(महासमर की महागाथा-19) अवतार और पैगम्बर

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
एक कुत्ता अपने गाँव में साथियों के बरताव से तंग आ गया। उसने किसी दूसरे गाँव में जाने का निश्चय किया। परंतु जहाँ कहीं जाता, वहाँ के कुत्ते गाँव से मील भर बाहर ही उसके पीछे पड़ जाते और वापस भगा देते। इस प्रकार भागते-भागते वह फिर अपने ही गाँव में आ पहुँचा। वहाँ दूसरे कुत्तों ने उससे पूछा-फिर क्यों आ गए ? उसने उत्तर दिया-आप भाइयों की कृपा से। मैं जहाँ कहीं जाता था, वहाँ के कुत्ते मुझे पहले से ही निकालने के लिए तैयार रहते थे।
पहली किस्म के जानवरों को शिकारी जानवरों से बचने के वास्ते भी इकट्ठा रहना लाभकारी होता है। उनमें बहुतेरे ऐसे हैं, जिनको बच्चों का सम्मिलित प्रेम सदा जोड़े के रूप में रहना सिखला देता है। सारस का उदाहरण बड़ा विचित्र है। नर और मादा बच्चों की जोड़ी नियत करते समय बहुत से सारस एकत्र होकर मानवी विवाह के समान आनंद मनाते हैं।
इकट्ठे रहने से पशुओं में भी एक-दूसरे से सहानुभूति और सम्मिलित रक्षा का विचार उत्पन्न हो जाता है। दो घोड़े इकट्ठे रहने से आपस में एक-दूसरे पर प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाते हैं। हाथियों के उदाहरण से यह बात खूब स्पष्ट हो जाती है। जंगल में चरते वक्त उनका नेता सबसे आगे होता है और बच्चे बीच में। शत्रु से हुए मुकाबले में कायरता दिखलाने पर नेता को हटा दिया जाता है।
भोजन जुटाने के लिए इकट्ठा रहना-यह बात चींटी और मधुमक्खी के उदाहरणों से अच्छी तरह प्रकट होती है। इन दोनों के अंदर विभिन्न प्रकार से काम करने के वास्ते हिंदुओं के वर्णों के समान विभाजन पाया जाता है। कुछ का काम खुराक जमा करना होता है, कुछ का संतान पैदा करना, कुछ शत्रु से लड़ने का काम करती हैं और शेष सेवा का कार्य अपने ऊपर लेती हैं।
वहशी आदमी भी इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार चलते हैं। इकट्ठे रहने से उनके अंदर सहानुभूति की भावना उत्पन्न होती है। भोजन सामग्री की खोज में ज्यों-ज्यों औजारों की जरूरत पड़ती है त्यों-त्यों ये औजार मिल्कियत या यादगार का काम देते हैं। इस प्रकार संतति-प्रेम के साथ संपत्ति-प्रेम का बीज बोया जाता है। भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से वहशी कबीलों में परस्पर लड़ाइयाँ होती हैं। इनमें जो मनुष्य अच्छी तरह मुकाबला करके कबीले को बचाते हैं, वे अपने जीवन-काल में बुजुर्ग और मृत्यु के पश्चात् जनसाधारण की दृष्टि में देवता बन जाते हैं। इन लोगों के कारनामों को आनेवाली नस्ल में जारी रखना कबीले के लिए इस कारण आवश्यक होता है कि वीरों के लिए प्रशंसा और कायरों के प्रति घृणा उत्पन्न हो। ऐसे बुजुर्गों के मृत शरीरों को कायम रखने के लिए कब्रें बनाई जाती हैं। ये कब्रें पूजना और इनके साथ मकबरे बनाना मजहब की एक नींव है। इसके गुणों को गाने और लोगों को सुनानेवाले मजावर मजहबी नेता बन जाते हैं।
