अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-15) पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
इस जीवन-कोश का आरंभ अभी तक मालूम नहीं हो सका। इसके विषय में कई खयाल दौड़ाए गए हैं। एक विद्वान् का विचार है कि जब पृथ्वी जीवन उत्पन्न करने के योग्य हो गई, तब यह कोश शायद किसी दूसरे स्वतंत्र ग्रह से गिरकर पृथ्वी पर पहुँचा। ध्यान देने से मालूम होगा कि इस जीवन-कोश की बनावट और उत्पत्ति का कोई खास तरीका या समय ढूँढ़ने का प्रयत्न व्यर्थ सा है। यदि जीवन-कोश का किसी विशेष समय में उत्पन्न होना संभव हो तो सभी वनस्पतियों तथा पशुओं के बीजों का वैसे ही एक खास वक्त में अलग-अलग उत्पन्न हो जाना संभव है। जब विज्ञान सभी प्रकार के प्राणियों को जीवन-कोश के विकास का फल ठहराता है, तब कोई कारण नहीं कि जीवन-कोश को क्यों इस विकास क्रम से खारिज करके उसका कोई विशेष आरंभ ढूँढ़ा जाय। जिस प्रकार परमाणुओं के अंदर विकास की प्रक्रिया होने से इतने मूल तत्त्व और इन मूल तत्त्वों में इस प्रक्रिया से धातु बनते हैं, उसी प्रकार इन धातुओं के अंदर विकास की प्रक्रिया से जीवन-कोश उत्पन्न हुआ है और इससे सभी प्रकार के प्राणी प्रकट हुए हैं।
जीवन-कोश (सेल) की शक्ल बहुत बारीक वृक्ष के जैसी होती है। इसके कई भाग होते हैं। जीवन रस या जीवनवाले भाग का नाम प्रोटोप्लाज्म रखा गया है । एक प्रोटोप्लाज्म में बारह करोड़ पचास लाख अणु होते हैं। (पुरुष के वीर्य के कोश का व्यास एक इंच का 1 वाँ भाग होता है)। यह जीवन-कोश अपनी खुराक लेकर हज्म करना और फैलाना शुरू करता है। ये एक से दो, दो से चार, चार से सोलह के हिसाब से बढ़ते हैं। एक क्षण में इनकी संख्या हजारों-लाखों तक जा पहुँचती है। एक ही प्रकार के असंख्य कोश मिलकर जब एक ही काम करते हैं तब उनसे एक रेशा बनता है। बहुत से रेशे मिलकर शरीर के अंगों के विभिन्न भाग बनाते हैं, जो अपने-अपने खास काम करते हैं।
वनस्पतियों और पशुओं के अतिरिक्त प्राणियों का एक प्रकार है-बैक्टीरिया। ये प्राणी केवल अणुवीक्षण यंत्र के द्वारा नजर आते हैं। तब साधारण आँख एक इंच के लाखवें हिस्से को इंच के दसवें हिस्से के बराबर देखती है। बैक्टीरिया की अगणित किस्में हवा, पानी और पृथ्वी के अंदर पाई जाती हैं। थोड़ी सी किस्मों के बैक्टीरिया गंदगी में पैदा होकर वबाई बीमारियाँ पैदा करते हैं। शेष किस्में हानिकर नहीं होतीं। इनका बड़ा कार्य सजीव माद्दा से सड़ाँध पैदा करके उसे फिर निर्जीव अवस्था में लाना है।
मानोजा जैसे बहुतेरे बैक्टीरिया केवल एक ही कोशवाले हैं। एक मानोजा इंच का 1 वाँ भाग होता है। यदि घास का सत या पानी निकालकर रखा जाय 40,000 तो दो दिन में वह बैक्टीरिया से भर जाएगा। अमीबा पहला प्राणी है, जो अणुवीक्षण यंत्र से अच्छी तरह नजर आता है। इसका जीवन-कोश स्वयं विभक्त होकर फैलता है। पशुओं के अंदर कोश की उन्नति वनस्पतियों से खुराक प्राप्त करने पर होती है। वनस्पतियों की मिकदार बढ़ाने का बड़ा कारण पत्तों में हरे रंग की एक चीज होती है, जिसे क्लोरोफिल कहते हैं। इसका काम यह होता है कि जानवर अपने अंदर से जो कार्बन द्विओषितश् खारिज करते हैं, उसे हवा में से लेकर सूर्य की किरणों की सहायता से कोश की संख्या को बढ़ाए।
