अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-10) ब्रह्म से सहमत हैं पाश्चात्य दार्शनिक

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
जर्मन दार्शनिकों में सबसे बड़ा कांट है, जो दर्शन में कदम आगे बढ़ाता है। इसका मत है कि यद्यपि यह संसार केवल संस्कारों का ही संग्रह है, तथापि मन के अंदर स्वयमेव कुछ संस्कार पैदा करने की शक्ति है। उन पर बाहर से कोई भी असर नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ-देश और काल का संस्कार हमारे मन में पाया जाता है परंतु देश और काल का अस्तित्व मन से बाहर कुछ नहीं है। कांट सभी संस्कारों को मन के विभिन्न प्रकारों में बाँटता है। इसके अतिरिक्त न हम संसार को जान सकते हैं और न सांसारिक मन को, जो ब्रह्मांड के अंदर काम करता है।
हेगल अन्य तरीके के अनुसार चलता है। वह कहता है कि एक गैर-हस्ती, अर्थात् असत्य है। दूसरा उसके मुकाबले पर सत्य है। दोनों के मेल से संसार बनता है। हेगल सत्य को एक प्रकार की निरुपाधि बुद्धि समझता है, जिसका फैलाव यह समस्त संसार है।
फिश्टे का मत है कि यह संसार अहंकार से ही बनता है। शॉपनहावर, जो सांख्य और उपनिषदों के दर्शन को पर्याप्त समझता है और अपनी पुस्तकों में बार-बार उनके उद्धरण देता है, सांसारिक वासना को संसार का कारण मानता है। वह पौधों और जानवरों के उदाहरणों से सिद्ध करने का प्रयत्न करता है कि उन सबके अंदर वासना विद्यमान है, जो संसार को उत्पन्न करती है। इस वासना को नष्ट करने पर ही संसार का अंत हो जाता है।
इस बारे में भगवद्गीता क्या कहती है?
भगवद्गीता के अध्याय पंद्रह के श्लोक 164, 175 और 186 में कहा गया है कि पुरुष दो हैं- एक नाशवान् दूसरा नाश-रहित। पुरुषोत्तम और है। वह इस संसार को थामे हुए है। वह मैं हूँ। इसलिए वेदों में मुझे पुरुषोत्तम कहा गया है। अध्याय सात के श्लोक 57, 68 और 79 में यह बताया गया है-अपरा और परा प्रकृतियाँ- दोनों मेरी हैं। इन दोनों से समस्त संसार उत्पन्न होता है। इसलिए वास्तव में उसकी उत्पत्ति और विनाश मुझसे ही है। ये सब पदार्थ मेरे गिर्द ऐसे पिरोए हुए हैं जैसे माला के धागे में मनके। मुझसे अलग ये कुछ नहीं हैं।
नौ के श्लोक 41 में कहा गया है, मैं अव्यक्त हूँ। मुझसे ही यह सारा संसार फैला हुआ है। श्लोक 62 में बताया गया है, जैसे आकाश में हवा चलती है वैसे ही मुझमें सारा संसार चलता है। सांख्य की आपत्ति का उत्तर भगवद्गीता के अध्याय पाँच के श्लोक 143 व 154 में आता है, ब्रह्म इस संसार को उत्पन्न नहीं करता। यह केवल स्वभाव है, जो स्वयमेव काम करना चाहता है।
बौद्ध मतवाले आपत्ति करते हैं, क्योंकि इस संसार में केवल गुण-ही-गुण दिखाई देते हैं। इसलिए यह संसार गुणों से मिलकर बना हुआ है। गुणी को ढूँढ़ने की जरूरत ही क्या है? श्री शंकराचार्य ने इसका उत्तर दिया है-यदि ये सब गुण ही हैं तो एक स्थान में दो परस्पर विरोधी गुण, उत्पत्ति और विनाश कैसे पाए जा सकते हैं ? एक ही जगह बनने और नष्ट होने से प्रकट होता है कि गुणों के पीछे गुणों को धारण करनेवाली कोई और शक्ति है।
भगवद्गीता के अध्याय नौ के श्लोक 165 एवं 176 में भी बौद्धों की आपत्ति का उत्तर दिया गया है, वे गुण और गुणी एक ही हैं, अलग नहीं किए जा सकते। इसी प्रकार अध्याय सात के श्लोक 197 में कहा गया है, यह सब वासुदेव ही है, गुण केवल उसे प्रकट करते हैं।
