(महासमर की महागाथा-18) हमारे कर्मों पर पड़ता भोजन का प्रभाव

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
हमारे संस्कारों और कर्मों पर हमारे भोजन का भी बड़ा प्रभाव होता है।
अध्याय सत्रह के श्लोक 81, 92 और 103 विभिन्न प्रकार के भोजन का असर वर्णन करते हैं। उपनिषद् में भी कहा गया है, आहार शुद्ध होने से मन निर्मल होता है। पितामह की कथा से इसका बड़ा प्रमाण मिलता है। बाणों की शय्या पर लेटे हुए वे उपदेश दे रहे थे, जिस सभा में अन्याय हो, उससे धर्मात्मा को उठ जाना चाहिए। इस पर प्रश्न किया गया, द्रौपदी के अपमान के समय आप उस सभा में क्यों बैठे रहे? इसके उत्तर में उन्होंने स्पष्टतया स्वीकार किया, पाप के अन्न ने उस समय मेरी आत्मा को मलिन कर रखा था।
कुछ लोग भगवद्गीता पर यों हँसी उड़ाते हैं, आदमी सारी उम्र पाप करता रहे और अंत समय में पहुँचकर परमात्मा का ध्यान कर ले। यह तो मुक्ति का बड़ा आसान तरीका है। यह बात बेसमझी की है पर संभव नहीं कि जिस मनुष्य का मन सारी उम्र विशेष विचारों में फँसा रहा हो, वह अंत काल में पहुँचकर अचानक परमात्मा की ओर चला जाय। इसके विपरीत, उस समय तो बार-बार वही बातें दुःख के साथ मन में आती हैं, जिनमें दिल सदा लगा रहा हो। जिन लोगों ने किसी मनुष्य को मरते देखा है उन्होंने यह अनुभव किया होगा कि किस प्रकार प्राण-त्याग करते समय आदमी उन्हीं बातों का ध्यान करता और मुख से उसी प्रकार के शब्द या वाक्य बड़बड़ाता है, जो उसके मन में सदा रहे थे।
मनुष्यों के अंदर, उनके जीते-जी भी, अचानक परिवर्तनों के जो उदाहरण मिलते हैं, वे केवल प्रकट रूप में वैसे होते हैं, वास्तव में नहीं । यद्यपि महर्षि वाल्मीकि पहले डाकू थे, परंतु उस समय भी वह अपने माता-पिता आदि संबंधियों को सुख देने के लिए डाके डाला करते थे। उनका प्रयोजन उस समय भी एक प्रकार से दूसरों का भला करना था, जो ऋषि बन जाने पर उनके अंदर दूसरे रूप में प्रकट हुआ। प्रकट कार्यों से ही मनुष्य की वास्तविकता नहीं मालूम होती । वह तो उसकी श्रद्धा में पाई जाती है।
शुरू-शुरू में औरंगजेब बहुत शराब पीता था और विलासप्रिय भी था किंतु शासक की गद्दी मिलते ही वह बड़ा परहेजदार बन गया। वास्तव में बात यह थी कि जवानी चढ़ते ही उसके अंदर यह इच्छा प्रबल हुई कि उसे बादशाह की गद्दी मिल जाय। अपने पिता की मजलिसों में सर्वप्रिय बनने के लिए वह सभा के नियमों पर चलता था। बाद में उसका उद्देश्य उस मजहबी दल को खुश करना और मजबूत बनाना था, जिसने उसे गद्दी प्राप्त करने में सहायता दी थी। इसी प्रकार बंदा, लक्ष्मनदास, बैरागी साधु से एक बड़े सेनानायक बन गए। यही नहीं, उन्होंने पंजाब का इतिहास बिलकुल अलग ही बना दिया होता, यदि लाहौर के पास बागवानपुरा की लड़ाई में पाँच हजार तत्खालसा सिख उनका साथ छोड़कर लाहौर के मुसलमान शासक के साथ न जा मिले होते। इस प्रसिद्ध राष्ट्र-नायक की आंतरिक अवस्था को यदि देखा जाय तो मालूम होगा कि बाद में भी उसका दिल वही था, जिसने यौवन में हिरनी का शिकार करके उसका पेट चीरा था। हिरनी के पेट से जीवित बच्चा निकलने पर उन्हें इतना दुःख हुआ कि उन्हें संसार से ही विरक्ति हो गई। फिर जब गुरु गोविंद सिंह ने इन्हीं बैरागी का ध्यान देश की करुणाजनक अवस्था की ओर दिलाया तब वह सेनानायक बन गए।