हरबर्ट स्पेंसर ने कब्रपरस्त मजहबों और उनके रीति-रिवाजों का अध्ययन करके ये निष्कर्ष निकाले हैं। मिस्री, चाल्डियावासी और यहूदी रूह या आत्मा को डबल माना करते थे। यह डबल या जोड़ा रूह उन्हें स्वप्न आदि में दिखलाई दिया करता था। इस जोड़े के लिए कब्र बनाना वे आवश्यक समझते थे परंतु आर्य जाति के लिए इस निष्कर्ष का ठीक कहना मुश्किल है। आर्यों में कब्र पूजा का निशान भी न था। वे मुरदे को जलाना ही धर्म समझते थे, क्योंकि वे जानते थे कि मुरदे के अंदर से आत्मा कहीं और चली जाती है। प्राचीन यूनान आदि देशों में प्राकृतिक शक्तियों को सूक्ष्म आत्माएँ समझकर उनकी पूजा करने का रिवाज था। इसका भी कब्रपरस्ती से कोई संबंध नहीं मालूम देता।
मनुष्य की प्रारंभिक अवस्था में असाधारण दिमाग रखनेवाले ऐसे कई व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने संसार का पथ-प्रदर्शन किया। प्रायः देखा जाता है कि यदि बच्चे को कुछ न सिखलाया जाय तो वह वहशी-सा बन जाता है, यहाँ तक कि भाषा न सिखलाने से वह कुछ बोल भी नहीं सकता। इसी प्रकार जो दल या कबीले वहशी हालत में चले आ रहे हैं, वे बहुत काल से इसी अवस्था में हैं। उन्होंने कोई उन्नति नहीं की। सिखलाए जाने पर उनमें विचित्र परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है।
बकल भी यह मानता है कि संसार में असाधारण बुद्धि रखनेवाले मानव पैदा होते हैं, जो मनुष्यों के लिए दीपक का काम देते हैं। उन्हें वह प्रकृति के ऊपर अतीतात्मक शक्तिवाला कहता है। वह उनके होने का कोई कारण नहीं बतला सकता। मत्सीनी (मेजिनी) कहता है कि संसार के पथ-प्रदर्शन के लिए ईश्वर आवश्यकतानुसार अपने आपको मनुष्यों में प्रकट करता है। यह विचार भगवद्गीता के चौथे अध्याय के श्लोक 7 और 82 में यों पाया जाता है-धर्म की रक्षा के लिए जब-जब जरूरत पड़ती है तब-तब मैं जन्म लेता हूँ। इसलाम, ईसाई और यहूदी-
तीनों सेमेटिक मजहब इसे मजहबी सिद्धांत बनाकर इस पर अपनी नींव रखते हैं। विशेष व्यक्तियों को इन्होंने खुदा के पैगंबरों का पद दिया, जिनकी ओर खुदा अपने फरिश्ते संदेश-वाहक के रूप में भेजता था और कई बार उनसे बातचीत भी किया करता था। खुदा के ये सब आदेश और हिदायतें इन मजहबों की पवित्र पुस्तकों में पाई जाती हैं।
आर्यशास्त्र ब्रह्मांड के सकल ज्ञान को वेद कहते हैं। वेद को भगवद्गीता में ब्रह्म कहा गया है। यह ज्ञान अटल और अनादि है। इस ज्ञान को मंत्रों के रूप में देखने और स्पष्ट करनेवाले ऋषि कहलाते हैं। इस बात पर थोड़ा मतभेद पाया जाता है कि यह समस्त ज्ञान मानव-सृष्टि के आरंभ में ही कुछ ऋषियों के द्वारा प्रकट हुआ या विभिन्न समयों में। इस विषय में एक मत तो यह है कि सब वेद आरंभ में ही विशेष मंत्रों के रूप में प्रकट हो गए और इनके अर्थ समझनेवाले ऋषि बाद में भी होते रहे। (इसी कारण उन ऋषियों के नाम पर वे मंत्र पाए जाते हैं) दूसरा मत यह है कि वेदमंत्र भी विभिन्न समयों पर उन ऋषियों पर प्रकट होते रहे जिनके नाम मंत्रों से मिलते हैं परंतु एक बात पर सभी सहमत हैं-वे स्वतः प्रमाण हैं और उनकी निंदा करने वाला नास्तिक है।-क्रमशः (हिफी)