अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-12) सभी ऊर्जाओं का स्रोत एक

भौतिक विज्ञान भी इसी परिणाम पर पहुँचता है कि बिजली, ताप, आवाज, प्रकाश, चुंबकत्व आदि सभी प्राकृतिक शक्तियाँ एक-दूसरी में तब्दील हो सकती हैं। ये सभी एक ही शक्ति से निकली हुई मानी जा सकती हैं, जिसे फोर्स या एनर्जी कहा जाता है। यह फोर्स गति का नाम है, जो माद्दा के अंदर काम करती है। यह गति प्रायः कंपन के रूप में दिखाई देती है। हवा के अंदर गति होने से आवाज, ठोस चीजों के अंदर गति होने से ताप और सूर्य की किरणों की गति से चीजों के रंग बनते हैं। जो वस्तु सूर्य की किरणों से उत्पन्न
हुई लहरों को अपने अंदर जज्ब
कर लेती है, वह काले रंग की और जो सभी लहरों को वापस कर देती है, वह सफेद रंग की दिखलाई
देती है।
हर्बर्ट स्पेंसर कहता है कि माद्दा और ताकत कभी अलग-अलग नहीं रह सकते और यह समस्त ब्रह्मांड इन दोनों के गुणन तथा विभाजन का फल है। आजकल यह खयाल ज्यादा जोर पकड़ता जाता है कि माद्दा और ताकत-दोनों वास्तव में एक ही हैं। अंतर केवल इतना है कि कंपन के बहुत ही तेज होने पर वह फोर्स के रूप में और बहुत ही मंद होने पर वह माद्दा के रूप में प्रकट होती है।
विज्ञान वस्तुओं की बाह्य खोज में बाहर से चलकर अंदर जाता है। दर्शन और मजहब ब्रह्मांड की आंतरिक खोज करते हुए अंतिम तत्त्वों पर आकर मिल जाते हैं। भगवद्गीता के अध्याय दो का श्लोक 281 कहता है, हम वस्तुओं के आरंभ और अंत को नहीं जान सकते, केवल उनके बीच की अवस्था को समझ सकते हैं। इतना तो हमें स्पष्ट नजर आता है कि जड़ होने के कारण माद्दा अकेला कुछ नहीं कर सकता और फोर्स या ताकत बिना ज्ञान के अंधी है। इसलिए भगवद्गीता के अध्याय सात के श्लोक 52 और 63 में कहा गया है, श्परा प्रकृति और अपरा प्रकृति (अर्थात् माद्दा और ताकत) मुझसे सहारा लेकर चलती हैं। अध्याय आठ के श्लोक 204, 215 और 226 में भी साफ कहा गया है, इन तत्त्वों से परे एक और बड़ा अव्यक्त है, जो कभी प्रकट नहीं होता, परंतु उससे सब कुछ प्रकट होता है। अध्याय पंद्रह के श्लोक
171 में उसे पुरुषोत्तम कहा गया
है, जो दोनों पुरुषों, अर्थात् क्षर और अक्षर, से परे है और तीनों लोकों
के अंदर रहता हुआ उनको आश्रय देता है।
इससे पूर्व कहा गया है कि पुरुषोत्तम को जानना तो एक ओर रहा, हम प्रकृति की दोनों अवस्थाओं-माद्दा और ताकत-की वास्तविकता को भी नहीं जान सकते। हाँ, इनके द्वारा पड़े हुए संस्कारों का ज्ञान हमें जरूर होता है। इन संस्कारों से ही हम इतना समझ सकते हैं कि इन शक्तियोंवाला ब्रह्म है। आश्चर्य की बात है कि विभिन्न मजहबों से संबंध रखनेवाले लोग माद्दा अर्थात् प्रकृति संबंधी ज्ञान से तो इतनी घृणा करते हैं और जिस ब्रह्म का कोई ज्ञान संभव नहीं, उसे राजगीर-सा समझकर उसके ज्ञान के इतने लंबे-चौड़े दावे करते हैं।
