(महासमर की महागाथा-13) विज्ञान भी स्वीकार करता है ब्रह्माण्ड

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
वर्तमान विज्ञान की उन्नति हो जाने पर सृष्टि-उत्पत्ति का जो मत स्वीकार किया गया है, वह लैपलेस और कान्ट का वाष्पारंभवाद है। यह मत स्पष्ट शब्दों में आर्य-शास्त्रों के सिद्धांत का ही वर्णन करता है। अंतर इतना है कि इसमें ब्रह्म और पुरुष का कोई उल्लेख नहीं है। यह केवल प्रकृति से इस प्रकार शुरू होता है- माद्दा पहले-पहल परमाणुओं की वाष्प के रूप में था। (इस वाष्प को नेबुली कहा गया है।) इस भाप में गति की प्रक्रिया आरंभ हुई, जिससे यह ईथर अर्थात् आकाश में परिणत हो गई। फोर्स या गति के रूप में प्रकट हो ईथर दो प्रकार का हो जाता है-एक केंद्रीय, दूसरा महबरी। यह गति इतनी तेज होती है कि इसके कारण गैसवाली आग के कई टुकड़े हलकों या मंडलों की शक्ल में बन जाते हैं। केंद्र में सबसे बड़ा मंडल रहता है, जिसकी स्थिति सूर्य की होती है। इसके इर्द-गिर्द सभी दिशाओं में आग के गोलों के रूप में नभमंडल उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें से एक हमारी पृथ्वी है। धीरे-धीरे ये मंडल अपना ताप बाहर निकालने पर ठंडे होने शुरू हो जाते हैं। पहले तो तरल, फिर अधिक ठंडे होने पर ऊपर से ठोस रूप ग्रहण करते हैं। ठोस होने के बाद ये इस योग्य होते हैं कि इन पर जीवन कायम रह सके। पृथ्वी के आंतरिक भाग में अभी तक आग-ही-आग है। यदि पृथ्वी को एक हजार फीट नीचे खोदा जाय तो इसमें पानी को उबालनेवाला ताप होता है। सूर्य, पृथ्वी आदि से यह ताप दिन-प्रतिदिन निकल रहा है।
सूर्य की गरमी जब बहुत कम हो जाएगी, तब पृथ्वी टुकड़े-टुकड़े होकर चकनाचूर हो जाएगी। तत्पश्चात् इसके अंदर वह प्रक्रिया शुरू होगी, जो उत्पत्ति के उलट हिंदू शास्त्रों में प्रलय कहा गया है। एक समय आता है, जब समस्त ब्रह्मांड में ही यही प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। इसका वर्णन यों किया गया है-चल और अचल, सभी नष्ट हो जाते हैं। गंध को जज्च करके सर्वत्र जल-ही-जल हो जाता है। तब सबको अग्नि जज्ब कर लेती है। इसमें सूर्य भी छिप जाता है और फिर हवा सबको जज्ब करती है। तब रूप नहीं रहता। फिर स्पर्श आकाश में मिल जाता है। शेष शब्द ही रह जाता है। शब्द को मन जज्ब कर लेता है। मन और बुद्धि को काल निगल जाता है तथा काल का लय ब्रह्म में हो जाता है।
ब्रह्मांड के विषय में ज्योतिष, भूगर्भ आदि विद्याएँ कई बातें बतलाती हैं। यह सर्वमान्य बात है कि प्रकाश की रफ्तार एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकंड है। सूर्य जमीन से इतना दूर है कि उसका प्रकाश पृथ्वी पर पहुँचने में आठ मिनट लगते हैं। बुध आदि कई ऐसे सितारे हैं, जिनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में कई दिनों का समय लग जाता है। आल्फा सेंटार वे सितारे हैं, जिनका प्रकाश तीन वर्ष के बाद पृथ्वी पर पहुँचता है। साइरस का प्रकाश बीस वर्ष के बाद और आकाशगंगा का प्रकाश दो हजार वर्ष बाद पृथ्वी तक आता है। कुछ ऐसे नेबुली हैं, जिनका प्रकाश उत्पत्ति काल से चल रहा है, परंतु अभी तक पृथ्वी पर नहीं पहुँचा।
