अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-16) लम्बी अवधि के बाद विकसित हुई मानव जा

ति
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
इसी प्रकार जहाँ अधिक सर्दी पड़ती है वहाँ लंबी-लंबी पशमवाले जानवरों की नस्ल उन्नति कर सकती है अन्य जानवर सर्दी से जल्दी मर जाते हैं। झाड़ियों, पौधों और वृक्षों में रहने वाले वही पतंगे उन्नति कर सकते हैं, जिनके रंग में पत्तों से अधिक समानता होती है, क्योंकि पहचान में नहीं आने के कारण वे अन्य जानवरों के शिकार नहीं होते। समझदार प्राणियों की अवस्था में वही अधिक उन्नति करेंगे, जो अपनी बुद्धि से अपने आपको इर्द-गिर्द की परिस्थिति के अनुकूल बना सकेंगे।
इस प्रकार विभिन्न जातियाँ विकास और चयन के नियमों के अनुसार उन्नति करते-करते मानव जाति उत्पन्न करती है। इस विकास के उदाहरण हम अपने सामने मनुष्य की बनाई हुई चीजों-घड़ी, साइकिल, मोटर आदि के अंदर पाते हैं। वर्तमान काल की घड़ी को पूर्ण होते लगभग तीन सौ वर्ष का समय लगा है। इन तीन सौ सालों में यह कई प्रकार की शक्लों से होकर गुजरी है। लकड़ी के खिलौनों से शुरू होकर सैकड़ों प्रकार की साइकिलों की क्रमशः उन्नति का परिणाम वर्तमान साइकिल है। अब यदि उन बीच की अवस्थाओं का पता लगाने का प्रयत्न किया जाय तो किसी दुकान से वे पुराने नमूने नहीं मिल सकते। इसी प्रकार प्रकृति भी उन नमूनों, जो उसके काम नहीं आते, को एक तरफ फेंकती जाती है। पुरातत्त्व विद्या से हमें इस विषय में बड़ी सहायता मिलती है।
पुरानी हड्डियों की खोज से मालूम हुआ है कि इस पृथ्वी पर तीन प्रकार के बड़े पशुओं को कितना समय लगा है। पहला युग मछलियों का गिना जाता है। इसकी आयु तीन करोड़ चालीस लाख वर्ष बताई जाती है। इस काल में पृथ्वी पर केवल मछलियाँ ही विद्यमान थीं। इसके पश्चात् दूसरा काल रेंगने वाले जानवरों का है, जिनकी आयु का अनुमान एक करोड़ दस लाख वर्ष लगाया गया है। इसके बीत जाने पर वर्तमान काल दूध पिलाने वाले जानवरों का है, जिनकी आयु के तीस लाख साल अब तक गुजर चुके हैं। इनसे भी पूर्व दो युग हड्डी-रहित प्राणियों के गुजरे हैं। इनकी आयु का अनुमान किसी प्रकार नहीं लग सका। इन प्राणियों में पहले एक जीवन-कोश वाले और बाद में इनके अतिरिक्त एक से अधिक जीवन-कोशों वाले प्राणी थे। उन विभिन्न योनियों की संख्या, जिनमें से पशु-जीवन गुजरा है, गिनी नहीं जा सकती। जीवन-विद्या का विद्वान् हैकल अपनी पुस्तक लॉस्ट लिंक में लिखता है कि जीवन के आरंभ होने से लेकर मनुष्य तक पहुँचने में छप्पन लाख तिहत्तर हजार योनियाँ होती हैं, जो लुप्त हो चुकी हैं या इस समय जीवित हैं। अचम्भे की बात है कि पुराणों में भी ऐसा ही विचार पाया जाता है कि जीव को मनुष्य योनि प्राप्त करने तक चौरासी लाख योनियों से गुजरना पड़ता है।