भगवत् गीता के अध्याय चौदह के श्लोक 42 और 53 में कहा गया है, जो कोई पदार्थ किसी रूप में प्रकट होता है, उसकी योनि महत् ब्रह्म है और मैं उसमें बीज देने वाला पिता हूँ। प्रकृति के तीन गुण हैं-सत्त्व, रज और तम। ये गुण जीव को शरीर से बाँधते हैं। अध्याय तेरह के श्लोक 54 और 65 में कहा गया है, मूल प्रकृति (अव्यक्त), बुद्धि (महत् तत्त्व), अहंकार, पाँच महत् तत्त्व, ग्यारह इंद्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना और साहस- ये सब प्रकृति के ही विकार हैं।
संसार में सबसे पुराना दर्शन, जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति के लिए विकास के सिद्धांत की शिक्षा दी गई है, सांख्य है। उत्पत्ति शब्द ही, जो सृष्टि की पैदाइश के लिए प्रयुक्त होता है, विकास के शाब्दिक अर्थ को प्रकट करता है। उत्पत्ति का जो क्रम भगवद्गीता में दिया गया है, उस जैसा ही मनुस्मृति आदि तथा कई पुराणों में भी पाया जाता है। इसके अनुसार ब्रह्म दो शक्तियों में प्रकट होता है। मनु ने कहा है, आधा ब्रह्म स्त्री बना। संभव है, तौरेत में आदम की पसली से हवा का निकलना मनु से लिया गया हो। पुरुष और प्रकृति को कवित्वमय भाषा के बीज के रूप में नर और मादा कहा गया है। प्रकृति से महत् तत्त्व अर्थात् बुद्धि बनती है। इस बुद्धि को भगवद्गीता में योनि कहा गया है। मनुस्मृति (1/5-19) में इसको हिरण्यगर्भ अंडा बताया गया है। इस महत् तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार से विभिन्न प्रकार के भेद शुरू होते हैं। अहंकार ही पृथकत्व उत्पन्न करता है। किसी जीव, उदाहरणार्थ- चींटी से भी यदि प्रश्न किया जाए कि संसार के दो हिस्से कौन से हैं, तो वह यही उत्तर देगी- एक मैं और दूसरा शेष सारी दुनिया। अहंकार से सृष्टि के दो भाग हो जाते हैं-सह-इंद्रिय और निरिंद्रिय । इनमें से पहले भाग से पाँच ज्ञान-इंद्रियाँ तथा पाँच कर्म-इंद्रियाँ और दूसरे भाग से पाँच तन्मात्राएँ- पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु-बनती हैं। आकाश का गुण शब्द है। आकाश बदलकर हवा बनता है, जिसका गुण स्पर्श है। इससे तेज, जिसका गुण रूप है। तेज से पानी, जिसका गुण रस है । पानी से मिट्टी, जिसका गुण गंध है। इनमें से बाद में आनेवाले हर एक में एक-एक गुण अधिक होता जाता है। इन पाँच में मन और बुद्धि मिलने से ये सात हो जाते हैं। इन सात तत्त्वों के मिलने से समस्त सृष्टि बनती है।
भगवद्गीता के अध्याय दस के श्लोक 16 में सात ऋषियों, चार पूर्वजों और मनु की उत्पत्ति का उल्लेख है। यह किन्हीं विशेष व्यक्तियों की तरफ इशारा नहीं मालूम होता। प्रत्युत, जैसाकि मांडूक्य उपनिषद् में लिखा है-सात ऋषियों का अर्थ सात इंद्रियाँ, चार पूर्वजों का अर्थ-मन, चित्त, बुद्धि तथा अहंकार और मनु का अर्थ मनुष्य है। इससे पहले और बाद के श्लोकों में भी केवल गुणों का उल्लेख है, व्यक्तियों का नहीं।
यह संक्षिप्त सा वृत्तांत है, जो हिंदू शास्त्रों में प्रकृति के अंदर आदि-विकास का मिलता है। -क्रमशः (हिफी)

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