अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-11) सृष्टि का सिद्धांत है कार्य और कारण

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
दोनों दृष्टियों के विचार करने का फल यह निकलता है कि जिस सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में हम ब्रह्म के उद्देश्य की खोज करते हुए क्यों? आदि प्रश्न करते हैं, वह हमारे लिए वास्तविक होने पर भी ब्रह्म के लिए कोई विशेष अस्तित्व नहीं रखती। श्री शंकराचार्य इस बात को दूसरे शब्दों में प्रकट करते हैं, जिस प्रकार स्वप्न के समय यह सवाल नहीं पैदा होता कि यह स्वप्न क्यों आ रहा है उसी प्रकार जब तक माया का प्रभाव प्रभुत्व जमाए रखता है तब तक यह सवाल भी गलत होता है कि यह संसार क्यों बनाया गया। माया का प्रभाव दूर हो जाने पर ज्ञानचक्षु खुल जाते वर्तमान काल के दार्शनिक भी अंतिम तत्त्व के संबंध में ऐसे ही परिणामों पर पहुँचते हैं। हरबर्ट स्पेंसर अंत के दो तत्त्वों को मानता है। इन्हें वह माद्दा और ताकत कहता है। इनकी वास्तविकता जानने में असमर्थ होने से वह इनको अज्ञेय नाम देता है।
हैकल एक कदम आगे बढ़कर यह कहता है कि माद्दा और ताकत- दोनों एक ही वस्तु हैं। वह इसे वस्तु नाम देता है। इसके साथ ही वह शॉपनहावर की तरह अद्वैत को ठीक मानता है।
शॉपनहावर ने तो कहा है कि अद्वैत एक प्रकार की नास्तिकता है। यदि ब्रह्मांड अपनी आंतरिक शक्ति से चल रहा है और इससे अलग और कोई हस्ती नहीं है तो अल्ला मियाँ को साफ जवाब मिल जाता है।
हैकल का मत है कि अद्वैत में ईश्वर प्रकृति से अलग काम करनेवाला नहीं है। ये दोनों एक ही हैं। इसका स्वाभाविक निष्कर्ष यह है कि केवल वेदांत ही वर्तमान विज्ञान का मजहब हो सकता है।
मत्सीनी या मैजिनी भी इसी बात का अनुमोदन करता है। वह कहता है कि मैं आत्मा के असंख्य प्रदर्शनों को मानता हूँ। आत्मा एक मंजिल से उन्नति करती हुई दूसरी में पहुँचती है। इसे सदा के लिए दोजख (नरक) की आग में रखना न केवल खुदा के न्याय एवं दया से परे है बल्कि उसके खिलाफ एक इल्जाम भी है। तुम्हारा मजहब खुदा को मनुष्य की श्रेणी में ले आता है मेरा मजहब मनुष्य को उन्नति करते-करते खुदा बनाता है। खुदा की मेहरबानी पर भरोसा रखना फजूल है। केवल पुरुषार्थ ही हमें
ध्येय तक ले जाता है। इस प्रकार मेरा मजहब जीवन के क्रमिक उत्कर्ष का सिलसिला है।
प्राचीन कला के दर्शनवेत्ता भी इसी विचार पर आ ठहरे। मिस्र में प्राचीन समय से वेदांत का बीज विद्यमान रहा है। फैसागोरस ने आर्य दर्शन की लहर को यूनान या ग्रीस में चलाया। आइयानिक मत के दार्शनिक एनेक्सामेंडररे ने यह शिक्षा फैलाई कि यह संसार ही ब्रह्म है। इसी में बार-बार प्रलय और उत्पत्ति होती रहती है। एंपोडाक्लीज भी प्रकृति और पुरुष को एक मानता था।
मध्य युग में रोमन कैथोलिक चर्च और इसलाम-दोनों सेमेटिक या पैगंबरी मजहबों ने इस सिद्धांत को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन विचारों को रखने और उनका प्रचार करने के अपराध में गिआरदिनोब्रूनो रोम में जिंदा जलाया गया। शम्स तबरेज और मंसूर इसलाम के जब्र और धर्मांधता के शिकार हुए। इस पर भी ईरान में अलगजाली तथा हाफिज और सीरिया में जलालुद्दीन रूमी इसी विचार के अंदर मगन रहे और इसका प्रचार करते रहे। यूरोप के दर्शनवेत्ता स्पिनोजा और गेटे इसी विचार के रंग में रँगे हुए थे।