मनुस्मृति आदि में सृष्टि को चार भागों में विभक्त किया गया है- उद्भिज अर्थात् पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ, स्वेदजरे अर्थात् पसीने और मैल से उत्पन्न होने वाले प्राणी, अंडज- अर्थात् अंडों से उत्पन्न होने वाले जीवधारी और जरायुज अर्थात् जरायु या जेर से पैदा होने वाले प्राणी। वृक्ष, जूँ, मछली, पशु आदि इनके उदाहरण हैं। कहा जाता है कि मेढकों के शरीर के सूखे हुए टुकड़े मिट्टी में पड़े रहते हैं और बरसात में फिर उन टुकड़ों से ही मेढक उत्पन्न हो जाते हैं।
यह तो सृष्टि के विभाजन का एक पुराना मोटा सा तरीका है। वर्तमान काल में डारविन को निस्संदेह जीवन-विद्या का प्रवर्तक समझना चाहिए। उसके अपने अनुभव और प्रयोगों से सभी जातियों का, विकास के द्वारा, धीरे-धीरे एक ही जाति से उत्पन्न होना सिद्ध किया है। इस सिद्धांत की झलक पतंजलि के योग-दर्शन (कैवल्यपाद) में भी मिलती है-जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्, प्रकृति को अपने अंदर जज्ब करने से एक जाति दूसरी में बदल जाती है। इसका अर्थ यह है कि बाह्य संस्कारों से प्रभावित होकर विकास के द्वारा जाति उन्नति करती है। इस प्रकार अपने अंदर प्रकृति के गुण एकत्र करता हुआ अमीबा एक दिन देवता बन सकता है।
यदि हमें खयाल रहे कि आरंभ में मनुष्य से केवल कुछ आवाजें निकलीं, जिनके निशान पर, बाद में, संकेत बनाए गए, तो एक जीवन-कोश से सृष्टि का होना आसान मालूम होगा। इन्हीं कुछ आवाजों के इकट्ठा होने से शब्द, शब्दों से भाषा और एक शब्द से हजारों भाषाएँ उत्पन्न हो गईं। इसी प्रकार आरंभ में दस तक गिनती बनी। इन दस अंकों के आधार पर ही गणित के लंबे-चौड़े और पेचीदा नियम बने हैं।
डारविन ने मालूम किया कि इस विकास के अंतस्तल में एक अन्य सिद्धांत काम करता है, जिसे योग्यतम अवशेष’ कहना चाहिए। योग्य का अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि वह जरूर अच्छा ही हो, बल्कि यह कि वह अपने अंदर इर्द- गिर्द की परिस्थिति के साथ अधिक अनुकूलता पैदा कर सके। बाह्य परिस्थिति दो प्रकार की होती है-अनुकूल और प्रतिकूल । अनुकूल परिस्थिति को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना और प्रतिकूल परिस्थिति से अपने बचाव का प्रयत्न करना, जीवन बनाए रखने के लिए आवश्यक है। यों भी यह स्वाभाविक बात है कि अनुकूल परिस्थिति के अंदर रहने से हर एक जानदार सुख अनुभव करता है और प्रतिकूल परिस्थिति के अंदर रहने से दुःख। इसी कारण पहले के लिए राग और दूसरे के लिए द्वेष बढ़ जाता है। इसी प्रकार अपने आपको जीवित रखने के लिए हर एक प्राणी को दूसरों के मुकाबले पर संघर्ष करना पड़ता है। इसी संघर्षकाल में एक जाति के अंदर भेद उत्पन्न हो जाते हैं और नई जाति की नींव पड़ जाती है। इससे निर्बल का विनाश होता है और बलवान् की उन्नति। उदाहरणार्थ-हिरणों को बलवान् पशुओं के शिकार हो जाने का भय रहता है। स्वभावतः तेज भागने में ही उनका बचाव होता है। चयन-नियम के अनुसार केवल वही हिरन बच सकते हैं, जिनमें अधिक
तेज भागने की योग्यता होती है।
ऐसे हिरनों की नस्ल आगे उन्नति करती है।-क्रमशः (हिफी)

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