूरी होते ही आप मुझे अपने लोक में ले चलना।’’
‘‘मूर्ख! क्या तू समझता है कि शिव की शरण लेकर तू मुझसे बच जाएगा? तुझे अभी मालूम हो जाएगा कि काल के पाश से कोई नहीं बच सकता।’’
यमराज यम पाश फेंकने को उद्यत हुए, लेकिन तभी एक चमत्कार हुआ। एकाएक वहां शवि प्रकट हो गए। मृत्यु के स्वामी को देखकर यमराज ठिठक गए।
मार्कण्डेय शिव के चरणों में गिर गए। शिव ने उनके मन की इच्छा ताड़ ली और अमरत्व प्रदान कर दिया। आगे चलकर मार्कण्डेय को प्रलय काल में स्वयं श्री हरि ने दर्शन दिए और अपना मुख खोलकर उन्हें समूचे ब्रह्मांड के दर्शन कराए। कहा जाता है कि वे आज भी विद्यमान हैं और तीर्थों में आते-जाते रहते हैं नए-नए रूपों में। (हिफी)