इसी प्रकार भूगर्भ विद्या का विद्वान् हक्सले लिखता है कि पृथ्वी की बनावट के अंदर विभिन्न प्रकार की तहें पाई जाती हैं और उनमें से हर एक तह के बनने में कई युग लगे हैं। पृथ्वी के अंदर एक तह कोयले की है, जिसके बनने में साठ लाख वर्ष का समय लगा है। चार्ल्स लायल ने चाक की तहों की बनावट से अनुमान लगाया है कि पृथ्वी को वर्तमान रूप में आने में बीस करोड़ वर्ष लगे होंगे। इससे पूर्व का हिसाब लगाने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है। इसके मुकाबले पर हिंदू ज्योतिष-शास्त्र सृष्टि-उत्पत्ति और प्रलय के काल का कटा-छँटा एक हिसाब हमारे सामने रखता है।
भगवद्गीता के अध्याय आठ के श्लोक 161, 172, 183 और 194 में ब्रह्मरात्रि और ब्रह्मदिन को एक हजार युगों का बताया गया है। ब्रह्मलोक अव्यक्त रात से निकलकर एक हजार वर्ष तक दिन की हालत में रहकर प्रलय को प्राप्त हो जाता है। श्लोक 235 और 246 में दक्षिणायन और उत्तरायण में मरने का उल्लेख है। उपमा के तौर पर वे केवल ज्ञान और अज्ञान की अवस्थाओं की ओर संकेत करते हैं। दक्षिणायन और उत्तरायण से युगों की गिनती शुरू होती है।
ज्योतिष-शास्त्र में सृष्टि के दिन-रात का हिसाब इस प्रकार लगाया गया है-छह मास का उत्तरायण अर्थात् देव का एक दिन और छह मास का दक्षिणायन अर्थात् देव की एक रात्रि कहलाते हैं। इस तरह तीन सौ साठ दिन और रात के मिलने से देव का एक वर्ष बनता है। ऐसे चार हजार चार सौ देव वर्षों का सत्ययुग तीन हजार तीन सौ देव वर्षों का त्रेतायुग बाईस सौ देव वर्षों का द्वापरयुग और ग्यारह सौ देव वर्षों का कलियुग होता है। बारह हजार देव वर्षों का एक महायुग होता है, इकहत्तर महायुगों का एक मन्वंतर और चौदह मन्वंतरों का एक कल्प होता है, जिसमें सृष्टि का आधा काल गुजर जाता है।
रसायन-शास्त्र विभिन्न वस्तुओं को सजीव और निर्जीव भागों में बाँटता है। सजीव माद्दा में विशेषतः कार्बन का अंश अधिक एवं पेंचीदा मिश्रणों में पाया जाता है। यूरोप के विद्वानों को जीवन का बीज ढूँढ़ने पर बड़ा आश्चर्य हो रहा है जहाँ तक सजीव माद्दा का संबंध है, उसकी उत्पत्ति एवं क्रमिक उन्नति की बात विकास के सिद्धांत के अनुसार स्पष्टतया बताई जा चुकी है। अब यह मालूम करना बाकी है कि जीवन का आरंभ क्योंकर और कहाँ से होता है। यह समस्या अभी तक हल करने योग्य समझी जाती है, यद्यपि सर जगदीशचंद्र बसु के अन्वेषण ने इस प्रश्न पर बहुत प्रकाश डाला है। उन्होंने प्रयोगों के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जीवन केवल सजीव माद्दा में ही विशेषतया प्रकट नहीं होता, बल्कि निर्जीव माद्दा अर्थात् खनिज पदार्थों के अंदर भी वह वैसी ही अवस्था में पाया जाता है। जीवन के बड़े चिह्न बाह्य वस्तुओं से प्रभावित होना और आकर्षण तथा द्वेष या निराकरण धातुओं के अंदर भी वैसे ही पाए जाते हैं। कुछ विशेष धातुएँ सदा खास शक्ल के स्फटिकों में ही पाई जाती हैं। इन स्फटिकों से उन धातुओं की पहचान की जाती है। जब उनको मार दिया जाए तब वैसे स्फटिक नहीं बनते। अम्लजन और आर्द्रजन गैसों, जिनके मेल से पानी बनता है, में पारस्परिक आकर्षण उसी प्रकार है जिस प्रकार नर के शुक्र और मादा के रज में होता है। कुछ निर्जीव मूल तत्त्व आपस में मेल करते हैं परंतु जब कहीं इनको अपना आकर्षण रखनेवाला मित्र मिल जाता है, तब ये अपने अस्थायी या तात्कालिक साथी को छोड़कर
तुरंत असली मित्र से जा मिलते हैं। आकर्षण और निराकरण के ये गुण आरंभिक परमाणुओं में केंद्रीय और महबरी गर्दिश के कारण एक तरफ खींचते और दूसरी तरफ हटाते हैं। पशुओं में आकर यही गुण राग-द्वेष के रूप में प्रकट होते हैं। -क्रमशः (हिफी)