एक वेदमंत्र में कहा गया है कि अग्नि, वायु, आदित्य आदि सब उसी को प्रकट करते हैं। वह एक सत्य है। बुद्धिमान लोग उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
कई अन्य वेदमंत्र हैं, जिनमें बताया गया है कि शुद्ध ब्रह्म हमारी समझ और विचार की शक्ति से बाहर है। ब्रह्म को हम उसकी रचना के द्वारा ही जान सकते हैं, जैसा कि मनुष्य को हम उसके शरीर से जानते हैं। विराट् रूप में प्रकट हुआ ब्रह्म शबल, चितकबरा रूप कहलाता है।
एक उपनिषद् में कहा गया है, ब्रह्म में इच्छा या स्फुरण हुआ कि इन जीवों में प्रवेश करके शब्द और रूप की व्याख्या करूँ। ब्रह्मांड को मनुष्य केवल नाम और रूप से जान सकता है।
भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 121 में कहा गया है, उस ब्रह्म का आदि-अंत नहीं है। उसे हम न सत् कह सकते हैं, न असत्। अध्याय पंद्रह के श्लोक 122 और 133 में बताया गया है, श्सूर्य, अग्नि और चाँद की ज्योति मैं ही हूँ। पृथ्वी पर मेरी ही शक्ति सबको सहारा देती है। चाँद के अंदर मैं ही सोम बनकर वनस्पतियों को बढ़ाता हूँ। सभी प्राणियों के अंदर वैश्वानर, संजीवनी शक्ति होकर जीवन कायम रखता हूँ। अध्याय नौ के श्लोक 155 में वेदमंत्र का विचार पाया जाता है, ज्ञानी लोग मुझ एक को विश्व की समस्त अभिव्यक्तियों में प्रकट हुआ जानकर पूजते हैं। इसी आशय को सामने रखकर अध्याय तेरह के श्लोक 146 में कहा गया है, ‘वह हर प्रकार से निर्गुण हैय परंतु सभी गुणों को धारण करनेवाला भी वही है। इसका तात्पर्य यह है कि निरपेक्ष रूप से देखने पर वह निर्गुण और सापेक्ष रूप से देखने पर सर्वगुण प्रतीत होता है।
भगवद्गीता के अध्याय नौ के श्लोक 49 और 52 में कहा गया है, हे अर्जुन, मैं तुमको सबसे बड़ा और गुप्त भेद बताता हूँ। यह संसार मुझ अव्यक्त से फैला हुआ है। उत्पन्न हुई सभी चीजें मेरे अंदर हैं, परंतु मैं उनमें नहीं हूँ। उत्पन्न हुई ये सब चीजें मेरे अंदर नहीं भी हैं। मेरी अद्भुत शक्ति को देखो। मेरी आत्मा समस्त संसार को पैदा करती है यद्यपि यह सब कुछ वह आत्मा है, परंतु वह इनमें नहीं है। एक उदाहरण इस समस्या को हल कर देता है। लेखक के दिल में अपनी पुस्तक का और चित्रकार के दिल में अपने चित्र का नक्श मौजूद होता है। यह नक्श चित्रकार का है और चित्रकार की कला तथा योग्यता नक्श से प्रकट होती हैं, इस दृष्टि से चित्रकार उसके अंदर है परंतु पुस्तक या चित्र से लेखक या चित्रकार को पूर्णतया नहीं जाना जा सकता। इस प्रकार वह उससे पृथक् होता है। समस्त सृष्टि ब्रह्म के अंदर एक नक्शे के समान है। हम सब उस नक्श का एक अंश हैं। यदि उस नक्श को उपाधि कहा जाए तो हम भी उपाधि के एक भाग हैं। हमारा समस्त ज्ञान सोपाधि हो सकता है। हमारे दृष्टिकोण से यह सारा विचार या नक्श सर्वथा सत्य और वैसी वास्तविकता रखनेवाला है जैसी हम अपने अस्तित्व के विषय में अनुभव करते हैं परंतु ब्रह्म-ज्ञान उपाधि से रहित निर्विकल्प है। इस दृष्टि से इस नक्श की वास्तविकता कुछ वैसी ही कही जा सकती है जैसी हमारे मन के उन खयाली किलों की होती है, जो हम शेखचिल्ली की तरह बनाते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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