ब्रह्मांड में ज्यों-ज्यों विभिन्न प्रकार के प्राणी उत्पन्न होते जाते हैं, त्यों-त्यों उनके अंदर धीरे-धीरे दिमाग की उन्नति होती जाती है। इससे ज्ञान का आरंभ होता है और मनुष्य जाति के अंदर मानसिक विकास का चक्र चलता है।
यह विकास क्योंकर शुरू होता है और किन कारणों से उन्नति करता है, इस विषय में कई मत हैं। इनमें से एक तो बकल का आर्थिक मत है, जिसका वर्णन उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन अर्थात् सभ्यता का इतिहास में किया है। इसके अनुसार, ज्ञान के आरंभ के तीन बड़े कारण हैं- भोजन का आधिक्य, जलवायु और प्राकृतिक दृश्य। जिन देशों में सभ्यता शुरू हुई उनकी भूमि किसी-न-किसी बड़ी नदी के कारण भोज्य पदार्थ बहुत ज्यादा उत्पन्न करती थी। वहाँ की जलवायु गरम होने से मनुष्यों की आवश्यकताएँ बहुत कम थीं। वहाँ लोगों को बड़े मकानों की जरूरत भी नहीं थी। गंगा, नील और दजला- फरात इस मत के बड़े उदाहरण हैं। इन प्रदेशों में गेहूँ, चावल और खजूर अधिक पैदा होने से मनुष्य का पेट आसानी से भर सकता था। इस प्रकार भोजन का झंझट न रहने से बहुतेरे लोगों को सोच-विचार के लिए काफी समय मिलता था। बकल प्राकृतिक दृश्यों को इसलिए आवश्यक समझता है कि ये मनुष्य में सोचने की ओर झुकाव उत्पन्न करते हैं परंतु ये इतने अधिक न हों कि मनुष्य के दिमाग पर प्रभुत्व जमाकर उसे सोचने से ही रोक दें। इन प्रदेशों में परिस्थिति ऐसी अनुकूल थी कि वहाँ एक ऐसी श्रेणी पैदा हो गई, जिसके पास काम करने वालों की संख्या बहुत बढ़ गई। निश्चितता होने से उसे मनुष्य की वर्तमान उन्नति की नींव डालने का अवसर मिला।
यह भी खयाल रखना चाहिए कि विभिन्न देशों की भूमि और जलवायु मनुष्य के शरीर, रंग, मस्तिष्क और भाषा पर बड़ा विचित्र प्रभाव डालती हैं। इंग्लैंड, जापान, अफ्रीका आदि के रहने वाले लोगों के रंग-रूप आदि में जो फर्क है, वह प्रायः उनके इर्द-गिर्द की प्रकृति के प्रभाव से है। इसी प्रकार प्राचीन यूनान देश में नगरों के प्रजातंत्रों की नींव इसलिए पड़ी कि यूनान में इतनी छोटी- छोटी अलंघ्य पहाड़ियाँ हैं कि तब सभी नगरों का एक शासन के अधीन होना संभव न था।
हरबर्ट स्पेंसर विकास के सिद्धांत के अनुसार ज्ञान का आरंभ पशु जीवन में ही ढूँढ़ता है। पशुओं में दो बड़ी आवश्यकताएँ या इच्छाएँ पाई जाती हैं-प्रथम, पेट भरने की और दूसरी, समय पर भोग की। दूसरी इच्छा के साथ-साथ संतान-प्रेम और वंश-वृद्धि का भाव भी उत्पन्न होता है। दूसरे शब्दों में, स्वयं जीवित रहना और नस्ल को कायम रखना-ये पशु जीवन के दो बड़े मौलिक सिद्धांत हैं। जानवर दो प्रकार के होते हैं। एक वे, जो अपनी खुराक आसानी से हासिल कर सकते हैं उदाहरणार्थ-हिरन, भेड़ आदि और दूसरे वे शिकारी जानवर हैं, जिनको अलग- अलग खुराक ढूँढ़ने में आसानी होती है। इस प्रकार के जानवर शेर, कुत्ता आदि हैं। कुत्ता यहाँ तक तो समझदार है कि अपनी चूसी हुई हड्डी को मिट्टी से ढाँपकर दूसरे दिन के लिए रख देता है, ताकि कोई दूसरा कुत्ता उसे खा न ले परंतु इसके साथ ही वह अपनी जाति का इतना वैरी है कि भारत में इसका नाम गाली के बराबर हो गया। इसके बारे में कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। -क्रमशः (हिफी)