भगवद्गीता के अध्याय दस के श्लोक 81 में कहा गया है, सृष्टि मुझसे उत्पन्न हुई है। अध्याय नौ का श्लोक 102 कहता है, मेरी अध्यक्षता में चर और अचर सृष्टि पैदा होती है। अध्याय चौदह का श्लोक 33 बतलाता है, मेरी योनि महत् ब्रह्म है। मैं उसमें बीज डालता हूँ और तब सब कुछ उत्पन्न होता है।
हम कोई स्रष्टा मानें या न मानें, इस बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि संसार में परिवर्तन का एक ही नियम काम करता है। बौद्ध लोग इसे कर्म या नियम कहते हैं। हम इसे कार्य-कारण संबंध का नाम दे सकते हैं। संसार में कोई चीज अचानक या केवल संयोगवश नहीं होती। प्रत्युत हर चीज का पहले कोई कारण होता है, जिसका वह कार्य होती है। सूर्य का ताप कारण है, भाप की उत्पत्ति कार्य। अब यह भाप उन बादलों का कारण है, जो उसका कार्य हैं। फिर बादल कारण बन जाते हैं और बरसात कार्य होता है। वर्षा कारण हो जाती है और वह अन्न उसका कार्य होता है, जिससे प्रायः सभी प्राणी बढ़ते हैं। इस प्रकार यह सिलसिला चलता जाता है।
एक प्रसिद्ध प्रश्न है-बीज पहले उत्पन्न हुआ या वृक्ष? यह इस प्रकार हल होता है, बीज कारण है और कारण प्रकृति के साथ सदा विद्यमान रहता है। एक बत्ती सैकड़ों विभिन्न कारणों के होने से बनती है और उसके जलने पर कितने ही भिन्न परिणाम उत्पन्न होते हैं। छोटी-से-छोटी गति बड़े-से-बड़ा नतीजा पैदा कर सकती है। कार्लाइल ने एक जगह कहा है, जब हम एक पत्थर उठाकर दूसरी जगह फेंकते हैं, तब इससे पृथ्वी का गुरुत्व-केंद्र बदल जाता है।
माद्दा और अंतिम कारण- परमाणु
हिंदू शास्त्रों में कारणों के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-उपादान, निमित्त और साधारण। घड़े का उपादान कारण मिट्टी है, निमित्त कारण कुम्हार और साधारण औजार वगैरह। संसार में जो कुछ हमें इंद्रियगोचर होता है, उस सबका उपादान कारण, माद्दा या प्रकृति है।
वैशेषिक दर्शन में प्रकृति के बाईस तत्त्व बतलाए गए हैं। आजकल के रसायनविद् पहले बहत्तर तत्त्वों को मानते थे, परंतु रेडियम के आविष्करण से रसायनशास्त्र में क्रांति आ गई है। अब यह सिद्ध हुआ है कि ये बहत्तर तत्त्व भी आगे ऐसे ही और ज्यादा बारीक जर्रों या कणों से बने हुए हैं, जिससे एक तत्त्व के कण दूसरे तत्त्व के रूप में परिणत हो जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि वास्तव में माद्दा केवल एक ही प्रकार के कणों से बना हुआ है। इन कणों को अणु और परमाणु कहा गया है। एक अणु का व्यास 1/50,000 इंच और एक परमाणु का 1/50,00,000 इंच माना गया है। यह भी हिसाब लगाया गया है कि एक घनमूलीय इंच वस्तु में इक्कीस लाख पद्म अणु पाए जाते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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