अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-24) नेवले ने बतायी यज्ञ की सार्थकता

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
आर्य भाषा-संस्कृत-में यज्ञ सबसे मीठा और प्रिय शब्द है। यज्ञ का एक बड़ा सुंदर उदाहरण महाभारत में पाया जाता है। जब पांडवों ने युद्ध में विजय-लाभ करके अश्वमेध यज्ञ रचा, तब जीव-जंतु आदि सभी
प्राणियों को यज्ञ का अवशेष-पवित्र भोजन-खिलाया गया। उस समय एक नेवला यज्ञ की वेदी पर आया। वहाँ सब ऋषि और पंडित बैठे थे। नेवले का आधा शरीर सोने का था। वह वेदी पर इधर-उधर लेटा। ऐसा करने के बाद उसने कहा, यह यज्ञ किसी काम का नहीं हुआ। सभी ने आश्चर्य से पूछा, क्यों? तुम कैसे ऐसा कहते हो? नेवले ने उत्तर दिया, एक समय बहुत भयानक दुर्भिक्ष पड़ा था। कई दिनों तक लोगों को खाना नहीं मिला। जंगल में एक कुटिया में एक ब्राह्मण, उसकी पत्नी, बेटा और बहू रहते थे। चार दिनों तक भूखे रहने के पश्चात् वह ब्राह्मण कहीं से कुछ जौ ले आया। लड़के की माँ ने उससे चार रोटियाँ बनाईं। वे खाने के लिए बैठे ही थे कि द्वार पर किसी भूखे की आवाज आई-अरे, मैं कई दिनों से भूखा मर रहा हूँ। ब्राह्मण उसे कुटिया के अंदर ले आया और अपने हिस्से की रोटी उसके सामने रख दी। परंतु इससे उसकी तृप्ति नहीं हुई। एक-एक कर सबने अपनी-अपनी रोटी उसे अर्पण कर दी। वह तो खाकर चलता बना, परंतु अगले दिन उस कुटिया में चार मुरदे पाए गए। मैं वहाँ जा पहुँचा। जौ के आटे के कुछ कण मेरे शरीर के एक तरफ लग गए। बस, उसी समय यह आधा भाग सोने का हो गया। इस यज्ञ में मैं यह देखने आया था कि यहाँ पर मेरा बाकी आधा शरीर भी वैसा ही स्वर्णमय बनता है या नहीं परंतु इस यज्ञ का मुझ पर कोई प्रभाव दिखलाई नहीं देता।
फ्रांस की प्रसिद्ध क्रांति से कुछ समय पहले रूसो’ ने फ्रांसीसी भाषा में एक छोटी सी पुस्तक सामाजिक मुआहिदा लिखी। इसमें बतलाया गया, आदमी प्राकृतिक अवस्था में बहुत प्रसन्न था। तब मनुष्य स्वतंत्र और बराबर थे। वर्तमान समाज की अवस्था में आकर आदमी बहुत गिर गया है। यह खयाल बिलकुल नया था। अमीर लोग इस प्रस्ताव की खिल्ली उड़ाते थे। कार्लाइल ने उसी समय भविष्यवाणी के रूप में कहा, जो लोग इस नए विचार पर हँसते हैं, उनके पोतों के शरीर के चमड़े इस पुस्तक की जिल्दें बाँधने के काम आएँगे। यह भविष्यवाणी क्रांति के समय ठीक सिद्ध हुई।
इंग्लैंड के प्रसिद्ध विद्वान् लॉक और हॉब्स दोनों समाज को राजा और प्रजा के पारस्परिक मुआहिदे पर आश्रित मानते हैं। इनमें थोड़ा सा ही अंतर है। हॉब्स कहता है, जब एक बार प्रजा ने समस्त अधिकार राजा के हाथ में दे दिए, तब वे उन्हें वापस नहीं ले सकते। इस कारण राजा का पद एकतंत्र शासक का है। इसके मुकाबले पर लॉक का मत है कि प्रजा ने सिर्फ इकरार किया है। वह इस इकरार को वापस ले सकती है।