विकास के सिद्धांत पर कुछ लोग इसलिए हँसते हैं कि मनुष्य से निचली योनि बंदर है, अर्थात् एक दृष्टि से मनुष्य बंदर की संतति हुआ। सच तो यह है कि इस तथ्य से घबराने की कोई बात नहीं है। सृष्टि के आरंभ से परमाणुओं के विकास का सिद्धांत काम करता है, जिनसे समस्त ब्रह्मांड बनता है। यदि वही नियम प्राणियों के अंदर काम करते हुए नई-नई जातियाँ उत्पन्न करे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ! वहशी मनुष्यों के कई ऐसे जंगली कबीले अब भी पाए जाते हैं, जिनका ऊँची किस्म के बंदरों से भेद करना मुश्किल है। चीन और हिमालय के बीच में स्थित जंगलों में ऐसी शक्ल के जानवर हैं, जो मनुष्य और बंदर- दोनों से समता रखते हैं। हाल ही में जावा में पुरानी नस्ल की हड्डियाँ मिली हैं, जिनको वैज्ञानिकों ने पूँछ- रहित बंदरों के पंजर समझकर मनुष्य और बंदर को मिलाने वाली जाति ठहराया है।
बंदर से उत्पन्न नस्ल कहलाने में हम जो शर्म महसूस करते हैं, वह बिलकुल दूर हो जाय, यदि हम अपने आरंभ का ध्यान करें। वह शुक्र या नर-बीज क्या होता है, जिससे हम बनते हैं? और फिर नौ मास में उसके अंदर कैसे-कैसे परिवर्तन होते हैं! खयाल किया जाता है कि नौ मास के इस समय के अंदर उस नर बीज को उन सभी अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है, जिनसे एक जीवन-कोश को मनुष्य के स्तर तक पहुँचने में गुजरना पड़ता है। गर्भ-विज्ञान के
अध्ययन से मालूम होता है कि मनुष्य, सूअर, कुत्ते और खरगोश के बच्चों की उन्नति माता के पेट में बहुत समय तक एक ही ढंग पर होती है बल्कि कई मास तक उनका रूप एक-दूसरे जैसा होता है। इसके पश्चात् भेद शुरू होता है। सृष्टि के विकास का सिद्धांत हमें यह सिखलाता है कि मनुष्य कोई खासतौर पर पैदा की हुई अलग हस्ती नहीं है, बल्कि वह ब्रह्मांड का वैसा ही एक टुकड़ा है, जैसाकि एक परमाणु । ब्रह्मांड के साथ सच्चा भ्रातृ-भाव इसी शिक्षा से उत्पन्न हो सकता है।
एक बड़ा सवाल है-अहं (मैं का भाव) का ज्ञान किसको होता है? क्या ज्ञान मस्तिष्क में होता है, जो स्वयं मांस का एक लोथड़ा है? मानव शरीर के अंदर हर जगह दो प्रकार की रगें मौजूद हैं। बाहर के संस्कारों को बाहर से अंदर ले जानेवाली रगें संवेदी और अंदर से बाहर आदेश लाने वाली प्रेरक रगें कहलाती हैं। प्रारंभिक अवस्था में ये रगें विद्यमान नहीं होती हैं। तब समस्त शरीर ही बाह्य संस्कारों से प्रभावित होता है। धीरे-धीरे शरीर की त्वचा का विशेष भाग इस भाग में लग जाता है। बहुत सी योनियाँ गुजर जाने पर मेरुदंड या रीढ़ की नस पैदा हो जाती है, जिससे निकली हुई असंख्य रगें त्वचा के हर भाग में पाई जाती हैं। इसके पश्चात् उन्नति करते हुए रीढ़ के एक सिरे पर मस्तिष्क बनना शुरू हो जाता है, जो पशुओं में क्रमशः बढ़ते-बढ़ते सभ्य मनुष्य के अंदर बड़ी मिकदार का हो जाता है। अब हर एक चीज, जो किसी रग पर प्रभाव करती है, संस्कार के रूप में रीढ़ या मस्तिष्क में जमा हो जाती है। जब एक ही संस्कार दूसरी बार होता है तब उससे उसके पहले संस्कार का ज्ञान होता है। उदाहरणार्थ- आँख के सामने
एक चित्र एक बार आता है। दूसरी बार आँखों के सामने उसी चित्र
के आने से ज्ञान उत्पन्न होता है
कि यह चित्र पहले देखा जा चुका है। -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button