महाभारत का शांतिपर्व राजनीति, युद्ध तथा शांति और राज-शासन के विषयों पर उच्च कोटि का व्याख्यान है। पुराना होने पर भी वह वर्तमान काल में भी वैसा ही शिक्षाप्रद है। उसमें भी राज्य के आरंभ के बारे में विचार किया गया है। वहाँ बताया गया है कि प्रारंभिक काल, सत्ययुग में मनुष्य सीधे-सादे और प्रायः शुद्ध आचार के थे। तब न कोई चोरी करता था, न झूठ बोलता था और न किसी को दुःख देता था । तब न दंड की आवश्यकता थी, न कानून की। जब प्रजा बहुत बढ़ी तब लोगों के अंदर झूठ, चोरी आदि पाप शुरू हुए। इनसे तंग आकर कुछ लोग प्रजापति के पास गए। प्रजापति ने कहा, तुम सब मिलकर अपने में से एक को राजा बनाओ, जो सबकी रक्षा करे। इसके बदले में तुम लोग अपनी उपज का दसवां और संपत्ति, अर्थात् बैलों आदि का चौथा हिस्सा उसकी भेंट करो। इसके अनुसार मनु पहला राजा बनाया गया। उसने विभिन्न कानून आदि बनाए। आगे चलकर महाभारत में यह भी बताया गया है कि राजा को हटा देना भी प्रजा के हाथ में है । जब कोई राजा प्रजा की रक्षा करने की योग्यता न रखता हो तब उसे बाँझ स्त्री या दूध न देनेवाली गौ समझकर एक तरफ हटा देना चाहिए। जरूरत के वक्त किसी मनुष्य को भी, चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो, राजा बनाया जा सकता है। उसी प्रकार जिस तरह नाव के डूबने के समय जो कोई भी नाव को बचा सके, उसे ही नाविक बना देना चाहिए। महाभारत में राज्य का काम चलाने के लिए दो सभाएँ बनाने का उल्लेख है। इनमें चारों वर्णों के प्रतिनिधि चुने जाने चाहिए। आंतरिक सभा- अर्थात् मंत्रिसभा- में चार ब्राह्मण, तीन
क्षत्रिय, दो वैश्य और एक शूद्र होना चाहिए। दूसरी बड़ी सभा में चार ब्राह्मण, दस क्षत्रिय, बीस वैश्य और दस शूद्र हों।
ब्रह्मांड के चलने का निराला ढंग है। इसमें किसी चीज को, चाहे वह कितनी ही उत्तम क्यों न हो, सदा के लिए स्थिरता प्राप्त नहीं होती। सर्वोत्तम सिद्धांतों के अंदर ही उनके विनाश का बीज विद्यमान होता है। राष्ट्र उन्नति करते हैं। उनकी शक्ति बढ़ती है। शक्ति बढ़ने पर घमंड हो जाता है। घमंड के कारण वे अंधे हो जाते हैं और अपने दोषों को देख नहीं सकते।
जिस धन-दौलत की वृद्धि पर हमें इतना गर्व होता है, उसके अंदर ही विषयासक्ति और विलासप्रियता का बीज होता है, उसी प्रकार जिस प्रकार विद्यार्थी के परिश्रम के अंदर उसके भावी सुख का बीज होता है। धन जमा करने से भोग- विलास बढ़ता है। विषयासक्ति का भाव बुद्धि पर परदा डाल देता है। इस प्रकार मदांध राष्ट्र दूसरों के साथ न्याय या अन्याय की परवाह नहीं करते। प्राचीन काल में जिन लोगों ने जातीय अभिमान के वश में होकर बड़े-बड़े साम्राज्य बनाए, वे एक दिन ऐसे गिरे कि उनके गुलामों का प्रभुत्व उन पर हो गया। उन्होंने सबको अपने अंदर आत्मसात् करने का प्रयत्न किया। चाहे वे पचा सके
या नहीं, उन्होंने इस सिद्धांत को बिलकुल भुला दिया कि गुलाम का मालिक भी वैसे ही जंजीरों में कैद होता है जैसे गुलाम क्योंकि मालिक को सदा गुलाम की फिक्र रहती है। यह कहा जा सकता है कि पिछले लोगों के पतन के कारण समझने में हम अपने आपको गिरने से बचा लेंगे परंतु उन कानूनों की प्रकिया को हम सदा के लिए नहीं रोक सकते। प्राकृतिक नियम अटल हैं। शराब पीने से नशा होता है। ऐसे ही दूसरों पर प्रभुत्व प्राप्त करने से मद या घमंड उत्पन्न होता है।-क्रमशः (हिफी)

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